Book Title: Sramana 1993 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 46
________________ डॉ. केशव प्रसाद गुप्त न कौङ्कणः पक्वणमुत्ससर्ज, न जाङ्गलो माङ्गलिकैर्जगर्ज । पाण्ड्यो न पिण्डग्रहणं चकार, न कुन्तलः कुन्तलमुद्दधार । 3 जहाँ अर्थ रहते हुए भी भिन्न-भिन्न अर्थवाले वर्ण, उसी क्रम में पुनः सुनायी पड़ें, वहाँ यमक अलंकार होता है। 34 कवि ने महाकाव्य के षष्ठ और द्वादश सर्गों में इस अलंकार का प्रयोग शब्दगत चमत्कार और पाण्डित्य-प्रदर्शन हेतु किया है। उदाहरणार्थ कतिपय श्लोक प्रस्तुत हैं -- अस्मिन्धना श्यामलतासु कान्ता लतासुकान्ता सहिताः सुरेभाः । हितासु रेभासु समीरयन्तः समीरयन्तः सततं गतानि 35 + + + + अत्र संफुल्लनी पावनी पावनी वल्गुवेणी लताभासिता भासिता । वल्कीवादने वन्धुरा वन्धुरा दृश्यते चेदहो किन्नरी किन्नरी। 36 आवृत्ति क्रम की व्यवस्था के अनुसार यमक कई प्रकार का होता है। 37 द्वितीय पाद की चतुर्थ पाद में आवृत्ति से संदष्टक यमक होता है । यथा I -- विभाति कैलाश इवेश्वरेण शिवाङ्गभाजा वृषभासितेन । श्रीनेमिनाथेन कृताधिवासः शिवाङ्गभाजा वृषभासितेन । 38 प्रथम पाद की तृतीय पाद में आवृत्ति 'संदेश' यमक है निरवधिमधुना रसालसालं प्रसवभरेण सिषिविरे द्विरेफः । निरवधिमधुना रसालसाऽलं विरहिवधूः पिकपंचमास्त्रपातैः 39 प्रथम पाद की द्वितीय से और तृतीय की चतुर्थ से समानता 'युग्मक' यमक है-भावप्रपातिवरकोकनदान्वितोऽयं भावप्रपातिवरकोकनदान्वितोऽयम । देव ! क्षमाधरसमान ! महागिरीश देवक्षमाधरसमानमहागिरीशः 40 प्रथम पाद का तृतीय पाद में और द्वितीय पाद का चतुर्थ पाद में प्रयोग 'महायमक' है भ्रमरहितविकचसुमनोमुनिभिर्विनिकामयमितो नूनम् । भ्रमरहितविकचसुमनोमुनिभिर्विनिकाममयमितोऽनूनम् । 41 प्रथम पाद की चतुर्थ पाद में आवृत्ति को 'आवृत्तिं' यमक कहते हैं सुवर्णसंभारभृतो न मेरुवनितलक्रीडितपूर्वविष्णोः । रतस्य साधर्म्यमुपैति सोऽपि सुवर्णसंभारभृतो न मेरुः । A2 इसी प्रकार एक स्थल पर द्वितीय पाद की तृतीय पाद से समानता प्रस्तुत करते यमक की सृष्टि की गयी है हुए अयं निकुंजानि विभत्ति पापहन्ताप्सरोविभ्रमरोचितानि । हन्ताप्सरोविभ्रमरोचितानि श्रृंगाणि श्रृंगारयते च शैलः । 43 For rivate & Personal Use Only Jain Education International 'गर्भ' www.jainelibrary.org

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