Book Title: Sramana 1993 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 42
________________ डॉ. केशव प्रसाद गुप्त क्षत्रियाः समरकेलिरहस्यं जानते न वणिजो भ्रम एषः । अम्बडो वणिगपि प्रधने किं मल्लिकार्जुननृपं न जघान ।। दूत ! रे वणिगहं रणहट्टे विश्रुतोऽसितुलयाकलयामि। मौलिभाण्डपटलानि रिपूणां स्वर्गवतनमयो वितरामि।।15 शंख की सेना के आगमन का समाचार पाकर वस्तुपाल के सैनिकों का क्रोध भड़क उठता है और वे युद्ध हेतु उन्मत्त हो जाते हैं -- एति वैरिकटकं स्फुटमित्याकर्ण्य केचिदपमुद्रितकोपाः । प्रषियन्त इव नाम कराग्रोत्पीडने पिपिषुः कटकानि।। आलिलिगुरयाष्टिमिहैके निश्चुचुम्बरसिधेनुमथान्ये। अस्तवंश्च भुजयुग्मपि स्वं केपि सङ्गरमधित्वरमाणः ।। इन पंक्तियों में वस्तुपाल के सैनिकों के क्रोध का चित्रण किया गया है। आलम्बन शंख की सेना है। युद्ध का उत्साहवर्धक वातावरण उद्दीपन विभाव है। सैनिकों द्वारा तलवार का आलिंगन करना अपने भुजाओं को निरखना आदि अनुभाव हैं। हर्ष, मद, औत्सुक्यादि संचारी भाव हैं। अतएव, यहाँ सैनिकों का क्रोध रौद्र रस की अभिव्यक्ति कर रहा है। महाकाव्य के पंचम सर्ग में युद्ध के समय नरसंहार होने के कारण युद्धभूमि का यह दृश्य 'जुगुप्सा" उत्पन्न कर रहा है -- वस्तुपाल सुभटेषुभिरुच्चैरातपत्रनिवहेषु समन्तात् । पातितेषु रिपुराजकबन्धैःश्येनमण्डलमवाप तदाभाम् ।। श्रृंगकैरिव विहस्य गृहीतरिक्तबाणधिभिरेव पिशाचैः । रौधिरेषु विदधुर्जलकेलिं निम्नभूतलगतेषु नदेषु ।।। उक्त श्लोकों में श्येन व गिद्धादि द्वारा शवों के खाये जाने एवं पिशाचों द्वारा रुधिर-नद में जलकेलि किये जाने आदि के वर्णन में "जुगुप्सा" के कारण वीभत्स रस की व्यंजना की गयी पंचम सर्ग में वस्तपाल और शंख के युद्ध के अन्तिम क्षणों में भयानक रस का चित्रण हुआ है। वस्तुपाल की विशाल सेना, उसके पराक्रम और अपनी नष्ट होती हुई सेना को देखकर शंख डर जाता है और युद्धभूमि से भागकर अपनी राजधानी भृगुकच्छ (भृगुपुर ) पहुंचने पर ही श्वांस लेता है -- ध्वस्तव्यस्तसमस्तपत्तिविभवो वाहत्वराविच्छुटकेशः क्लेशविसंस्थुलेन मनसा प्रम्लानवक्त्राम्बुजः। शंखः सोऽपि सहासतालममरैरालोक्यमानः क्षणादुत्तालः किल वस्तुपालसचिवात्त्रासं समासेदिवान् ।। श्रीवस्तुपालसचिवादचिरात्प्रणष्टः शंखस्तथा पथिं विश्रृंखलवाहवेगः । तत्पृष्ठपातभयभंगुरचित्तवृत्तिः श्वासं यथा भृगुपुरे गत एवं भेजे।। Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org

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