Book Title: Supasnaha Chariyam
Author(s): Lakshmangani, 
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 325
________________ 00000000 2-24 तदभिप्पायं नाउं नीलनिवं तस्स दंसए बदं । भणइ य एस स नीलो जो अहिमरपेसओ तुझ ॥१५३।। भणइ त नरिंदो संपइ किं | | तुज्झ होउ, सो भणइ । दिहम्मि तुझ पयपंकयम्मि जंहोइ त होउ ॥१५४॥ तो छोडेउं बंधे सम्माणेऊण भणिय तं जक्खं । सहाणे संपचं सुहेण कारइ खणदेण ॥१५५।। अह निकंटयमेयं रज पालंतयस्स नरवइणो । साहम्मियसम्माणणपरस्स जिणधम्मनिरयस्स ॥१५६॥ जोगत्तं संपत्तं पुत्रं रज्जम्मि ठविउकामस्स । दिक्खाभिमुहस्सुजाणपालओ विनवइ एवं ॥१५७॥ गुणरयणायरसूरी समो-| सदो देव ! नंदणुजाणे । कयसज्जणमणहरिसो पुन्नुकरिसोव्व देवस्स ॥१५८|| तस्स कयपीईदाणोऽणुगम्ममाणो नरिंदविंदेहि। गंतु | वंदइ विहिणा राया xि सपरिवारं ॥१५९॥ कि सोच्चिय सच्चपइनसेहरो एस इइ विचितंतो । आलतो मरीहिं कि परियाणसि महाAll राय! ॥१६०॥ तो निरसंसयहियो सिरकयकरकमलसंपुडो भणइ । जणणी सञ्चिय धन्ना जीइ पमूओ तुम सामि ! ॥१६॥ ॥१५२।। तदभिप्रायं ज्ञात्वा नीलनपं तस्मै दर्शयति बद्धम् । भणति चैप स नीलो योभिमरप्रेषकस्तव ॥१५३॥ ततो भणति तं नरेन्द्रः संप्रति किं तव भवतु, स मणति । दृष्टे तव पादपङ्कजे यद्भवति तद्भवतु ॥१५॥ ततो मोचयित्वा बन्धान संमान्य भणित्वा तं यक्षम् । स्वस्थाने संप्राप्तं सुखेन कारयति क्षणान ॥१५॥ अथ निष्कण्टकमेतद्राज्यं पालयतो नरपतेः । सार्मिकसम्माननपरस्य जिनधर्मनिरतम्य ॥१५॥ योग्यत्वं संप्राप्तं पुत्रं राज्ये स्थापयितुकामस्य । दीक्षाभिमुखस्योद्यानपालको विज्ञपयत्येवम् ॥१५७॥ गुणरत्नाकरसूरिः समवसृतो देव ! नन्दनोद्याने । कृतसज्जनमनोहर्षः पुण्योत्कर्ष इव देवस्य ॥१५८॥ तस्मै कृतप्रीतिदानोऽनुगम्यमानो नरेन्द्रवृन्दैः । गत्वा वन्दते विधिना राजा सूरि सपरिवारम् ॥१५९॥ किं स एव सत्यप्रतिज्ञशेखर एष इति विचिन्तयन् । आलप्तः सूरिभिः किं परिजानासि महाराज!! ॥१६०॥ ततो निःसंशयहृदयः शिरःकृतकरकमलसंपटो भणति । बननी सैव पन्या यया प्रसूतस्त्वं स्वामिन् ! ॥१६१॥ लब्धप्रसरमपि Jain Educ a tional For Personal & Private Use Only Mainelibrary.org

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