Book Title: Sramana 1993 04
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 41
________________ वसन्तविलास महाकाव्य का काव्य-सौन्दर्य अन्तरीयमगलन्नितम्बतः कंचुकस्य गृहकाणि तुत्रुटुः ।। स्वस्तिकीकृतभुजाकुचाहे मीलितोलयुगलांशुकाहती। वल्लभेन न न नेतिवादिनी पर्यरम्भि दशताSधरं वधूः ।। निर्दयं रहसि चुम्बति प्रिये मीलितार्द्धनयना नितम्बिनी। प्राप तैमिलिकलोलिताङ्गुलीवाद्यमानतिमिलेव कूजनम्।।1० इस वर्णन में युवक-युवतियों के हृदय में विद्यमान "रति" स्थायीभाव है। आलम्बन स्वयं युवक-युवतियां तथा उद्दीपन रात्रि का एकान्त व सूना वातावरण है। परस्पर चुम्बन, आलिंगन, कंचुक के बन्धन टूटना, कुचग्रह, जघनोन्मीलन, रमणियों का न, न कहना और नेत्रों का अर्नोन्मीलन आदि अनुभाव हैं। हर्ष, औत्सुक्य, ब्रीडा, आवेग आदि संचारीभाव हैं। इन सबसे परिपुष्ट रति स्थायीभाव यहाँ श्रृंगार रस के रूप में अभिव्यक्त हुआ है। विप्रलम्भ श्रृंगार की अभिव्यंजना महाकाव्य के अन्तिम सर्ग में हुई है। आचार्यों ने विप्रलम्भ के पांच प्रकार माना है।1 इनमें वसन्तविलास में वर्णित विप्रलम्भ पूर्व राग या अभिलाष के अन्तर्गत रखा जा सकता है। वस्तुपाल के प्रशंसा-गीत को सुनकर धर्म की पुत्री सद्गति उस पर अनुरक्त हो जाती है। उसके काम-व्यथा का परिचय जरा नामक दूती इस प्रकार प्रकट करती है -- देव ! त्वदिवरहोल्बणा रणरणानविभ्रतीबिभ्यति, चन्द्राधति सखीरपास्य भवनोत्संगे कुरङ्गेक्षणा।। तत्रापि स्मितरत्नभित्तिषु निजास्येन्दुप्रतिच्छन्दकात्, प्रस्ता त्वन्मनसि प्रवेष्टुमबला सा केवलं रोदिति ।।12 सद्गति की विरहवेदना इतनी तीव्र थी कि वह चन्द्रादि सखियों का साथ छोड़कर वस्तुपाल के लिए केवल विलाप ही करती रहती है। दूती से उसकी व्याकुलता व उत्कण्ठा का समाचार पाकर वस्तुपाल भी उसकी प्राप्ति के लिए विह्वल हो जाता है -- श्रीखण्डद्रवसेवनैरलमलं केलिदलोवीजनैः, पुष्पसस्तकैरलं पुटकिनीपत्रांछनैरप्यलम्। शैत्यं सद्गतिसङ्गमामृतमते मे कल्पते नापरै रित्याह ज्वरदाहयुक्परिजनं श्रीवस्तुपालोऽन्चहम्।।13 उक्त वर्णन में वस्तुपाल की सद्गति विषयक "रति" स्थायीभाव है जिसका आलम्बन सद्गति है। यहाँ अनुकूल विभाव, अनुभाव एवं संचारीभावों से पुष्ट होता हुआ "रति" स्थायीभाव विप्रलम्भ श्रृंगार के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है। महाकाव्य में रौद्ररस का भी अत्यन्त सजीव चित्रण हुआ है। शंख के दूत द्वारा यह कहे जाने पर कि शंख के आने से पूर्व तुम भाग जाओ, क्योंकि एक वणिक के भागने पर कोई लोक निन्दा नहीं होगी, वस्तुपाल स्वजातीय गौरव को व्यक्त करते हुए क्रोधपूर्वक कहता है -- Jain Education International For Private & Personal Use Only ३८ www.jainelibrary.org

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