Book Title: Supasnaha Chariyam
Author(s): Lakshmangani,
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust
View full book text
________________
सु०० १५४||
215 नयरवासिलोयस्स | नाणेण पए नायं अंतमुहुवरापरओ १५५॥ को पइ जपेई पुहलाई गरुयणक्खभरभरिओ। किंगणं निवडेही गहचकजुयंपि इह नयरे १ ॥५६॥ किंवा अइगरुअगिरिं कोवि सुरो पाडिही पुरस्सुवरि । पलयानलसारिच्छो अहवा जलणो इहुट्टिही?॥५७।। अहह ! असंबद्धपलाविरस्स बडुयस्स पेच्छ मह पुरओ।जीहाए चंचलत्तं तो मंतीभणइ पसिऊण ।।५८॥ एसोच्चिय पुच्छिज्जउ देवाकुसलस्स कारणं किंपि। किमिमेहिं अणक्खेहि वियप्पबहुलेहि भणिएहिं ? ॥५९॥ तो भणइ निवो भण भद्द ! कारणं अकुसले पुरजणस्स । जंपइ देव ! सुणिज्जउ मणं पसन्नं करेऊणं ॥६०॥ नरवर ! वरोवि दिव्वं देवन्नू सक्कए न रक्खेउं । जंभावि सुहं असुहं त चिय सो कहइ अवियप्पं ॥६१॥ ता मा रुससु मज्झं जहदिट मावि परिकइंतस्स । इय भणि देवन्नू निब्भयचित्तो कहइ | एवं ॥१२॥ मुसलप्पमाणघणधारधोरणीए घराए तह कहवि । धाराघरो पवुद्धि काही धीराण धुणियसिरो ॥६३॥ अकलियगुरुथलगत्तोरुसालदेवउलमालधवलहरं । एकनलं चिय होही नयरं गुरुनीरनिहिसरिस ॥६४॥ इय तस्स कहंतस्सवि परिवत्तिय उत्तरो गुरुरोषभरभृतः । किं गगनं निपतिष्यति ग्रहचक्रयुतमपीह नगरे ! ॥५६॥ किंवाऽतिगुरुगिरि कोऽपि सुरः पातयिष्यति पुरस्योपरि । प्रलया-|| नलसदृशोऽधवा ज्वलन इहोत्यास्यति ! ॥१७॥ अहह ! असंबद्धप्रलपितुटुक्कस्य पश्य मम पुरतः । जिहायाश्चञ्चलत्वं ततो मन्त्री भणति प्रसद्य ॥५८॥ एष एव पृच्छयतां देवाकुशलस्य कारणं किमपि । किमेभी रोपैर्विकल्पबहुलैर्मणितः ॥१९॥ ततो मणति नृपो भण भद्र ! कारणमकुशले पुरजनस्य | जस्पति देव! श्रूयतां मनः प्रसनं कृत्वा ॥६॥ नरवर ! बरोऽपि देवं दैवज्ञः शक्नोति न रक्षितुम् । यद्भावि शुभमशुमं तदेव स कल्यत्यविकल्पम् ॥१॥ तस्माद् मा रुष्य मम बबाट मावि परिकथयतः । इति मणित्वा दैवज्ञो निर्मयचित्तः कय- यत्येवम् ॥१२॥ मुसलप्रमाणपनधाराघोरण्या घरायां तया कथमपि । पारापरः प्रवृष्टिं करिष्यति धीराणां पूनितशिराः ॥१३॥ अकलितगुरु
॥१५४॥
JanEduce
For Personal & Private Use Only
brary.org

Page Navigation
1 ... 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430