Book Title: Sramana 1993 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 48
________________ डॉ. केशव प्रसाद गुप्त आतपत्रमिव पूर्वभूभृतः केलिदर्पण इवाम्बरः श्रियः । आलवाल इव शर्मभूरुहः शोभते स्म सकलोचितः शशी । 48 यहाँ चन्द्रमा उपमेय है जिसके लिए आतपत्र, केलिदर्पण और आलवाल जैसे कई उपमान प्रयुक्त किये गये हैं । अतः यहाँ मालोपमा है । प्रकृत (उपमेय ) के साथ उपमान के ऐक्य की सम्भावना उत्प्रेक्षा है। 49 यथा- अस्तशैलशिखरेऽपतन्नभः शाखिपक्चफलमर्कमण्डलम् । तद्रसैरिव समुत्सृतैस्ततः सान्ध्यरागविसरैर्भृशायितम्। 50 यहाँ कवि ने सायंकालीन फैलती हुई लालिमा को देखकर यह कल्पना की है कि मानो नभ - वृक्ष से सूर्य - मण्डल रूप पका हुआ फल अस्ताचल की चोटी पर गिर गया है जिसका रक्त वर्ण रस चारों ओर फैल रहा है। इस वर्णन में लालिमा रूप उपमेय की उक्त कल्पित उपमान के साथ ऐक्य की सम्भावना किये जाने के कारण उत्प्रेक्षा अलंकार है । जहाँ उपमान और उपमेय का एक दूसरे से नितान्त अभिन्न वर्णन किया जाय, वहाँ रूपक अलंकार होता है। 52 वस्तुपाल द्वारा शंख के दूत को कहे गये व्यंगपूर्ण वचन में रूपक की योजना की गयी है -- दूत रे ! वणिगहं रणहट्टे विश्रुतोऽसितुलया कलयामि । मौलिभाण्डपटलानि रिपूणां स्वर्गवेतनमथो वितरामि। 53 उक्त कथन में उपमेय रण का उपमान हाट से, उपमेय असि का उपमान तुला से, उपमेय स्वर्ग का उपमान वेतन से नितान्त अभिन्न वर्णन कर कवि ने रूपक के माध्यम से अर्थ- सौन्दर्य उत्पन्न किया है। आचार्य दण्डी ने प्रस्तुत के लोकातिशायी ढंग से वर्णन करने को अतिशयोक्ति कहा है और उसे उत्तम अलंकार माना है। 54 वस्तुपाल के चरित्र के सम्बन्ध में कवि का निम्न कथन अतिश्योक्तिपूर्ण है - -- कौतुकेन कलिकालजित्वरं वस्तुपालचरितं विलोक्य । भानुमथ जगाम जल्पितुं तूर्णमेव प्रचेतसः । 55 उक्त श्लोक में वस्तुपाल के कलिकालजित्वर चरित्र को देखकर सूर्य का ब्रह्मा के पास जाने का वर्णन लोकातिशायी है । इसीप्रकार वस्तुपाल की संघयात्रा में सम्मिलित होने वाले यात्रियों की संख्या के वर्णन में भी अतिशयोक्ति है - परःसहस्रा यतयः परः शताः गणेशितारः किमु वा ब्रवीमहे । वसन्तसङ्घे जिनदर्शनात्मनां को वेद संख्यामपि कोविदाग्रणीः । 56 For Private & Ponal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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