Book Title: Shrutsagar Ank 2003 09 011 Author(s): Manoj Jain, Balaji Ganorkar Publisher: Shree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba View full book textPage 5
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ आचार्य श्री पद्मसागरसूरि महाराज की हस्तप्रतों के संग्रह हेतु लगन अपनी प्राचीन श्रुत एवं कला विरासत के संरक्षण हेतु दिए गए योगदान के फलस्वरूप पूज्यपाद राष्ट्रसन्त आचार्य श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब का उपकार युगों-युगों तक भूलाया नहीं जा सकेगा. पूज्यश्री ने सम्यग् ज्ञान के संरक्षण व संवर्धन के लिए ऐसा अनुपम कार्य किया है, जिसका इस युग में कोई उदाहरण नहीं है. आनेवाली पीढ़ी इस कार्य को एक सर्वश्रेष्ठ कार्य के रूप में सुवर्णाक्षरों से अंकित करेगी. बरसों पहले (सन् १९६५ के आसपास) हिन्दुस्तान पाकिस्तान का युद्ध चल रहा था. उस समय हस्तलिखित ग्रंथों को बेचनेवाले बहुत आया करते थे. आचार्यश्री (उस वक्त मुनि अवस्था में) उन दिनों राजस्थान की पावन धरा पर विचरण कर रहे थे. आपने सोचा कि अपने पूर्वजों की महान सांस्कृतिक धरोहर बाहर चली जाय और विदेशों में बिके यह बात तो अच्छी नहीं है. अपनी विरासत, अपना साहित्य हम क्यों न सँजोकर रखें? इसे भारत से बाहर क्यों जाने दें? बस इसी बात ने पूज्यश्री के मानस पटल को उजागर कर दिया. एक निश्चय किया और जहाँ से मिला, जैसा भी मिला शक्य सारा का सारा पाण्डलिपि साहित्य इकट्ठा करवा के उसे प्रतिष्ठित संस्थान लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर (एल. डी. इंस्टीट्यूट ऑफ इन्डोलोजी) अहमदाबाद में भेजते रहे. इसी प्रकार शिल्प स्थापत्य की चीजें आप खोज-खोज कर वहीं पर भेजते रहे. मुनि श्री पुण्यविजयजी महाराज उन दिनों लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर से जुड़े हुए थे और श्री कस्तूरभाई शेठ इसके संरक्षक थे. उन दोनों ने आपके इस स्तुत्य प्रयास और योगदान की बड़ी सराहना की. आगे भी अधिक से अधिक संग्रहणीय वस्तुओं का सहयोग करने की अपने पत्रों में अपील की थी. इसी दौरान पूज्य आचार्यश्री ने आगम प्रभाकर मुनि श्री पुण्यविजयजी को महोपाध्याय श्री यशोविजयजी की स्वहस्तलिखित पाण्डुलिपियां भेजीं तो मुनि पुण्यविजयजी महाराज के उद्गार थे- 'यदि तुमने मुझे पूज्य उपाध्याय यशोविजयजी के हस्ताक्षरों के दर्शन मात्र ही करवाए होते तो भी मैं अपने आप को धन्यभाग समझता, जब कि तुमने तो मुझे ये हस्तप्रतें भेंट ही भेज दी हैं.' इस प्रकार हजारों की संख्या में बहुमूल्य हस्तप्रत ग्रन्थसमूह का योगदान करके आचार्यश्री ने एल.डी. इन्स्टिट्यूट को समृद्ध कर गौरवान्वित किया तथा भारतीय संस्कृति की मूल्यवान निधि को नष्ट होने से बचाया. सम्यग् ज्ञानयज्ञ के इस भगीरथ कार्य के दौरान स्वनामधन्य शेठ श्री कस्तूरभाई लालभाई और गुजरात के तत्कालीन उप मुख्यमंत्री श्री कान्तिलालजी घीया का आचार्यश्री से नियमित मिलना होता था. दोनों महानुभावों ने पूज्यश्री से निवेदन किया कि महाराजजी आप जो कार्य कर रहे हैं वह संघ के लिए बहुमूल्य है, परंतु अब यह कार्य संपूर्ण श्रीसंघीय व्यवस्थापन के तहत ही किया जाय तो अत्युत्तम रहेगा. इसमें हम संपूर्ण सहयोग देंगे. आचार्यश्री ने इस बात पर बड़ी गंभीरता से गौर किया और उनके सृजनशील विचारों ने आज के श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा तीर्थ जैसे अन्तर्राष्ट्रीय संस्थान को मानस जन्म दिया. श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा तीर्थ की स्थापना आचार्यश्री का पुण्य ही ऐसा जागृत है कि एक ओर संकल्प किया तो दूसरी ओर से सहायक सामग्रियाँ एक-एक करके जुटने लगी. योगनिष्ठ आचार्यदेव श्री बुद्धिसागरसूरि महाराजजी ने अपने ग्रंथों में श्रुत समुद्धार एवं रक्षण की जो भावना जगह-जगह पर व्यक्त की है उसके दिव्य परमाणु एवं महान योगीराज For Private and Personal Use OnlyPage Navigation
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