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डॉ. केशव प्रसाद गुप्त
सिद्ध हुए हैं। 3. गुण-निरूपण
काव्य में गुणों की स्थिति आवश्यक ही नहीं अपितु, अपरिहार्य है। इसीलिए आचार्य मम्मट ने काव्य को सगुण होना आवश्यक माना है। आचार्य वामन का मत है कि यदि कोई काव्यांगना के यौवनहीन शरीर के समान गुणों से रहित है, तो उसे कितने ही लोकप्रिय अलंकारों से भले ही सजाया जाय, उसमें शोभा नहीं हो सकती है।78 गुणों के भेद के सम्बन्ध में आचार्यों में मतैक्य नहीं है, फिर भी आचार्य मम्मट ने माधुर्य, ओज और प्रसाद इन्हीं तीन गुणों की सत्ता स्वीकार की है।79
वसन्तविलास एक रस प्रधान महाकाव्य है। गुण रस के धर्म है । अतएव, जहाँ रस है, वहाँ गुणों की उपस्थिति अनिवार्य है। महाकाव्य में माधुर्य, ओज और प्रसाद गुणत्रय का यथास्थान प्रयोग हुआ है। कवि बालचन्द्रसूरि का गुणों के प्रति सहज दृष्टिकोण प्रकारान्तर से निम्नांकित श्लोक में व्यक्त हुआ है--
प्रसत्तिमाधुर्यवती सदोजाः सुजातसौन्दयनिधानभूता।
मनोहरालंकृतिवर्जितापि शय्यां गता वाग्लटभाङ्गनेव ।। श्रृंगाररस की अभिव्यक्ति का माध्यम माधुर्यगुण को माना जाता है। आचार्य भरत ने श्रुति-मधुरता को माधुर्य कहा है।82 दण्डी ने रसमयता को ही माधुर्य माना है।83 मम्मट ने माधुर्य गुण का लक्षण इस प्रकार बतलाया है --
आहलादकत्वं माधुर्य श्रृंगारे द्रुतिकारणम्।
करुणे विप्रलम्भेतच्छान्ते चातिशयान्वितम् ।। वसन्तविलास महाकाव्य में श्रृंगार रस के वर्णन- प्रसंगों में कवि ने माधुर्य गुण की सफल योजना की है। सम्भोग श्रृंगार का यह वर्णन उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत है --
विमुक्तसीमाश्रयमाशयं वहस्तदङ्गरागाहितरागविभ्रमः ।
नितम्बिनीनां नक्सङ्गमे नदस्तदा चकम्पेचलमीनलोधनः ।।5 यहाँ अल्पसमास युक्त कोमलकान्त पदावली का प्रयोग होने से माधुर्य गुण का सहज सौन्दर्य दृष्टिगत होता है जो अभीष्ट रस की अभिव्यंजना में सहायक सिद्ध हो रहा है।
विप्रलम्भ-श्रृंगार के प्रसंग में विरह सन्तप्तासद्गति का समाचार सुनकर वस्तुपाल कहता
धर्मो दास्यति याधितां निजसुतां त्वामेष मयं प्रिये, ___यांधामुग्धमना जनः पुनरयं तस्मिन्नपि स्वामिनि । त्वं प्राणानमरीति मामपि विना हत्तु क्षमा त्वामृते, मन्येऽहं तु हन्त चक्रमिथुनादप्यवयोधिपदशाम् ।
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