Book Title: Sramana 1993 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 40
________________ डॉ. केशव प्रसाद गुप्त पत्तिमभ्यपतदेव हि पत्तिारणः करिणमश्वमथाश्वः । स्यन्दनो रथामिति प्रतिरूपन्द्रयुद्धमजनिष्ट गरिष्ठम्।। वीरगर्वगदितैर्हयहेषाडम्बरैः करटिवृंहितवृन्दैः। स्यन्दनप्रकरचीत्कृतिजातैः काहलायमलशंखनिनादैः ।। आहतस्फुरफटत्कृतिजातैः काहलायमलशंखनिनादैः ।। आहतस्फुरफटत्कृतिखंगाखंडिझकृतिधनुर्ध्वनिभिश्च । भट्टलोकतुमुलैः शरमालासूत्कृतभुवनमेतदपूरि।। यहाँ वस्तुपाल और शंख की सेनाएँ आलम्बन विभाव हैं। एक दूसरे को पराजित करने की भावना उद्दीपन विभाव है। वीरों का गरजना, द्वन्द्व युद्ध करना, तलवारों व धनुषों का परस्पर टकराना, शंखनाद आदि अनुभाव हैं। आवेग, उग्रता, गर्व आदि संचारी भाव हैं। इस प्रकार इनके संयोग से सैनिकों के युद्ध विषयक उत्साह की परिणति युद्भवीर रस के रूप में हुई दशम सर्ग में तीर्थ यात्रा के वर्णन में वस्तुपाल की दयाविषयक वीरता दर्शनीय है -- वैद्यभेषजभरान्नवाहनाम्भोभिराभिजलकृत्यविज्जनम। बाधितं क्षुधितमाहितश्रमं तर्षितं च सुखिनीचकार सः।। निःस्वधार्मिकजनानारतं सच्चकार वसनाशनादिभिः । दीनदुःस्थितजनं जनेश्वरः प्राप्तसम्पंदयमन्वकम्पत।।" यहाँ वस्तुपाल के हृदय में दीन दुःखियों के प्रति दयाविषयक उत्साह स्थायीभाव है। बाधित, क्षुधित, थके हुए, प्यासे और दुःखीजन आलम्बन हैं और इन सबकी व्यक्त होने वाली विविध पीडाएँ उददीपन विभाव हैं। चिन्ता, तर्क, मति, हर्ष आदि संचारी भाव हैं। फलतः यहाँ वस्तुपाल का उत्साह दयावीर के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है। वीररस प्रधान महाकाव्य होने पर भी वसन्तविलास में श्रृंगार रस को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। सम्भोग श्रृंगार का सर्वप्रथम दर्शन सप्तम सर्ग में पुष्पावचय वर्णन में होता है। उपवन प्रदेश में लताओं के मध्य कामातुर युवक-युवतियों की रतिक्रीड़ा एक मनोहारी दृश्य उपस्थित करती है -- अनुप्रयातेन वरेण कौतुकात्प्रिया स्मरेणेव धनुर्लतायता। उदसि मध्ये परिमद्य वेणिकासुरोमराजीगणयुग्मराजिता।। उपागतः कोऽपि युवात्मयोषितं तबाहुमूलाहितहस्तपंकजः । स्तोनपीडं परिगृह्य मन्मथाहारभिन्नामिव धारयन्ययौ।' अष्टम सर्ग में चन्द्रमा की चाँदनी व रात्रि के एकान्त वातावरण में "रति" का यह उद्दीपक दृश्य सम्भोग श्रृंगार की चरमावस्था को द्योतित करता है -- सुभ्रवा दयितया च चुम्बनालिङ्गनैर्विकसदङ्गसम्पदा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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