Book Title: Sramana 1993 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 5
________________ डॉ. कमल जैन विरह से दुःखित होकर आचार्य ने अपने प्रत्येक ग्रन्थ को विरह शब्द से अंकित किया है।11 हरिभद्र ने विद्याभ्यास कहाँ किया इसका स्पष्ट निर्देश कहीं नहीं मिलता। उपदेशपद की टीका से ज्ञात होता है कि आचार्य हरिभद्र गृहस्थावस्था में आठ व्याकरणों के विशिष्ट अध्येता थे तथा तर्कशास्त्र के ज्ञाताओं में अग्रगण्य थे। ऐसा प्रतीत होता है कि राजपुरोहित के घर जन्म लेने के कारण उन्होंने संस्कृत व्याकरण, साहित्य, न्याय- दर्शन, वेद, पुराण, धर्मशास्त्र, ज्योतिष शास्त्र आदि अनेक ग्रन्थों का अध्ययन किया था। जैन परम्परा में बौद्ध या ब्राह्मण परम्परा की भांति विद्यापीठ नहीं थे। अतः जैन दीक्षा स्वीकार करने के बाद आचार्य का अध्ययन-अध्यापन गुरु के सानिध्य में ही हुआ होगा, उन्हें जैन आगमग्रन्थों का भी पूर्ण ज्ञान था, जिसकी पुष्टि उनके द्वारा लिखी गई आगमग्रन्थों की टीकाओं से होता है। हरिभद्र का काल हरिभद्र के जीवन और मृत्यु काल के विषय में अनेक भ्रान्तियाँ हैं। डॉ. जैकोबी ने 'उपमितिभवप्रपंचा' में हरिभद्र का समय विक्रम की नवीं शती माना था। 2 अचलगच्छीय आचार्य मेरुतुंग ने प्रबन्धचिन्तामणि में एक पुरानी गाथा का उल्लेख करते हुये कहा है कि विक्रम संवत् 585 में हरिभद्र का स्वर्गवास हुआ।13 पं. कल्याण विजय जी ने धर्मसंग्रहणी की अपनी संस्कृत प्रस्तावना में हरिभद्र का समय विक्रम की छठीं शताब्दी स्थापित करने का प्रयत्न किया था।4 हरिभद्र के समय निर्णय में उद्योतनसूरि की कुवलयमालाकहा का विशेष महत्त्व है, यह ग्रन्थ 779 ई. में पूर्ण हुआ था। इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में उद्योतनसूरि ने हरिभद्र को अपना गुरु माना है तथा अनेक ग्रन्थों के रचयिता के रूप में उनका उल्लेख किया है। इस प्रकरण के आधार पर मुनि श्री जिनविजय जी इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि महान् तत्त्वज्ञ आचार्य हरिभद्र और कुवलयमालाकहा के कर्ता उद्योतनसूरि कुछ समय तक तो अवश्य समकालीन थे। आचार्य हरिभद्र के समय की उत्तरी सीमा का निर्धारण कुवलयमाला के रचयिता की उस उक्ति द्वारा होता है जिसमें उन्होंने अपने ग्रन्थ की समाप्ति 78 शक संवत् बताई है और हरिभद्र को अपना गुरु कहा है। इससे स्पष्ट होता है कि 700 ई.। संवत के बाद का तो समय हो ही नहीं सकता। इतनी विशाल ग्रन्थ राशि लिखने वाले आचार्य की आयु 60-70 वर्ष तो अवश्य ही रही होगी। अतः इस प्रमाण के आधार पर श्री जिनविजय जी ने अनेक बाह्य तथा आन्तरिक प्रमाणों की समालोचना करके उनका समय ई. 700 से 770 के बीच निश्चित किया है और यही अब सर्वमान्य भी है17 हरिभद्र की रचनायें आचार्य हरिभद्र के ग्रंथों की संख्या बहुत बड़ी मानी जाती है। पूर्व परम्परा के अनुसार वे 1400, 1440, 1444 प्रकरणों के कर्ता माने जाते हैं। अभयदेव सूरि ने पंचाशक की टीका में आचार्य हरिभद्र को 1400 प्रकरणों का रचयिता कहा है। राजशेखर सूरि ने अपने प्रबन्धकोश में इनको 1440 प्रकरणों का रचयिता कहा है। Jain Education International For Private & Persopal Use Only www.jainelibrary.org

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