Book Title: Taittiriyo Pnishad
Author(s): Geeta Press
Publisher: Geeta Press

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Page 7
________________ [ ४ ] अतः ब्रह्ममें स्थित होना हो जीवकी अभयस्थिति है, क्योंकि वहाँ भेदका सर्वथा अभाव है और भय भेदमें ही होता है 'द्वितीयाद्वै भयं भवति' । इस प्रकार ब्रह्मनिष्टको अभयप्राप्तिका निरूपण कर ब्रह्मके सर्वान्तर्यामित्व और सर्वशासत्वका वर्णन करते हुए ब्रह्मवेत्ताके आनन्दको सर्वोत्कृष्टता दिखलायी है । वहाँ मनुष्य, मनुष्यगन्धर्व, देवगन्धर्व, पितृगण, आजानजदेव, कर्मदेव, देव, इन्द्र, वृहस्पति, प्रजापति और ब्रह्मा इन सबके आनन्दोको उत्तरोत्तर शतगुण बतलाते हुए यह दिखलाया है कि निष्काम ब्रहावेत्ताको वे सभी आनन्द प्राप्त हैं । क्यों न हों ? सबके अधिष्टानभूत परब्रह्मसे अभिन्न होनेके कारण क्या वह इन सभीचा आत्मा नहीं है । अतः सर्वरूपसे वहो तो सारे आनन्दोंका भोक्ता है । भोक्ता ही क्यों, सर्व-आनन्दस्वरूप भी तो वही है, सारे आनन्द उसीके स्वरूपभूत आनन्द - महोदधिके क्षुद्रातिशुद्र कण हो तो हैं । इसके पश्चात् हृदयपुण्डरीकस्थ पुरुषका आदित्यमण्डलस्थ पुरुनके साथ अभेद करते हुए यह बतलाया है कि जो इन दोनोंका अभेद जानता है यह इस लोक अर्थात् दृष्ट और अदृष्ट त्रिपयसमूहसे निवृत्त होकर इस समष्टि अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय एवं आनन्दमय आत्माको प्राप्त हो जाता है । इस प्रकार सारा प्रपञ्च उसका अपना शरीर हो जाता है --- उसके लिये अपनेसे भिन्न कुछ भी नहीं रहता । उस निर्भय और अनिर्वाच्य स्वात्मतत्त्वको जिसे प्राप्ति हो जाती है । उसे न तो किसीका भय रहता है और न किसी कृत या अकृतका अनुताप ही । जब अपनेसे भिन्न कुछ है ही नहीं तो भय किसका और क्रिया कैसी ? क्रिया तो देश, काल या वस्तुका परिच्छेद होनेपर ही होती है; उस एक, अखण्ड, अमर्यादित, अद्वितीय वस्तुमें किसी प्रकारकी क्रियाका प्रवेश कैसे हो सकता है ? - इस प्रकार ब्रह्मानन्दवल्लीमें ब्रह्मविद्याका निरूपण कर भृगुवल्लीमें उसको प्राप्तिका मुख्य साधन पञ्चकोश -विवेक दिखलानेके लिये वरुण और भृगुका आख्यान दिया गया है । आत्मतत्वका जिज्ञासु भृगु अपने

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