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श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ कोई भी आत्मा मुक्त नहीं है. लेकिन जीवन-यात्रा में किस प्रकार व्यक्ति विराम करे. वह मार्ग अनन्त उपकारी जिनेश्वर परमात्मा ने अपने प्रवचन में कहा है. यह प्रवचन समुद्र है, बिन्दु मात्र भी ग्रहण कर हम पूर्णता प्राप्त कर सकते हैं.
पर्युषणपर्व मित्र के रूप में आता है. यदि भावपूर्वक उसका स्मरण करें तो अमूल्य भेट देकर जाता है. परमात्मा के प्रवचन का मन में मन्थन किया जाय तो नवनीत निकलता है. हमें मृत्यु का विसर्जन करना चाहिए, इसके लिए रोज परमात्मा से जन्म, जरा व मृत्यु निवारण के लिए प्रार्थना करनी चाहिए. बार-बार जन्म का कारण है - कषाय. पर्वाधिराज पर्युषण पर हमें कषाय से मुक्ति का प्रयास करना चाहिए.
हमें अपने कषायों के कारण ही दुःखमय संसार मिला. यहाँ पर क्षणमात्र का आनन्द दुःख का कारण बन जाता है. आचारांगसूत्र में कहा गया है कि "खणमिक्ख सुक्खा बहुकाल दुक्खा". हमें अपने अच्छे विचारों का भी विसर्जन कर देना चाहिए. क्योंकि आत्मकल्याण का मार्ग कषायों से मुक्ति है. मैत्री, क्षमापना
जैन धर्म का प्राण है. हृदय निर्मल हो तो दुर्गंध नहीं आएगी. अन्तर भाव से यदि क्षमापना नहीं की तो नरक गति निश्चित है. क्षमापना में लघुता और विनय होना ही चाहिए.
संवत्सरी उपवास के पारणा में सबसे पहले दूध पीते हैं. दूध से क्षमा मांगिए कि मैंने अपनी माँ तथा गौमाता का अनगिनत लीटर सफेद दूध पी गया, फिर भी अपना हृदय दूध जैसा उज्ज्वल नहीं बना सका. इसके बाद मिठाई से क्षमापना मांगते हुए कहें कि हम आज तक उसके जैसा माधुर्य प्राप्त नहीं कर सके. घी से क्षमापना मांगते हुए कहें कि उसके जैसा स्नेह स्वभाव आज तक नहीं बना सके. आँखों से प्रभुदर्शन किया नहीं, मात्र ये विकारी ही रहीं. जीभ ने नवकार का उच्चारण नहीं किया बल्कि कड़वे बोल ही बोले. हाथों ने परमात्मभक्ति, शुभकार्य, दान, अर्पणादि नहीं किये मात्र लूटने का काम और अपराध ही किये. इसी प्रकार पैरों से धर्म स्थानों की यात्रा नहीं की बल्कि इनका दुरुपयोग ही किया. इन सबसे क्षमापना कर के ही दूसरों से क्षमापना करने के लिए घर से बाहर निकलें. देखिये कितना सुन्दर आत्म-परिवर्तन होता है.
कषाय आत्मा से जन्म लेता है और आत्मा को ही नुकसान पहुंचाता है. इसलिए कषायों से बचें और मुक्ति-मार्ग पर आगे बढ़ें.
* हृदयमा दयालुता अने जीवनमा उदारताथी आत्माना वैभवनो विकास थाय छे. करुणाथी जीवन पवित्र बनशे अने प्राणीमात्र प्रत्ये मैत्री अने प्रेमभाव
उत्पन्न थशे. * मननी पवित्रताना कारणे महान पुरुषना शब्द पण मंत्र बने छे. * परमात्मानी उपासना जीवननी वासनाने घटाडे छे. * अहिंसा, संयम अने तपनो त्रिवेणीसंगम ए ज धर्म छे.
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