Book Title: Shrutsagar Ank 2003 09 011
Author(s): Manoj Jain, Balaji Ganorkar
Publisher: Shree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रुत सागर अंक : ११, भाद्रपद वि. सं. २०५९, : आशीर्वाद व प्रेरणा : राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी : संपादक : मनोज जैन डॉ. बालाजी गणोरकर जैन आराधना grate अमृत तु विद्या सितम्बर २००३ केन्द्र Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only प्रकाशक श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा तीर्थ, गांधीनगर web site : www.kobatirth.org वीर सं. २५२९ ० वि.सं. २०५९० ई. स. २००३ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ० तीर्थ यात्राथी संसार सागर तराय. ० पैसाने पाप माने ते जैन. ० राग अने द्वेष एज आत्माना साचा शत्रुओ छे. ० अरिहन्तना शासनने पामेला सम्यकदृष्टिने दुनियानी कोईपण वस्तु अनीतिने पन्थे लई जवा समर्थ नथी. ० पांचे इन्द्रियोने जीते तेज साचो शूरवीर . .. .. . .. ... . .... * आर्थिक सहयोगी * श्रेष्ठीवर्य श्री सोनाचन्दजी बैद परिवार .. हावरा निवासी ....... ... . ...... For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र - कोबा तीर्थ का मुखपत्र श्रुत सागर web site : www.kobatirth.org आशीर्वाद : राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी अंक : ११, भाद्रपद वि. सं. २०५९, सितम्बर २००३ : संपादक: मनोज जैन डॉ. बालाजी गणोरकर 3 ज्ञानतीर्थ की उपमा प्राप्त विश्व का सबसे विशाल व सुसज्ज जैन ज्ञानभण्डार आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर में संगृहीत हस्तप्रतों के विशालतम संग्रह का दुनिया में सर्वप्रथम बार अनूठी पद्धति से तैयार किये गए कैलास श्रुतसागर-जैन हस्तलिखित ग्रंथसूची के प्रथम खंड का विमोचन आधुनिक युग के इस विशिष्ट एवं विलक्षण जैन ज्ञानतीर्थ में दो लाख से ज्यादा प्राचीन हस्तप्रतें तथा ३००० से ज्यादा ताड़पत्रीय ग्रंथ सुरक्षित हैं. छोटे-छोटे गाँवों में अस्त-व्यस्त पड़े, नष्टप्राय स्थिति को प्राप्त बिखरे हुए ज्ञान-सागर को विषम कलिकाल में महान श्रुतोद्धारक जैनाचार्य प.पू. श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. ने अपने अब तक के एक लाख किलोमीटर से ज्यादा लम्बे विहार के दौरान एकत्रित करवा कर भारत में ही सुरक्षित एवं संरक्षित करने का अनुपम प्रयास किया है, इस दिशा में समुचित प्रयास न किया जाता तो इनके नष्ट होने या विदेशों में स्थानान्तरित होकर विलुप्त हो जाता. आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज की पावन प्रेरणा व शुभाशीर्वाद से समयबद्ध कार्यक्रम के तहत संस्था में सुरक्षित अपनी प्राचीन धरोहर रूप आगम, न्याय, दर्शन, योग, साहित्य, व्याकरण, ज्योतिष, आयुर्वेद, इतिहास-पुराण, कला एवं स्थापत्य आदि विषयों से सम्बन्धित मुख्यतः जैन धर्म एवं साथ ही बौद्ध व अन्य साहित्य से संबद्ध हस्तप्रतों के रूप में रहे हुए शास्त्र ग्रंथों का अपने आप में अनोखे ढंग के बहु उपयोगी कम्प्यूटर आधारित विस्तृत सूचीकरण (केटलॉगिंग) का कार्य विगत एक दशक से महत्तम गति से चल रहा है. इस डाटाबेस को करीब ५० खंडों में केटलॉग के रूप में प्रकाशित करने की योजना है. इस बहुजनोपयोगी महत्वाकांक्षी योजना के तहत आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर दशाब्दी महोत्सव के अवसर पर केटलॉग के प्रथम भाग को प्रकाशित किया जा रहा है. अन्य भागों को भी समयानुकूल क्रमबद्ध कार्यक्रम के तहत प्रकाशित किया जाएगा. प्रकाशित हो रहे इस केटलॉग में आज-कल की सामान्य पद्धति से हटकर हस्तलिखित ग्रंथों की विशेष सूचनाएँ दी गई (Scribe), लिखवाने तथा प्रेरणा हैं जैसे हस्तप्रत क्रमांक, आचार्यश्री कैलाससागरसरि ज्ञानमंदिर | करने वाले महानुभावों के नाम, दशवर्षीय गतिविधियों का विवरण हस्तप्रत नाम, साईज, पंक्ति, | प्रति से संबंधित दशा, पृष्ठ - १६ पर अक्षर, लेखन वर्ष, लहिया | विशेषतादि कोडिंग के साथ ही - For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (332 श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ प्रति में विद्यमान एकाधिक कृति तथा कृति परिवारों से संबंधित विस्तृत सूचनाएँ जैसे कृति नाम, कर्ता, कर्ता की गुरु-परम्परा एवं गच्छ, कर्ता का हयाती वर्ष, भाषा, कृति प्रकार, परिमाण, अध्याय, आदिवाक्य. अन्तिमवाक्य, रचना स्थल, रचना वर्ष, रचना प्रशस्ति आदि विशेष जानकारियाँ रोचक पद्धति से प्रस्तुत की गईं हैं. निस्संदेह इस प्रकाशन से श्रमणवर्ग, विद्वान, संशोधक तथा ज्ञानाराधकों को सबसे ज्यादा लाभ होने वाला है. यह मील का पहला पत्थर है. विश्वास किया जाता है कि इस कार्य के संयोजन से ज्ञान के संप्रसारण क्षेत्र में और भी नये मानक स्थापित किये जा सकेंगे. ज्ञातव्य हो कि हस्तलिखित शास्त्रग्रंथ जब यहाँ पर प्राप्त हुए थे, तब इनमें से ढेर सारे शास्त्र अत्यंत अस्तव्यस्त, जीर्ण व नष्टप्राय हालत में थे. अन्य कार्यों के साथ ही इन शास्त्रों को व्यवस्थित कर इन्हें सुरक्षित करने का श्रमसाध्य कार्य भी पूरी लगन के साथ चल रहा है. इस कार्य के साथ ही कम्प्यूटर में सभी हस्तलिखित तथा मुद्रित वाचन सामग्री की पूर्व प्रविष्ट सूचनाओं की शुद्धता देखने, नियमित नवीन प्रकार की सूचनाओं को प्रविष्ट करने की सुविधा उपलब्ध किये जाने के कारण पूर्व प्रविष्ट सूचनाओं को अद्यतन करने, सूक्ष्मातिसूक्ष्म उपलब्ध जानकारी के आधार पर विस्तृत विवरण प्राप्त हो सके, इस हेतु नवीन संशोधन एवं संपादन का कार्य भी संस्था के ही विशेषज्ञ पंडितों की एक टीम द्वारा किया जा रहा है. हमें अवगत कराते हुए आनंद हो रहा है कि नियमित तौर पर और अधिक हस्तप्रतों तथा मुद्रित प्रकाशनों का निरंतर आगमन जारी है. लगभग सत्रहवीं शताब्दी से अब तक प्रकाशित जैन, वैदिक, बौद्ध तथा संलग्न ज्ञान शाखाओं के महत्तम प्रकाशनों की लगभग १,१०,००० प्रतियाँ प्राप्त की जा चुकी हैं. श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा तीर्थ आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर व इसके प्रणेता आचार्य श्रीमत् पद्मसागरसूरि महाराज द्वारा अनुपम श्रुतोद्धार श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र- कोबा तीर्थ अपनी प्राचीन श्रुतनिधि के संरक्षण व संवर्धन के लिए आज विश्वभर में सुप्रसिद्ध है. आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर में संगृहीत प्राचीन जैन व जैनेतर हस्तप्रतों का विशाल ज्ञानभंडार भारतभर में अपने ढंग का एक अद्वितीय संग्रह है. ग्रंथालय सूचना के क्षेत्र में अपने अनूठे तरीके से कम्प्यूटर आधारित विशेष आधुनिक सूचना पद्धति के द्वारा यह ज्ञाननिधि ज्ञान-पिपासु साधक वर्ग, श्रमण समुदाय, विद्वान समूह व आम जनता के लिए एक सुन्दर उपलब्धि स्रोत बनी है. यहाँ पर न केवल एकाध प्रवृत्ति का स्रोत है, वरन् सम्यग् ज्ञान-दर्शन-चारित्र की सामग्रियों का भी त्रिवेणी संगम हुआ है जिन्होंने भी इस ज्ञानतीर्थ का लाभ लिया है या स्पर्शना की है ; वे चाहे सामान्य व्यक्ति हो या विद्वान, गृहस्थ हो या साधु, श्रमण हो या संन्यासी सभी ने अपनी जिज्ञासा परितृप्त कर यहाँ के लिए मुक्त कंठ से प्रशंसा भरे आशीर्वचन प्रगट किए हैं, कर रहे हैं. इस क्षेत्र में जैन समाज व प्रमुख भारतवासियों को बड़े गौरव का अनुभव हो रहा है. For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ आचार्य श्री पद्मसागरसूरि महाराज की हस्तप्रतों के संग्रह हेतु लगन अपनी प्राचीन श्रुत एवं कला विरासत के संरक्षण हेतु दिए गए योगदान के फलस्वरूप पूज्यपाद राष्ट्रसन्त आचार्य श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब का उपकार युगों-युगों तक भूलाया नहीं जा सकेगा. पूज्यश्री ने सम्यग् ज्ञान के संरक्षण व संवर्धन के लिए ऐसा अनुपम कार्य किया है, जिसका इस युग में कोई उदाहरण नहीं है. आनेवाली पीढ़ी इस कार्य को एक सर्वश्रेष्ठ कार्य के रूप में सुवर्णाक्षरों से अंकित करेगी. बरसों पहले (सन् १९६५ के आसपास) हिन्दुस्तान पाकिस्तान का युद्ध चल रहा था. उस समय हस्तलिखित ग्रंथों को बेचनेवाले बहुत आया करते थे. आचार्यश्री (उस वक्त मुनि अवस्था में) उन दिनों राजस्थान की पावन धरा पर विचरण कर रहे थे. आपने सोचा कि अपने पूर्वजों की महान सांस्कृतिक धरोहर बाहर चली जाय और विदेशों में बिके यह बात तो अच्छी नहीं है. अपनी विरासत, अपना साहित्य हम क्यों न सँजोकर रखें? इसे भारत से बाहर क्यों जाने दें? बस इसी बात ने पूज्यश्री के मानस पटल को उजागर कर दिया. एक निश्चय किया और जहाँ से मिला, जैसा भी मिला शक्य सारा का सारा पाण्डलिपि साहित्य इकट्ठा करवा के उसे प्रतिष्ठित संस्थान लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर (एल. डी. इंस्टीट्यूट ऑफ इन्डोलोजी) अहमदाबाद में भेजते रहे. इसी प्रकार शिल्प स्थापत्य की चीजें आप खोज-खोज कर वहीं पर भेजते रहे. मुनि श्री पुण्यविजयजी महाराज उन दिनों लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर से जुड़े हुए थे और श्री कस्तूरभाई शेठ इसके संरक्षक थे. उन दोनों ने आपके इस स्तुत्य प्रयास और योगदान की बड़ी सराहना की. आगे भी अधिक से अधिक संग्रहणीय वस्तुओं का सहयोग करने की अपने पत्रों में अपील की थी. इसी दौरान पूज्य आचार्यश्री ने आगम प्रभाकर मुनि श्री पुण्यविजयजी को महोपाध्याय श्री यशोविजयजी की स्वहस्तलिखित पाण्डुलिपियां भेजीं तो मुनि पुण्यविजयजी महाराज के उद्गार थे- 'यदि तुमने मुझे पूज्य उपाध्याय यशोविजयजी के हस्ताक्षरों के दर्शन मात्र ही करवाए होते तो भी मैं अपने आप को धन्यभाग समझता, जब कि तुमने तो मुझे ये हस्तप्रतें भेंट ही भेज दी हैं.' इस प्रकार हजारों की संख्या में बहुमूल्य हस्तप्रत ग्रन्थसमूह का योगदान करके आचार्यश्री ने एल.डी. इन्स्टिट्यूट को समृद्ध कर गौरवान्वित किया तथा भारतीय संस्कृति की मूल्यवान निधि को नष्ट होने से बचाया. सम्यग् ज्ञानयज्ञ के इस भगीरथ कार्य के दौरान स्वनामधन्य शेठ श्री कस्तूरभाई लालभाई और गुजरात के तत्कालीन उप मुख्यमंत्री श्री कान्तिलालजी घीया का आचार्यश्री से नियमित मिलना होता था. दोनों महानुभावों ने पूज्यश्री से निवेदन किया कि महाराजजी आप जो कार्य कर रहे हैं वह संघ के लिए बहुमूल्य है, परंतु अब यह कार्य संपूर्ण श्रीसंघीय व्यवस्थापन के तहत ही किया जाय तो अत्युत्तम रहेगा. इसमें हम संपूर्ण सहयोग देंगे. आचार्यश्री ने इस बात पर बड़ी गंभीरता से गौर किया और उनके सृजनशील विचारों ने आज के श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा तीर्थ जैसे अन्तर्राष्ट्रीय संस्थान को मानस जन्म दिया. श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा तीर्थ की स्थापना आचार्यश्री का पुण्य ही ऐसा जागृत है कि एक ओर संकल्प किया तो दूसरी ओर से सहायक सामग्रियाँ एक-एक करके जुटने लगी. योगनिष्ठ आचार्यदेव श्री बुद्धिसागरसूरि महाराजजी ने अपने ग्रंथों में श्रुत समुद्धार एवं रक्षण की जो भावना जगह-जगह पर व्यक्त की है उसके दिव्य परमाणु एवं महान योगीराज For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ दादा गुरुदेव गच्छाधिपति आचार्य श्री कैलाससागरसूरि महाराज की प्रेरणा और आशीर्वाद तो मानो पुरूषार्थ और सिद्धि की तरह साथ ही थे. गच्छाधिपति आचार्यदेव की सत्प्रेरणा से कोबा चौराहे के आसपास की मौके की जमीन इस पुण्य कार्य हेतु स्वर्गस्थ शेठ रसिकलाल अचरतलाल शाह द्वारा सादर प्रस्तुत की गई. दादागुरुदेवश्री चाहते थे कि एक ऐसा उत्तम स्थान बने जहाँ पर साधु भगवन्तों के अध्ययन की समुचित व्यवस्था हो. शास्त्र अध्ययन हेतु कोई भी सामग्री एक ही जगह से प्राप्त हो और साथ-साथ चारित्र व दर्शन की परिशुद्धि का पवित्र संगम हो. महापुरुषों की इच्छा ही कुदरत की इच्छा बन जाती है. ज्ञानभंडार के निर्माण हेतु शेठ श्री तेजराजजी जुगराजजी सालेचा का आर्थिक सहयोग भी प्राप्त हुआ. सन् १९८० के २६. दिसम्बर के शुभ दिन श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा तीर्थ की विधिवत स्थापना हुई. कलिकाल में मोक्षमार्ग के दो आधार स्तंभ है. प्रथम विश्व को आध्यात्मिक प्रकाश देनेवाले जिनबिम्ब और द्वितीय श्रुतज्ञान की सम्यग् उपासना. इन दोनों का समन्वय है- श्रीमहावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा. जिनशासन की प्रतिनिधि संस्थाओं में यह केन्द्र अग्रस्थान प्राप्त कर चुका है. यहाँ धर्म एवं आराधना की एकाध नहीं अनेकविध प्रवृत्तियों का महासंगम हुआ है. जैन आराधना यह तीर्थभूमि कला स्थापत्ययुक्त भव्य जिनालय, आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, भवन ( उपाश्रय), आचार्य श्री कैलाससागरसूरि स्मारक मन्दिर (गुरुमन्दिर), मुमुक्षु कुटीर आदि विविध विभागों के साथ विशाल पैमाने पर विकसित होकर जिनशासन की प्रभावना करने में समर्थ सिद्ध हुई है. आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का प्रारम्भ दादा गुरुदेव गच्छाधिपति आचार्य श्री कैलाससागरसूरि महाराज को समर्पित इस प्रकल्प का प्रारम्भ वैशाख सुदि ६, वि.सं. २०४९ को हुआ था. पूज्य आचार्यश्री ने यहाँ चल रहे ज्ञानयज्ञ के लिए अभी तक लगभग ८०,००० कि.मी. से भी अधिक पैदल विहार के दौरान जैन बस्ती से खाली हो चुके गाँवों में जाकर उपाश्रय आदि में बरसों से बंद पड़े कबाटों को जब बड़ी मुश्किली से खुलवाया तो अनेक जगहों पर बड़े आघातजनक अनुभव हुए. पूरे के पूरे ग्रंथ भरे कबाट दीमक भक्षित मिट्टी के ढेर के रूप में पाए गए तो कई जगहों पर बरसाती पानी कबाटों में प्रविष्ट हो जाने की वजह से भीग जाने के कारण ग्रंथ चिपक कर गट्टे की तरह हो गए एवं बुरी तरह फफूँद ग्रस्त व कीटक भक्षित पाए गए. कई बार लोहे के पीप आदि में हँस कर जैसे-तैसे भर दी गई धूल से सनी विशीर्ण हालत में प्रतें प्राप्त हुई हैं. कुछ स्थानों पर तो संघ वालों को पता तक नहीं था कि उनके पास विरासत रूप ग्रंथ भी है. ये टांड (मचान, माळिए) पर चमगादडों के बीच बरसों से पड़े थे और वहाँ से मिले. कई जगहों पर सुरक्षित अवस्था में भी भंडार मिले. इन चिपके ग्रंथों के पत्रों को अलग करना स्वयं में एक दुरूह कार्य फफूँद व कीटकग्रस्त जीर्ण हो चुकी प्रतों को साफ कर पुनः मजबूत करना भी अत्यंत श्रमसाध्य कार्य है. इन्हें ठीक करते समय उड़नेवाले विषाक्त कणों से आँखें लाल हो जाती थी एवं नाक पर कपड़ा बाँधकर रखने पर भी जुकाम हो जाता था. इस कार्य की एक ही बैठक के बाद कपड़े पहन कर रखने योग्य नहीं रहते थे. नीचे गिरा कचरा भी इतना होता था कि एक बार में तो साफ भी नहीं होता था. रद्दी जैसे उन ढेरों में से भी कई बार बड़े ही काम के ग्रंथ मिले हैं. आज भी इस तरह से काम चलता ही रहता हैं. ग्रंथों की दुर्दशा की वजह है- भारत के लिए प्रतिकूल एवं कुदरती सिद्धान्तों से विरूद्ध ऐसी थोपी हुई For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ आर्थिक सामाजिक व्यवस्थाएँ अपना लेने की वजह से गाँव, कस्बों के टूटने से हुआ शहरीकरण एवं अपने हृदय में रहे सांस्कृतिक गौरव को योजना पूर्वक तोड़नेवाली शिक्षा प्रणाली को अपनाने से हमारे भीतर अपनी संस्कृति व विरासत की ओर खड़ी हुई उपेक्षा. फलस्वरूप ऐसे भी अनेक लोग मिले जिन्हें स्वयं श्रुतोद्धार का कार्य करना या इसमें सहकार देना तो दूर रहा, कार्य में रोड़े डालना मात्र अपना कर्तव्य लगता है. ऐसों के बीच भी हर विघ्नों को लांघ कर अडिग संकल्प के धनी आचार्यश्री निरंतर यह कार्य करते ही रहे हैं. - पूज्यश्री इतना ही कर के रूके नहीं अपितु भारतीय शिल्प कला-स्थापत्य और खासकर जैन शिल्प स्थापत्य के उत्तम नमूने संगृहीत कर इसी संस्था में एक सुंदर संग्रहालय भी स्थापित करवाया है, जो सम्राट संप्रति संग्रहालय के नाम से विख्यात है. आचार्यश्री की कड़ी मेहनत तथा अटूट लगन से आज इस ग्रन्थागार में हस्तप्रत, ताड़पत्र व पुस्तकों का करीबन तीन लाख से ऊपर विशाल संग्रह, अनेक स्वर्णलिखित ग्रंथ, बेशकीमती सामग्री, सचित्र प्रतें, सैकड़ों मूर्तियाँ, शिल्प-स्थापत्य इत्यादि बहुमूल्य पुरातन सामग्री व सुंदर शिल्पकला के नमूने जैन व भारतीय संस्कृति की अमूल्य निधि व धरोहर के रूप में विद्यमान है. इस संग्रह के सदुपयोग का लाभ चतुर्विध संघ और देशी-विदेशी विद्वानों को निरंतर मिल रहा है. इतना ही नहीं यहाँ पर विकसित आधुनिक सुविधाओं के कारण संशोधन के क्षेत्र में कार्य कर रहे विद्वानों के लिए यह ज्ञानमंदिर आशीर्वाद रूप सिद्ध हुआ है. सच कहा जाय तो सैकड़ों वर्षों के बाद इतने विशाल जैन श्रुत साहित्य की सुरक्षा करनेवाले जैनाचार्यों में आचार्यश्री का सम्मानित नाम सदियों तक अग्र पंक्तियों में अंकित रहेगा. परम पूज्य आचार्यदेव श्री पद्मसागरसरि महाराजश्री ने अनेक छोटे-बड़े मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया है. अनेक स्थानों पर जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवाई हैं परंतु श्रुतोद्धार का जो उन्होंने प्रयास किया है उसे इतिहास कभी भूला नहीं सकेगा. कैलास श्रुतसागर सूची प्रकाशन की रूपरेखा इस सूचीपत्र में मुख्य तीन विभाग किए गए हैं. १ हस्तप्रत माहिती. २ कृति माहिती. ३ विद्वान व्यक्ति माहिती. यद्यपि कम्प्यूटर में सभी तरह की सूचनाएँ विस्तृतरूप से भरी गई हैं एवं आगे भी उनमें परिष्कार, विस्तार जारी रखने का आयोजन है. प्रत्येक विभाग में मात्र तत्-तत् विभाग की सूचनाएँ शक्य विस्तार से देकर अन्य विभागों की सूचनाओं को आवश्यक हद तक संक्षेप में दिया जाएगा. इन संक्षिप्त सूचनाओं की विस्तृत माहिती के लिए संबद्ध विभाग के सूचीपत्र की अपेक्षा रहेगी. उपयोगिता एवं अनुकूलता के अनुसार उपरोक्त तीनों विभागों के सूचीपत्रों के प्रकाशन का आयोजन है. १. हस्तप्रत विभाग इस विभाग में महत्तम उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए कृति की प्रधानता के अनुसार निम्न वर्ग किए गए हैं. ये सूचियाँ यथोपलब्ध प्रत क्रमांक के अनुक्रम से होगी. १.१ जैन कृति वाली प्रतें. १.२ धर्मेतर साहित्यिक आदि कृति वाली प्रतें. For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ १.३ वैदिक कृति वाली प्रते. १.४ शेष धर्मों की कृति वाली प्रतें. इनमें प्रथम हस्तप्रत आधारित इस सूची में सूचनाएँ दो स्तरों पर दी गई हैं. प्रत माहिती स्तर : इस स्तर पर प्रत संबंधी उपलब्ध सूचनाएँ उपयोगिता एवं सूची पुस्तक के कद की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए विविध अनुच्छेदों में शक्य महत्तम विस्तार से दी गई हैं. कृति माहिती स्तर : इस द्वितीय स्तर पर प्रत में रही कृतियों का निर्णय करने हेतु आवश्यक लघुतम सूचना ही दी गई है. पुस्तक के कद को मर्यादित रखने के लिए भी यह आवश्यक था. कृति की शक्यतम विस्तृत माहिती तो द्वितीय कृति विभाग वाली सूची में दिए जाने का आयोजन है. १.५ हस्तप्रत विभाग के परिशिष्ट : इस वर्ग में हस्तप्रत विभागीय विविध परिशिष्टों का समावेश किया जाएगा. १.५.१ प्रत, पेटांक व कृति लेखनगत विशिष्ट प्रतिलेखन पष्पिकाओं का संग्रह. (देखें - प्रतिलेखन पुष्पिका परिचय) १.५.२ प्रतिलेखन वर्ष से प्रत क्रमांक : प्रत में उपलब्ध प्रतिलेखन वर्ष को वीरसंवत में बदलकर वर्ष के अनुक्रम से प्रत की माहिती इस सूची में दी जाएगी. विक्रम, शक, ईस्वी आदि अन्य वर्ष प्राप्त करने के लिए जरूरी वर्ष घटाने होंगे. प्रचलित संवतों में वीर संवत सब से प्राचीन होने से इसके आधार पर सभी तरह की सूचनाएँ एक ही अनुक्रम में आसानी से दी जा सकेगी. १.५.३ प्रतिलेखन स्थल से प्रत क्रमांक : हस्तप्रत जिस स्थल (नगर-गाँव) में लिखी गई हो वह नाम उपनाम, राज्य आदि अन्य आनुषंगिक उपलब्ध सूचनाओं के साथ यहाँ अकारादि क्रम से आएगा व प्रत्येक नाम के साथ उस नगर में लिखी गई प्रतों के क्रमांक व उपलब्ध प्रतिलेखन संवत - इतनी सूचनाएँ प्रतिलेखन संवत के अनुक्रम से आएगी. इससे विद्वानों को ऐतिहासिक अध्ययन हेतु सुगमता रहेगी. १.५.४ विद्वान/व्यक्ति (प्रतिलेखक आदि) नाम से प्रत माहिती : इस सूची में प्रत, पेटांक व कृति स्तर पर रही प्रतिलेखन पुष्पिकाओं में उल्लिखित हस्तप्रत को लिखने, लिखवानेवाले, पठनार्थ आदि विद्वान/व्यक्तियों का नाम अकारादि क्रम से आएगा. यह सची द्विस्तरीय होगी. (१) विद्वान/व्यक्ति माहिती स्तर (२) प्रत माहिती स्तर. विद्वान/व्यक्ति माहिती स्तर पर विद्वान/व्यक्ति संबंधी आवश्यक लघुत्तम सूचना होगी एवं प्रत माहिती स्तर पर प्रतिलेखन वर्षानुक्रम से विद्वान व्यक्ति की प्रतिलेखक पठनार्थ आदि भूमिका, प्रतक्रमांक, (पेटांक, कृतिक्रमांक]. प्रतिलेखनवर्ष - ये सूचनाएँ आएगी. इससे विद्वान/ व्यक्ति के जीवन-कवन का अध्ययन करने में सुगमता रहेगी. २. कृति विभाग इस विभाग के तहत कृति को केन्द्र में रखकर उससे संबद्ध अनेकविध सूचनाएँ निम्नोक्त प्रकार से आएगी. २.१ कृति पर से प्रत माहिती : इस सूची में 'कृति परिवार वृक्ष' शैली से कृति की शक्य महत्तम विस्तार For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ पूर्वक सूचनाएँ होंगी. मूल (सर्वोच्च) कृतियाँ परस्पर अकारादि क्रम से होगी व तत्-तत् मूल कृति के नीचे उस पर से लिखी गई कृतियाँ, प्र-कृतियाँ, आदि शाखा/प्रशाखा की शैली से आएगी. इस वर्ग में उपयोगिता एवं सुविधा को ध्यान में रखते हुए समग्र साहित्य जैन, धर्मेतर, वैदिक व अन्य धर्म (२.१.१-२.१.४) इन चार उपवर्गों में विभक्त होगा एवं प्रत्येक वर्ग पुनः भाषा वर्गानुसार निम्नोक्त चार-चार प्रकारों में विभक्त होगा. २.१.१.१ जैन संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश - स्थिर कृतियाँ. २.१.१.२ जैन मारूगुर्जर, गुजराती, राजस्थानी इत्यादि देशी भाषाओं की - स्थिर कृतियाँ. २.१.१.३ जैन संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश - फुटकर कृतियाँ. २.१.१.४ जैन मारूगुर्जर आदि देशी भाषा - फुटकर कृतियाँ. २.१.२.१ से ४ धर्मेतर शेष - उपरोक्त चारों प्रकार की कृतियाँ. २.१.३.१ से ४ वैदिक - उपरोक्त चारों प्रकार की कृतियाँ. २.१.४.१ से ४ अन्य धर्म - उपरोक्त चारों प्रकार की कृतियाँ. यहाँ पर 'स्थिर' कृति से जिनकी विधिवत स्वतंत्र रचना हुई हो अथवा किसी कृति का अंश ही होने पर भी जिसकी स्थापना एक स्वतंत्र कृति के रूप में प्रस्थापित हो - यह अर्थ लिया जाएगा. यथा - आगम, प्रकरण, महाकाव्य, स्तवन, स्तुति, टीका, बालावबोध आदि. व्यक्तिगत छुटपुट उद्धरण संग्रह, बोल, थोकडा चर्चा आदि को यथायोग्य 'फुटकर' कृतियों में लिया गया है. ___ इस सूची में दो स्तर पर यथोपलब्ध संपूर्ण कृति माहिती एवं लघुत्तम आवश्यक मात्रा में संबद्ध प्रतों की माहिती आएगी. प्रत माहिती स्तर पर प्रत/पेटांकगत कृति के अध्याय, गाथादि एवं ग्रंथान के प्रतगत वैविध्य को एवं प्रतगत आदि/अंतिमवाक्य के वैविध्य को भी निर्दिष्ट किया जाएगा ताकि संबद्ध प्रतों के तुलनात्मक अध्ययन में सुगमता रहे. २.२ आदिवाक्य से कृति माहिती: इस सूची में अकारादिक्रम से आदिवाक्य एवं उनसे जुड़ी कृति की माहिती होगी. आदिवाक्य एवं अंतिमवाक्य की विशेषता है कि हर कृति के लिए ये सर्वथा भिन्न होते हैं. किन्हीं भी दो कृतियों का संपूर्ण पाठ पूर्णतः समान-एक जैसा नहीं हो सकता. इनकी इसी विशेषता के बल से हम किसी भी कृति को निर्णित रूप से ढूँढ सकते हैं. अन्य तरीकों से इतना निर्णित ढंग से कृति को ढूँढ़ना कई बार सहज संभव नहीं हो पाता. यथा पार्श्वनाथ भगवान के अज्ञात कर्तृक 'मा.गु.' भाषा में पांच गाथा के अनेक स्तवन मिल जाएँगे. ऐसे में मात्र आदि-अंतिमवाक्य ही प्रत्येक स्तवन को एक दूसरे से भिन्नं सिद्ध कर पाएँगे. फिर भी आदि वाक्यों में कुछ एक व्यावहारिक समस्याएँ देखी गई हैं. आगमिक आदि कई कृतियों के आदि/अंतिमवाक्य काफी दूर तक एक समान होते हैं. अतः प्रारंभिक स्तर पर ही भिन्नता लाने के लिए इन्हें यहाँ अनुभवों के आधार पर बनाए गए नियमों के अनुसार शून्यादि निशानी के प्रक्षेप पूर्वक योग्य संक्षिप्त कर के लिया जाता है. २.३ अंतिमवाक्य से कृति माहिती : यह सूची भी आदिवाक्यवाली सूची की तरह होगी परंतु इसमें निम्नोक्त भिन्नता होगी. इसमें 'अंतिमवाक्य' अपने अंतिम अक्षर पूर्व के अक्षरों की ओर विलोम (उल्टे) जाते हुए अक्षरों के अकारादि क्रम से अवस्थित होंगे. सेटिंग में भी अंतिमवाक्य को दाईं ओर सटाकर right align कर के रखा जाएगा ताकि अनेक अंतिम वाक्यों के अंत के अक्षर एक ही नजर में आ सकें. यहाँ पर अपेक्षित अंतिमवाक्य के ढूँढ़ने हेतु उन्हें दाएँ से बाएँ (right to left) For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ पढ़ना होगा. २.४ विद्वान नाम से कृति माहिती : इस सूची में विद्वान व उनसे संबद्ध कृतियों की लघुतम आवश्यक सूचनाएँ होंगी. यह सूची द्विस्तरीय होगी. इसमें विद्वान नाम अकारादि क्रम से होंगे और प्रत्येक विद्वान नाम के नीचे उनकी रची हुई कृतियाँ अकारादिक्रम से दी जाएगी. २.५ रचना वर्ष से कृति माहिती : कृति के रचना वर्ष को वीर संवत में बदलकर उस वर्ष के अनुक्रम से कृति की माहिती इस सूची में दी जाएगी. विक्रम, शक, ईस्वी आदि अन्य वर्ष प्राप्त करने के लिए निर्धारित जरूरी वर्ष घटाने होंगे. २.६ रचना स्थल से कृति माहिती : कृति की रचना जिस स्थल (गाँव, नगर) में हुई हो उनके नाम उपनाम, उपलब्ध राज्य आदि सूचना के साथ अकारादि क्रम से दिए जाएँगे. प्रत्येक नाम के नीचे उसके साथ जुड़ी हुई कृतियों की संक्षिप्त माहिती भी दी जाएगी. एक ही स्थल के कालभेद व बोलीभेद से अनेक स्वरूपों में नाम मिलते हैं. इन सभी नामों से स्थलों की खोज हो सकेगी. २.७ भाषा पर से कृति माहिती : प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश आदि प्रत्येक भाषा के आधार पर कृतियों की सूची प्रकाशित करने की भी योजना है. इसमें सर्वप्रथम भाषाओं का शीर्षक आएगा और उसके नीचे अकारादि क्रम से कृति की आवश्यक सूचनाएँ दी जाएँगी. २.८ विषय विभाग पर से कृति माहिती : इसमें कृतिगत निर्धारित विषय विभागों के अनुसार कृति की सूची होगी. ३. विद्वान/व्यक्ति व गच्छ माहिती विभाग इस विभाग में कृति व हस्तप्रतों से संबंधित विद्वान/व्यक्तियों एवं गच्छों की विविध प्रकार से सूचनाएँ देने का आयोजन है. ३.१ विद्वान/व्यक्ति माहिती : यह वर्ग विद्वान/व्यक्तियों से संबद्ध विस्तृत माहिती का होगा व विद्वान नाम/ उपनाम के अकारादि क्रम से यह सूची होगी. यह सूची अनेक उपवर्गों में विभक्त होगी. ३.१.१ जैन साधुओं की सूची : आचार्य, उपाध्याय, पंन्यास, पंडित, गणिवर्य, मुनि आदि की विस्तृत माहिती से युक्त सूची. ३.१.२ जैन साध्वियों की सूची : प्रवर्तिनी, साध्वी, आर्या आदि की विस्तृत माहिती से युक्त सूची. ३.१.३ जैन श्रावकों की सूची : जैन श्रावकों की विस्तृत माहिती से युक्त सूची. ३.१.४ जैन श्राविकाओं की सूची : जैन श्राविकाओं की विस्तृत माहिती से युक्त सूची. ३.१.५ शेष विद्वान/व्यक्तियों की सूची : राजा, मंत्री एवं अन्य व्यक्तियों की सूची. ३.२ विद्वान शिष्य/संतति माहिती : नाम अकारादिक्रम वाली इस सूची में विद्वान के शिष्य/संतति की सूची होगी. ३.३ विद्वान शिष्य परम्परा वंशवृक्ष : इस सूची में हस्तप्रतों, कृतियों में उपलब्ध गुरू-शिष्यादि परंपराओं को संकलित कर विविध वंशवृक्षों के रूप में प्रस्तुत की जाएगी. ३.४ विद्वान-गच्छ माहिती वर्ग : गच्छ को केन्द्र में रखते हुए निम्नोक्त वर्गों की सूचियाँ बनेंगी. ३.४.१ गच्छ माहिती : इसमें प्रतों की प्रतिलेखन पुष्पिकाओं एवं कृतियों की रचना प्रशस्तियों में उपलब्ध सभी गच्छों की शक्य विस्तृत माहिती गच्छनाम, उपनामों के अकारादि क्रम से होगी. For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ ३.४.२ गच्छ शाखा-प्रशाखा वंशवृक्ष : इसमें मुख्य गच्छनाम के अकारादि क्रम से उनमें से निकली शाखा-प्रशाखाओं की सूचनाएँ वंशवृक्ष शैली में होंगी. ३.४.३ गच्छानुसार विद्वान माहिती : इसमें गच्छ माहिती व विद्वान माहिती संक्षेप में होगी व दोनों ___ ही अपने-अपने स्तर पर अकारादिक्रम युक्त होंगी. सूची प्रकाशन की यह एक संभवित रूपरेखा है. अनुभवों, उपयोगिता एवं व्यवहारिक मर्यादाओं के आधार पर इसमें यथासमय योग्य परिवर्तन भी किया जाएगा. कृति, विद्वान एवं गच्छ माहिती का सुसंकलन अपने आप में एक महाकार्य है. काफी जटिलताएँ हैं इसमें. पर्याप्त गवेषणाओं के लिए काफी श्रम, समय, सहायक सामग्री, धन व अनुभव की आवश्यकता रहेगी. हस्तप्रत : एक परिचय प्राचीन लेखन शैली के दो रूप हैं- प्रथम अभिलेख रूप में और द्वितीय हस्तप्रत रूप में प्राचीन भारतीय साहित्य को आज हम जिस रूप में प्राप्त करते हैं, उनका आधार हस्तप्रत है. शास्त्र की हस्तलिखित नकल होने के कारण यह हस्तप्रत कहलाई. इसे पाण्डुलिपि भी कहा गया है. मूल प्रति कालक्रम से नष्ट होती जाती थी तथा इसकी कई प्रतियाँ तैयार होती जाती थी. प्रतिलिपि से प्रत शब्द लिया गया ज्ञात होता है. प्राचीन संस्कृति को जानने के लिए हस्तप्रतों का विशिष्ट महत्व है, क्योंकि मात्र पुरातत्वीय साक्ष्यों के आधार पर इतिहास का निर्माण नहीं हो सकता. इतिहास की पुष्टि के लिए साहित्य अनिवार्य बनता है. प्राचीन काल में ज्ञानभंडारों में हस्तलिखित साहित्य ही होते थे. देश में हस्तप्रत लेखन के कई केन्द्र थे. इन केन्द्रों (लेखनस्थलों) के आधार पर अध्ययन करने पर भिन्न-भिन्न वाचना वाली प्रतों के समूह (कुलों) का ज्ञान होता है तथा समीक्षित आवृत्ति के प्रकाशन में इनका बड़ा महत्व होता है. ___ हस्तप्रतें मुख्य रूप से ताड़पत्र, कागज, भोजपत्र, अगरपत्र एवं वस्त्र पर लिखी गई हैं. इनका लेखन मंगलसूचक शब्दों, संकेतों से प्रारम्भ करके इन्हीं शब्दों व संकेतों से पूर्ण किया जाता है. हस्तप्रत के प्रकार १. आंतरिक प्रकार :- यह हस्तलिखित प्रति के रूपविधान का प्रकार है. इसके अंतर्गत लेखन की पद्धति आती है, जिसे एक पाट (एकपाठ), द्विपाट (द्विपाठ), त्रिपाट (त्रिपाठ), पंचपाट (पंचपाठ) शुड (शूढ). चित्रपुस्तक, सुवर्णाक्षरी, रौप्याक्षरी, सूक्ष्माक्षरी व स्थूलाक्षरी आदि कहते हैं. ग्रंथों के ये भेद कागज पर हस्तप्रत लेखन परम्परा प्रारम्भ होने के बाद विशेष विकसित हए लगते हैं. इन प्रकारों के आधार पर लहिया (प्रतिलेखक) की रूचि, दक्षता आदि का परिचय होता है. ऐसी प्रतों का बाह्य स्वरूप सामान्य होने के बावजूद अंदर के पत्र देखने पर ही इनकी विशिष्टता का बोध होता है. २. बाह्य प्रकार :- प्राचीन हस्तलिखित प्रतें प्रायः लम्बी, पतली पट्टी के ताड़पत्र पर मिलती हैं. इनके मध्य भाग में एक छिद्र तथा कई बार उचित दूरी पर दो छिद्र मिलते हैं. ताडपत्रों पर स्याही से व कुरेद कर दो प्रकार से प्रतें लिखी मिलती हैं. कुरेद कर लिखने की प्रथा उड़ीसा, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, केरल व कर्णाटक के प्रदेशों में रही एवं शेष भारत में स्याही से ही लिखने की प्रथा रही. कागज के प्रयोग के प्रारंभ के बाद इन्हीं ताड़पत्रों को आदर्श मानकर कागज की प्रतें भी प्रारंभ में बड़े-बड़े लंबे पत्रों पर लिखी गईं. इन ताडपत्रीय प्रतों की लंबाई-चौड़ाई के आधार पर जैन भाष्यकारों, चूर्णिकारों तथा टीकाकारों ने प्रतों के पांच प्रकार बताये हैं For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ (१) गंडी, (२) कच्छपी (३) मुष्टि (४) संपुटफलक (५) छेदपाटी १. गंडी- प्रत की लंबाई और चौड़ाई एक समान हो उसे गंडी कहा जाता है. २. कच्छपी- दोनों किनारों पर सँकरी तथा बीच में फैली हुई कछुए के आकार की प्रत को कच्छपी प्रत कहा जाता है. ३. मुष्टि- जो प्रत मुट्ठी में आ जाय इतनी छोटी हो उसे मुष्टि प्रकार की प्रत कहते हैं. ४. संपुट फलक- लकड़ी की पाटियों पर लिखी प्रत संपुटफलक के नाम से जानी जाती है. ५. छेदपाटी (छिवाडी) - प्राकृत शब्द छिवाडी का संस्कृत रूप छेदपाटी है. इस प्रकार की प्रतों में पत्रों की संख्या कम होने से प्रति की मोटाई कम होती है लेकिन लंबाई-चौड़ाई पर्याप्त प्रमाण में होती है. उपर्युक्त पाँच प्रकारों के अतिरिक्त कागज व वस्त्र पर फरमान की तरह गोल कुंडली प्रकार से लिखे ग्रंथ भी मिलते हैं जिन्हें अंग्रेजी भाषा में scroll कहते हैं. यह २० मीटर जितने लंबे हो सकते हैं किन्तु इसकी चौड़ाई सामान्य-औसत ही होती है. जैन विज्ञप्तिपत्र, महाभारत, श्रीमद्भागवत, जन्मपत्रिका आदि कुंडली आकार (स्क्रोल) में लिखे मिलते हैं. इसी तरह समेट कर अनेक तहों में किए गए लंबे चौड़े कागज आदि पट्ट भी मिलते हैं. सामान्यतः यंत्र, कोष्ठक, आराधना पट्ट एवं अदीद्वीप पट्ट आदि इनमें लिखे होते हैं. इनके अलावा ताम्रपत्रों एवं शिलापट्टों पर भी ग्रंथ लिखे मिलते हैं. हस्तप्रत के प्रायः खुले पन्ने ही होते हैं किन्तु कई बार पत्रों को मध्य में सिलाई कर या बांध कर पुस्तकाकार दो भागों में बांट दिया जाता है. ऐसे पत्रों वाली प्रत को गुटका कहा जाता है. ये बही की तरह ऊपर की ओर एवं सामान्य पुस्तक की तरह बगल में खुलने वाले - इस तरह दो प्रकार से बंधे मिलते हैं. मोटे गत्ते के आवरण में बंधे ये गुटके अत्यंत लघुकाय से लगाकर बृहत्काय तक होते हैं. अक्सर इन गुटकों को लपेट कर बांध देने के लिए इनके साथ दोरी भी लगी होती है. चित्रपुस्तक- चित्रपुस्तक अर्थात् पुस्तकों में खींचे गए चित्रों की कल्पना कोई न करे. यहाँ पर 'चित्रपुस्तक' इस नाम से लिखावट की पद्धति में से निष्पन्न चित्र से है. कुछ लेखक लिखाई के बीच ऐसी सावधानी के साथ जगह खाली छोड़ देते हैं, जिससे अनेक प्रकार के चौकोर, तिकोन, षट्कोण, छत्र, स्वस्तिक, अग्निशिखा, वज्र, डमरू, गोमूत्रिका आदि आकृति चित्र तथा लेखक के विवक्षित ग्रन्थनाम, गुरुनाम अथवा चाहे जिस व्यक्ति का नाम या श्लोक-गाथा आदि देखे किंवा पढ़े जा सकते हैं. अतः इस प्रकार के पुस्तक को हमें 'रिक्तलिपिचित्रपुस्तक' इस नाम से पहचानने के लिए मुनि श्री पुण्यविजयजी ने कहा है. इसी प्रकार लेखक लिखाई के बीच में खाली जगह न छोडकर काली स्याही से अविच्छिन्न लिखी जाती लिखावट के बीच के अमुक-अमुक अक्षर ऐसी सावधानी और खूबी से लाल स्याही से लिखते जिससे उस लिखावट में अनेक चित्राकृतियाँ, नाम अथवा श्लोक आदि देखे-पढे जा सकते हैं. ऐसी चित्रपुस्तकों को 'लिपिचित्रपुस्तक' का नाम दिया गया हैं. इसके अतिरिक्त 'अंकस्थानचित्रपुस्तक' भी चित्रपुस्तक का एक दूसरा प्रकारान्तर है. इसमें पत्रांक के स्थान में विविध प्राणी, वृक्ष, मन्दिर आदि की आकृतियाँ बनाकर उनके बीच पत्रांक लिखे जाते हैं. कुछ प्रतों में मध्य व पार्श्व-फुल्लिकाएँ बडे ही कलात्मक ढंग से चित्रित व कई बार सोने, चांदी के वरख व अभ्रक से सुशोभित मिलती है. ऐसी प्रतें विक्रमीय १५वीं से १७वीं सदी की सविशेष मिलती हैं. इसी तरह प्रथम व अंतिम पत्रों पर भी बड़ी ही सुंदर रंगीन रेखाकृतियाँ चित्रित मिलती है जिन्हें चित्रपृष्ठिका के नाम से जाना जाता है. कई प्रतों की पार्श्वरेखाएँ भी बडी कलात्मक बनाई जाती थी. For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ ११ चित्रित प्रतों की अपनी एक अलग ही बृहत्कथा है. प्रतों में एक दो से लगाकर बड़ी तादाद में सोने की स्याही व अन्य विविध रंगों से बने बड़े ही सुंदर व सुरेख चित्र मिलते है, आलेख के चारों ओर की खाली जगह में भी विविध सुंदर वेल बुटे एवं अन्य कलात्मक चित्र चित्रित मिलते हैं. कालक्रम से लेखन शैली में परिवर्तन देखा जाता है. यथा विक्रम की १४वीं - १५वीं सदी में प्रत के मध्य में रिक्त स्थान चौकोर फुल्लिका देखने में आता है जो कि ताडपत्रों में दोरी पिरोने हेतु छोड़ी जाने वाली खाली जगह की विरासत थी. बाद में यही कालक्रम से वापी का आकार धारण कर धीमे धीमे लुप्त होती पाई गई है. शैली की तरह लिपि भी परिवर्तनशील रही है. विक्रम की ११वीं सदी के पूर्व और पश्चात की लिपि में काफी भेद पाया जाता है. कहते हैं कि नवांगी टीकाकार श्री अभयदेवसूरि को प्राचीन प्रतों की लिपि को पढ़ने में हुई दिक़्क़तों के कारण जैन लिपिपाटी स्थिर की गई और तब से अत्यल्प परिवर्तन के साथ प्रायः वही पाटी सदियों तक मुद्रणयुग पर्यंत स्थिर रही. मुख्य फर्क पडीमात्रा - पृष्ठमात्रा का शिरोमात्रा में परिवर्तित होने का ज्ञात होता है. योग्य अध्ययन हो तो प्रत के आकार-प्रकार, लेखन शैली एवं अक्षर परिवर्तन के आधार पर कोई भी प्रत किस सदी में लिखी गई है उसका पर्याप्त सही अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है. ताड़पत्र युग और उसके बाद के प्रारंभिक कागज के युग में भी पत्रांक दो तरह से लिखे मिलते हैं. बाई ओर सामान्य तौर पर संस्कृत भाषा में क्वचित ही बननेवाले विशिष्ट अक्षर संयोगमय संकेत जो शतक, दशम व इकाई हेतु भिन्न-भिन्न होते थे और ऊपर से नीचे की ओर लिखे जाते थे. इन्हीं संकेतों का उपयोग प्रायश्चित्त ग्रंथों में ह्रस्व दीर्घ इ की मात्रा के साथ चतुर्गुरू, षड्लघु आदि को इंगित करने हेतु हुआ है. पृष्ठ के दाईं ओर सामान्य अंकों में पृष्ठांक लिखे मिलते हैं. प्रत लिखते समय भूल न रह जाय उस हेतु भी पर्याप्त जागृति रखी जाती थी. एक बार लिखने के बाद विद्वान साधु आदि उस प्रत को पूरी तरह पढ़कर उसके गलत पाठ को हरताल, सफ़ेदा आदि से मिटा कर, छूट गए पाठ को हंसपाद आदि योग्य निशानी पूर्वक पंक्ति के बीच ही या बगल के हांसीये आदि में ओली-पंक्ति क्रमांक के साथ लिख देते थे. इसी के साथ वाचक को सुगमता रहे इस हेतु सामासिक पदों के ऊपर छोटी-छोटी खड़ी रेखाएँ कर के पदच्छेद को दर्शाते थे. क्रियापदों के ऊपर अलग निशानियाँ करते थे एवं विशेष्य विशेषण आदि संबंध दर्शाने के लिए भी परस्पर समान सूक्ष्म निशानियाँ करते थे. सामासिक पदों में शब्दों के ऊपर उनके वचन-विभक्ति दर्शाने हेतु ११, १२, १३, २१, २२, २३... इत्यादि अंक भी लिखते थे, तो संबोधन हेतु 'हे' लिखा मिलता है. इससे भी आगे बढ़ कर जैसे चतुर्थी विभक्ति हुई है तो क्यों ? यह बतलाने के लिए 'हेतो' इस तरह से हेत्वर्थे चतुर्थी का संकेत मिलता है. दार्शनिक ग्रंथों में पक्ष- प्रतिपक्ष के अनेक स्तरों तक अवांतर चर्चाएँ आती हैं. उन चर्चाओं का प्रारंभ व समापन बतलाने के लिए दोनों ही जगहों पर प्रत्येक चर्चा हेतु अलग-अलग प्रकार के संकेत मिलते हैं. श्लोकों पर अन्वय दर्शक अंक क्रमानुसार लिखे जाते थे. संधिविच्छेद बताने के लिए संधि दर्शक स्वर भी शब्दों के ऊपर सूक्ष्माक्षरों से लिखे जाते थे. - प्रत वाचन में सुगमता की ये निशानियाँ बड़े ही सूक्ष्माक्षरों से लिखी होती हैं. इसी तरह अवचूरि, टीकादि भाग एवं कभी-कभी पूरी की पूरी प्रत इतने सूक्ष्माक्षरों से लिखी मिलती है कि जिन्हें पढ़ना भी आज दुरूह होता है. विचार आता है कि जिसे पढ़ने में भी आँखों को बड़ी दिक़्क़त होती है उन प्रतों को महानुभावों ने लिखा कैसे होगा. फिर भी यह हकीकत है कि लिखा है और हजारों की तादाद में लिखा है, विहार में For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२ श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ सुगमता से अधिक मात्रा में प्रतों को उठा कर साथ रखा जा सके इसी एकमात्र परोपकार की भावना से. श्रमण व श्रावकगण विशाल संख्या में भक्तिभाव से श्रेष्ठ कोटी के ग्रंथों का लेखन किया करते थे. श्रावकवर्ग लहियाओं के पास भी ग्रंथों को लिखवाते थे. कायस्थ, ब्राह्मण, नागर, महात्मा, भोजक इत्यादि जाति के लोगों ने लहिया के रूप में प्रतों को लिखने का कार्य किया है. प्रत लिखने वाले को लहिया कहा जाता है. इन्हें प्रत में अक्षरों को गिन कर पारिश्रमिक दिया जाता था. लेखन सामग्री - पत्र, कंबिका, गांठ (ग्रंथि), लिप्यासन (ताडपत्र, कागज आदि लिपि के आसन) सांकळ, स्याही, लेखनी, ओलिया (फांटिया) इत्यादि हुआ करती थी. ग्रंथ शोधन सामग्री - पीछी तूलिका, हरताल, सफेदा, घूटा, गेरु इत्यादि प्रयुक्त थी. जैन प्रतों को लिखने में व उसकी सज्जा पर इतना ध्यान दिया जाता था कि एकबार देखने मात्र से ही पता चल जाता है कि यह जैन प्रत है या अन्य पूर्व महर्षियों ने लेखन पर जितना ध्यान दिया उतना ही ध्यान ग्रंथों के संरक्षण पर भी दिया. ग्रंथों को लाल मोटे कपड़े या रेशमी कपड़े में बड़ी मजबूती से बाँधकर लकड़ी या कागज की बनी मंजूषाओं में सुरक्षित रखा जाता था व श्रुत को ही समर्पित ज्ञानपंचमी जैसे पर्वों पर इनका प्रतिलेखन किया जाता था. शिथिल ढीला बंधन यह एक अपराध सा समझा जाता था. प्रतों के अंत में प्रतिलेखन संबंधी मिलने वाले विविध श्लोकों में एक अति प्रचलित श्लोक में खास हिदायत दी गई है कि "रक्षेत् शिथिल बंधनात् " इसी तरह जल, तैल, अग्नि, मूषक, चोर, मूर्ख व पर- हस्त से प्रत की रक्षा करने की हिदायतें भी मिलती है. साथ ही इन श्लोकों-पद्यों में प्रतिलेखक स्वयं के हाथों बडे परिश्रम से लिखी गई प्रत के प्रति अपनी भावनाओं को प्रकट करते थे. कहते हैं कि मुद्रण युग के आ जाने से ग्रंथ पढ़नेवालों को बड़ी सुविधाएँ हुई हैं इसमें उपलब्धता, श्रेष्ठ संपादन आदि पहलुओं से एक देश तथ्य भी है परंतु वाचक हेतु अत्यंत उपकारी ऐसी विभक्ति-वचन संकेत जैसी उपरोक्त सुविधाओं से युक्त एक भी प्रकाशन अद्यावधि देखने में नहीं आया है. मुद्रण कला ने ग्रंथों की सुलभता अवश्य कर दी है परंतु कहीं न कहीं यह भुला दिया जा रहा है कि सुलभता का मतलब सुगमता ग्रंथगत महापुरुषों के कथन के एकांत कल्याणकारी यथार्थ हार्द तक पहुँचना नहीं हो जाता. सुगमता तो मार्गस्थमति व समर्पण से प्राप्त गुरूकृपा का ही परिणाम हो सकती हैं. अपरिपक्वों को शास्त्रों की निरपेक्ष सुलभता स्वच्छंदता जनित स्व-पर हेतु अपायों की अनिच्छनीय परंपरा खड़ी कर सकती हैं, करती हैं यह सभी महर्षियों की अनुभवसिद्ध एकमत अभिघोषणा है. आत्मार्थियों को इस हेतु जागृति रखनी आवश्यक है. 8 88 For Private and Personal Use Only - हस्तप्रत प्रतिलेखन पुष्पिका : एक परिचय परिचय : हस्तप्रत के विषय में लघुतम से महत्तम सूचनाएँ प्रतिलेखन पुष्पिका से ज्ञात होती हैं. हस्तप्रत के संबंध में लेखन संवत, लेखन स्थल व अन्य आनुषंगिक माहिती- लहिया / पाठक, लिखवानेवाले / उपदेशक आदि के व्यक्तित्व - कृतित्व के विषय में, उनकी गुरु परम्परा व उनके द्वारा किए गए प्रतिष्ठा, अन्य ग्रंथलेखापन, ग्रंथसर्जन, आदि कार्यों के विषय में, विद्वान के गच्छ की उत्पत्ति आदि के विषय में, (स्वयं के शिष्य, गुरुभाई, अन्य कोई विशिष्ट मंत्री आदि) किसके लिए या किसकी प्रेरणा से प्रत लिखी गई है, यदि प्रेरक गृहस्थ हो तो क्वचित उसकी वंश परम्परा, प्रति को शास्त्र मर्यादा आदि की दृष्टि से उसे संशोधन " करनेवाले अन्य आचार्य आदि का नाम व उनके द्वारा किए गए धर्म कार्य, लेखन में सहयोगी अपने शिष्य, गुरुभाई आदि अन्य विद्वान का नाम, वर्तमान गच्छ नायक का नाम शासक राजा, उसकी वंशावली व Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३ श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ उसके द्वारा किए गए कार्यों का वर्णन, लेखन संवत, लेखन स्थल-शहर/ गाँव/ राज्य का नाम, समीपस्थ जिन प्रासाद का नाम, वसती-उपाश्रय का नाम (कई बार यह वस्ती किसी श्रावक आदि के नाम से भी जड़ी होती है. वसती = वसही = बस्ती), तत्कालीन किसी घटना का उल्लेख जो कि धार्मिक, ऐतिहासिक दृष्टि से महत्व की हो... इत्यादि बातों में से किन्हीं भी मुद्दों का प्रतिलेखन पुष्पिका में विस्तार से या संक्षेप में समावेश हो सकता है. प्रतिलेखन पुष्पिका कई बार अत्यंत संक्षिप्त से लेकर अनेक पृष्ठों तक की विस्तृत हो सकती है, तो कई बार होती ही नहीं है. __ उपलब्धता का स्थान : प्रतिलेखन पुष्पिका ज्यादातर मात्र प्रत में कृति की समाप्ति के बाद ही होती है. परंतु कई बार हस्तप्रत में खंड-खंड में भी मिलती है. यथा- कुछ एक अंश कृति के प्रारंभ में होता है, कुछ एक अंश प्रत्येक अध्याय-पाद आदि की समाप्ति में होता है व शेष अंश अंत भाग में होता है. कई बार प्रतिलेखन पुष्पिका मात्र प्रत के आद्यभाग में ही होती है. ___ कई बार प्रत में मूल व टीका, टबार्थ आदि दोनों होते हैं. ऐसे में मूल व टीका आदि हेतु प्रतिलेखन पुष्पिका भिन्न भी होती है. क्योंकि लिखते समय प्रथम मूल लिखा जाता था एवं टबार्थ, टीका आदि हेतु योग्यरूप से जगह खाली छोड़ दी जाती थी. जहाँ पर बाद में अनुकूलता से उसी या अन्य व्यक्ति द्वारा लिखा जाता था. अतः दोनों प्रतिलेखन पुष्पिका भिन्न भी हो सकती है. क्वचित पेटांकों में भी प्रतिलेखन पुष्पिका स्वतंत्र रूप से या विविध पेटांकों के समूहों के लिए मिलती हैं क्योंकि पेटा कृतियाँ कई बार बड़े व्यापक काल खंड में विभिन्न व्यक्तियों द्वारा भी लिखी जाती थी. इसी तरह प्रत्येक पेटांकगत मूल व टीका आदि की भी स्वतंत्र प्रतिलेखन पुष्पिकाएँ मिल सकती हैं. . प्रत के सर्वथा आद्य भाग में प्रतिलेखक द्वारा लिखे जाने वाले स्वयं के इष्ट देव, गुरु आदि को नमन भी प्रतिलेखक के विषय में महत्वपूर्ण सूचना उपलब्ध कराता है. यहाँ पर गुरु का नाम सामान्यतः तत्कालीन गच्छनायक ! होता है या स्वयं के गुरु का होता है. जिनेश्वर का नाम समीपस्थ जिनमंदिर के मूलनायक का हो सकता है. प्रतिलेखन पुष्पिका का स्वरूप : प्रतिलेखन पुष्पिका सामान्यतः गद्यबद्ध होती है. क्वचित सुंदर रूप से काव्यात्मक - पद्यबद्ध भी मिलती है. प्रतिलेखन में पुष्पिका प्रतिलेखक का गुप्त नाम : प्रतिलेखक कई बार प्रतिलेखन पुष्पिका के श्लोकों, गाथाओं में अत्यंत चमत्कारिक काव्य रचना करते हुए गूढ़ रूप से या खंड-खंड - या गूढ़ सांकेतिक शब्दों में स्वयं का नाम गुंफित करता है जो एकाएक पता भी नहीं चलता. - इस सूचीपत्र में सामान्यतः प्रतिलेखन पुष्पिकागत प्रतिलेखक नाम, गुरु का नाम व गच्छ, स्थल, संवत, जैसी सीमित सूचनाएँ ही प्रविष्ट की गई है शेष सूचनाएँ यथावसर यथानुकूलता प्रविष्ट कर परिशिष्ट खंडों में प्रकाशित करने की योजना है. धर्म व श्रूत-आराधना का आलादक धाम श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा तीर्थ अहमदाबाद-गांधीनगर राजमार्ग पर स्थित साबरमती नदी के समीप सुरम्य वृक्षों की छटाओं से घिरा हुआ यह कोबा तीर्थ प्राकृतिक शान्तिपूर्ण वातावरण का अनुभव कराता है. गच्छाधिपति, महान जैनाचार्य श्रीमत् कैलाससागरसूरीश्वरजी म. सा. की दिव्य कृपा व युगद्रष्टा राष्ट्रसंत आचार्य प्रवर श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी के शुभाशीर्वाद से श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र की स्थापना २६ दिसम्बर १९८० के For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४ श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ दिन की गई थी. आचार्यश्री की यह इच्छा थी कि यहाँ पर धर्म, आराधना और ज्ञान-साधना की कोई एकाध प्रवृत्ति ही नहीं वरन् अनेकविध ज्ञान और धर्म-प्रवृत्तियों का महासंगम हो. एतदर्थ आचार्य श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी की महान भावनारूप आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का खास तौर पर निर्माण किया गया. श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा तीर्थ आज पाँच नामों से जुड़कर निरन्तर प्रगति और प्रसिद्धि के शिखर सर कर रहा है. (१) प्रतिवर्ष २२ मई को दो बजकर सात मिनट पर महावीरालय में परमात्मा महावीर स्वामी के ललाट पर सूर्यकिरणों से बनने वाला देदीप्यमान तिलक, (२) आचार्य श्री कैलाससागरसूरि म.सा. की पावन स्मृतिरूप गुरुमन्दिर. (३) प.पू. आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरि म.सा. की पावन प्रेरणा (४) अपने आप में अनुपम आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर तथा पू. आचार्यश्री के शुभाशीष तथा मार्गदर्शन में विकसित बोरीज तीर्थ स्थित योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी की साधनास्थली में पुनरुद्धार के बाद नवनिर्मित भव्य १०८ फीट ऊँचा वर्धमान महावीर प्रभु का महालय यानी विश्व मैत्री धाम. इनमें से किसी का भी नाम लेने पर स्वतः ये पाँच स्वरूप उभर कर आते हैं. ये पाँचों एक दूसरे के पर्याय बन चुके हैं. वर्तमान में श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र अनेकविध प्रवृत्तियों में अपनी निम्नलिखित शाखाओं प्रशाखाओं के सत्प्रयासों के साथ धर्मशासन की सेवा में तत्पर है. (१) महावीरालय : हृदय में अलौकिक धर्मोल्लास जगाने वाला चरम तीर्थकर श्री महावीरस्वामी का शिल्पकला युक्त भव्य प्रासाद 'महावीरालय' दर्शनीय है. प्रथम तल पर गर्भगृह में मूलनायक महावीरस्वामी आदि १३ प्रतिमाओं के दर्शन अलग-अलग देरियों में होते हैं तथा भूमि तल पर आदीश्वर भगवान की भव्य प्रतिमा, माणिभद्रवीर तथा भगवती पद्मावती सहित पांच प्रतिमाओं के दर्शन होते हैं. सभी प्रतिमाएँ इतनी मोहक एवं चुम्बकीय आकर्षण रखती हैं कि लगता है सामने ही बैठे रहें. मंदिर को परंपरागत शैली में शिल्पांकनों द्वारा रोचक पद्धति से अलंकृत किया गया है, जिससे सीढियों से लेकर शिखर के गुंबज तक तथा रंगमंडप से गर्भगृह का चप्पा-चप्पा जैन शिल्प कला को आधुनिक युग में पुनः जागृत करता दृष्टिगोचर होता है. द्वारों पर उत्कीर्ण भगवान महावीर देव के प्रसंग २४ यक्ष, २४ यक्षिणियों, १६ महाविद्याओं, विविध स्वरूपों में अप्सरा, देव, किन्नर, पश-पक्षी सहित वेल-वल्लरी आदि इस मंदिर को जैन शिल्प एवं स्थापत्य के क्षेत्र में एक अप्रतिम उदाहरण के रूप में सफलतापूर्वक प्रस्तुत करते हैं. इस महावीरालय की विशिष्टता यह है कि आचार्यश्री कैलाससागरसूरीश्वरजी म. के अन्तिम संस्कार के समय प्रतिवर्ष २२ मई को दुपहर, २ बजकर ७ मिनट पर महावीरालय के शिखर में से होकर सूर्य किरणें श्री महावीरस्वामी के ललाट को सूर्यतिलक से देदीप्यमान करे ऐसी अनुपम एवं अद्वितीय व्यवस्था की गई है. प्रति वर्ष इस आह्लादक घटना का दर्शन बड़ी संख्या में जनमेदनी भावविभोर होकर करती है. (२) आचार्य श्री कैलाससागरसूरि स्मृति मंदिर (गुरु मंदिर) : पूज्य गच्छाधिपति आचार्यदेव प्रशान्तमूर्ति श्रीमत कैलाससागरसरीश्वरजी म. के पुण्य देह के अन्तिम संस्कार स्थल पर पूज्यश्री की पण्य-स्मति में संगमरमर का कलात्मक गुरु मंदिर निर्मित किया गया है. स्फटिक रत्न से निर्मित अनन्तलब्धि निधान श्री गौतमस्वामीजी की मनोहर मूर्ति तथा स्फटिक से ही निर्मित गुरु चरण-पादुका वास्तव में दर्शनीय हैं. इस गुरु मंदिर में दीवारों पर संगमरमर की आठ जालियों में दोनों ओर श्रीगुरुचरणपादुका तथा गुरु श्री गौतमस्वामी के जीवन की विविध घटनाओं का तादृश रूपांकन करने के सफल प्रयास किये गये हैं. इस स्थान पर फर्श एवं गर्भगृह की चौकी आदि पर कीमती पत्थरों द्वारा बेल-बूटों की सुंदर पच्चीकारी का कार्य किया गया है. यहाँ पर आचार्यश्री के जीवन-प्रसंगों को स्वर्णाक्षरों से अंकित करने की भी योजना है. For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ १५ (३) आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर ( ज्ञानतीर्थ) : विश्व में जैनधर्म एवं भारतीय संस्कृति के विशालतम अद्यतन साधनों से सुसज्ज शोध संस्थान के रूप में अपना स्थान बना चुका यह ज्ञानतीर्थ श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र की आत्मा है. ज्ञानतीर्थ स्वयं अपने आप में एक लब्धप्रतिष्ठ संस्था है. आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर के अन्तर्गत निम्नलिखित विभाग कार्यरत हैं: (१) देवर्द्धि गणि क्षमाश्रमण हस्तप्रत भांडागार (२) आर्य सुधर्मास्वामी श्रुतागार (मुद्रित पुस्तकों का ग्रंथालय ) (३) आर्यरक्षितसूरि शोधसागर - कम्प्यूटर केन्द्र सहित (४) सम्राट सम्प्रति संग्रहालय (इस कलादीर्घा में पुरातत्त्व - अध्येताओं और जिज्ञासु दर्शकों के लिए प्राचीन भारतीय शिल्प कला परम्परा के गौरवमय दर्शन इस स्थल पर होते हैं. पाषाण व धातु मूर्तियों, ताड़पत्र व कागज पर चित्रित पाण्डुलिपियों, लघुचित्र, पट्ट, विज्ञप्तिपत्र, काष्ठ तथा हस्तिदंत से बनी प्राचीन एवं अर्वाचीन अद्वितीय कलाकृतियों तथा अन्यान्य पुरावस्तुओं को बहुत ही आकर्षक एवं प्रभावोत्पादक ढंग से धार्मिक व सांस्कृतिक गौरव के अनुरूप प्रदर्शित की गई है) (५) अहमदाबाद स्थित श्रमण भगवंतों तथा वाचकों हेतु पालडी विस्तार में ज्ञानमन्दिर का संभाग पटल. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३) आराधना भवन : आराधक यहाँ धर्माराधना कर सकें इसके लिए आराधना भवन का निर्माण किया गया है. प्राकृतिक हवा एवं रोशनी से भरपूर इस आराधना भवन में मुनि भगवंत स्थिरता कर अपनी संयम आराधना के साथ-साथ विशिष्ट ज्ञानाभ्यास, ध्यान, स्वाध्याय आदि का योग प्राप्त करते हैं. साधु भगवंतो के उच्चस्तरीय अध्ययन के लिए अपने-अपने क्षेत्र के विद्वान पंडितजनों का विशिष्ट प्रबन्ध किया गया है. यह ज्ञान, ध्यान तथा आराधना के लिये विद्यानगरी काशी के सदृश सिद्ध हो सके इस हेतु प्रयास किये गए हैं. (४) मुमुक्षु कुटीर : यात्रीलुओं, जिज्ञासुओं, ज्ञान पिपासुओं के लिए दस मुमुक्षु कुटीरों का निर्माण किया गया है. हर खण्ड जीवन यापन सम्बन्धी प्राथमिक सुविधाओं से सम्पन्न है. संस्था के नियमानुसार विद्यार्थी मुमुक्षु सुव्यवस्थित रूप से यहाँ उच्चस्तरीय ज्ञानाभ्यास, प्राचीन एवं अर्वाचीन जैन साहित्य का परिचय एवं संशोधन तथा मुनिजनों से तत्त्वज्ञान प्राप्त कर सकते हैं. (५) भोजनशाला एवं अल्पाहार गृह : तीर्थ में पधारनेवाले श्रावकों, दर्शनार्थियों, मुमुक्षुओं, विद्वानों एवं यात्रियों की सुविधा हेतु जैन सिद्धान्तों के अनुरूप सात्त्विक भोजन उपलब्ध कराने की भोजनालय व अल्पाहार गृह में सुन्दर व्यवस्था है. (६) श्रुत सरिता : इस बुक स्टाल में उचित मूल्य पर उत्कृष्ट जैन साहित्य, आराधना सामग्री, धार्मिक उपकरण, कैसेट्स एवं सी. डी. आदि उपलब्ध किये जाते हैं. यहीं पर एस.टी.डी टेलीफोन बूथ भी है. (७) विश्व मैत्री धाम बोरीज, गांधीनगर : योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी महाराज की साधनास्थली बोरीजतीर्थ का पुनरुद्धार परम पूज्य आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. की प्रेरणा एवं शुभाशीर्वाद से श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र की शाखा विश्व मैत्री धाम के तत्त्वावधान में नवनिर्मित १०८ फीट ऊँचे विशालतम महालय में ८१.२५ ईंच के पद्मासनस्थ श्री वर्द्धमान स्वामी प्रभु प्रतिष्ठित किये गये हैं. ज्ञातव्य हो कि वर्तमान मन्दिर में इसी स्थान पर जमीन में से निकली भगवान महावीरस्वामी आदि प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरजी महाराज द्वारा हुई थी. नवीन मन्दिर स्थापत्य एवं शिल्प दोनों ही दृष्टि से दर्शनीय है. यहाँ पर भविष्य में एक कसौटी पत्थर की देवकुलिका के भी पुनःस्थापन की योजना है जो पश्चिम बंगाल के जगत शेठ फतेहसिंह गेलडा द्वारा १८वीं सदी में निर्मापित किये गये कसौटी मन्दिर के पुनरुद्धार स्वरूप है. वर्तमान में इसे जैनसंघ की ऐतिहासिक धरोहर माना जाता है. निस्संदेह इससे इस परिसर में पूर्व व पश्चिम के जैनशिल्प का अभूतपूर्व संगम होगा. भ 88 For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १६ www.kobatirth.org आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर की दशवर्षीय उपलब्धियों की झलक Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ (१) देवर्द्धि गणि क्षमाश्रमण हस्तप्रत भांडागार वीर संवत् ९८० ( मतान्तर से ९९३) में एक शताब्दी में चार-चार अकाल की परिस्थिति में लुप्तप्राय हो रहे भगवान महावीर के उपदेशों को पुनः सुसंकलित करने के लिए भारतवर्ष के समस्त श्री श्रमण संघ को तृतीय वाचना हेतु गुजरात के वलभीपुर में एकत्रित करने वाले पूज्य श्री देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण की अमर स्मृति में जैन आर्य संस्कृति की अमूल्य निधि - रूप हस्तप्रत अनुभाग का नामकरण किया गया है. आगम, न्याय, दर्शन, योग, साहित्य, व्याकरण, ज्योतिष, आयुर्वेद, इतिहास-पुराण आदि विषयों से सम्बन्धित मुख्यतः जैन धर्म एवं साथ ही वैदिक व अन्य साहित्य से संबद्ध इस विशिष्ट संग्रह के रखरखाव तथा वाचकों को उनकी योग्यतानुसार उपलब्ध करने का कार्य परंपरागत पद्धति के अनुसार यहाँ संपन्न होता है. सभी अनमोल दुर्लभ शास्त्रग्रंथों को विशेष रूप से बने ऋतुजन्य दोषों से मुक्त कक्षों में पारम्परिक व वैज्ञानिक ढंग के संयोजन से विशिष्ट प्रकार की काष्ठ मंजूषाओं में संरक्षित किये जाने का कार्य हो रहा है. क्षतिग्रस्त प्रतियों को रासायनिक प्रक्रिया से सुरक्षित करने की बृहद् योजना कार्यान्वित की जा रही है. इस विभाग की एक दशक में सम्पन्न विविध कार्यों की झलक प्रस्तुत है १. अस्त-व्यस्त हस्तलिखित शास्त्रों का मिलान व वर्गीकरण : कार्य के प्रारम्भिक चरण में अस्तव्यस्त अवस्था में प्राप्त हुई लगभग ६५,००० हस्तप्रतों का वर्गीकरण प.पू. मुनिराज श्री निर्वाणसागरजी म. सा. व मुनिश्री अजयसागरजी म. सा. के कुशल मार्गदर्शन में हुआ. तत्पश्चात् इस कार्य को आगे बढ़ाते हुए ५ पंडितों ने अब तक संग्रहित लगभग आधे से ज्यादा हस्तप्रतों को मिलाने का कार्य पूर्ण कर लिया है. हजारों की संख्या में अधूरे दुर्लभ शास्त्रों को बिखरे पन्नों में से एकत्र कर पूर्ण किया जा सका है. इस कार्य के अंतर्गत प्रमुख रूप से (१) बिखरे पन्नों का मिलान कर ग्रंथों को पूर्ण करना, (२) फ्यूमिगेशन की प्रक्रिया द्वारा ग्रंथों को जंतुमुक्त रखना, (३) चिपके पत्रों को योग्य प्रक्रिया से अलग करना, (४) जीर्ण पत्रों को पुनः मजबूती प्रदान करना व उनकी फोटोकोपी आदि प्रतिलिपि बनाना, (५) साईजिंग, (६) वर्गीकरण, (७) रेपर लगाने, (८) रबर स्टाम्प लगाने, (९) नाप लेने, (१०) हस्तप्रत के पंक्ति - अक्षरादि की औसतन गणना, (११) इनकी भौतिक दशा संबन्धी विस्तृत कोडिंग, (१२) उन पर खादीभंडार के हस्तनिर्मित हानिरहित कागज के वेष्टन चढ़ाने, (१३) लाल कपड़े में पोथियों व ग्रंथों को बांधने आदि कार्य किये जाते हैं. ये सभी कार्य पर्याप्त श्रमसाध्य व अत्यन्त जटिल होते है. जिसे संपन्न करने के लिए काफी धैर्य, अनुभव व तर्कशक्ति की आवश्यकता होती है. २. शास्त्रग्रंथों का भण्डारण : हस्तलिखित शास्त्रग्रंथों को पूर्णतया सुरक्षित करने हेतु जंतु, तापमान व आर्द्रता ( भेज-नमी) से मुक्त सागवान लकड़ी की खास प्रकार से निर्मित मंजूषा (कबाटों) में रखने हेतु विशेष आयोजन किया गया है तथा इन मंजूषाओं के निर्माण का कार्य प्रगति पर है. इन काष्ठनिर्मित हस्तप्रत मंजूषाओं को जीव-जंतु, रजकण, वातावरण की आर्द्रता आदि से सुरक्षित कर स्टेनलेस स्टील की मोबाईल स्टोरेज सिस्टम में रखा जाएगा. For Private and Personal Use Only ३. हस्तलिखित शास्त्र सूचीकरण खास तौर पर विकसित विश्व की एक श्रेष्ठतम सूचीकरण प्रणाली द्वारा ग्रंथों के विषय में सूक्ष्मतम सूचनाओं को संस्था सीधे ही कम्प्यूटर पर सूचीबद्ध करने का कार्य तीव्र के तहत विशिष्ट प्रशिक्षित पंडितों की टीम के में ही विकसित कम्प्यूटर प्रोग्राम की मदद से Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ १७ गति से चल रहा है. उपर्युक्त कार्य सम्पन्न करने के लिए दूरंदेशी पूज्य विद्वान गुरुभगवंतों की देखरेख में ८ पंडित, २ प्रोग्रामर व ७ सहायकों की टीम पूरी निष्ठा से लगी हुई है. इस विशालकाय संग्रह को समयानुसार लोकाभिमुख बनाने हेतु विविध प्रयासों के अंतर्गत निम्नलिखित प्रमुख कार्य विगत १० वर्षों में हुए : ९२४०० हस्तप्रतों को अनुक्रमांक दिया जा चुका है व शेष हस्तप्रतों को मिलाने, वर्गीकरण कोडिंग ____ आदि की पूर्व प्रक्रियाएँ चल रही हैं. ८४५५० हस्तप्रतों की प्राथमिक सूचनाएँ कम्प्यूटर पर प्रविष्ट की गई. ८४५५० हस्तप्रतों की विस्तृत सूचनाएँ कम्प्यूटर में प्रविष्ट हुई. १२४८२७ कृतियों के साथ प्रतों का संयोजन हुआ. ६३००० हस्तप्रतों का फ्यूमिगेशन किया गया. ९२४०० हस्तप्रतों की दशा, विशेषतादि लक्षणों की कोडींग हुई है. ९३४ हस्तप्रतों के हजारों पन्नों की जिरॉक्स प्रतियाँ विद्वानों को संशोधनार्थ उपलब्ध कराई गईं. ४. हस्तलिखित शास्त्र सूचीकरण के कम्प्यूटरीकृत डाटा का संपादन व केटलॉग का प्रकाशन आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर में संग्रहित दो लाख से ज्यादा हस्तप्रतों की कम्प्यूटर पर प्रविष्ट सूक्ष्मातिसूक्ष्म सूचनाओं के डाटा को संपादित करने व प्रमाणित करने का कार्य बड़े पैमाने पर चल रहा है. इस कार्य के अंतर्गत प्रविष्ट आंकड़ों की सूक्ष्मातिसूक्ष्म छान-बीन, शुद्धि तथा वैधता आदि की परीक्षा की जाती है, संपादित व प्रमाणित होने से ही सूचनाओं को समय पर उचित पद्धति से शुद्धातिशुद्ध रूप में प्राप्त किया जा सकेगा तथा इन कम्प्यूटरीकृत सूचनाओं को १७ विविध प्रकार की सूचियाँ बनाकर अनुमानित ७०० पन्नों के एक ऐसे ७० (५० मुख्य सूची + २० परिशिष्ट) से ज्यादा भागों में क्रमशः प्रकाशित करने की योजना है. इस प्रोजेक्ट में अब तक कार्य की प्रगति निम्नलिखित है : १४५६ कृति परिवारों की ५१३७ कृतियाँ प्रमाणित की गईं. ४८३३ कृतियों की सूचनाओं का संपादन किया गया. ३१०४ आदि वाक्यों का संपादन किया गया. २१४७ अंतिम वाक्यों का संपादन किया गया ६३६६ विद्वान नामों का संपादन किया गया. ५. अन्य भंडारों में उपलब्ध विशिष्ट हस्तप्रतों की प्रतिलिपियों का संग्रहण : पूज्य जंबूविजयजी द्वारा करवाइ गई पाटण आदि मुख्य भंडारों में रहीं विशिष्ट ताडपत्रीय आदि प्रतों की झेरोक्स प्रतियां भी हजारों की संख्या में यहाँ उपलब्ध की गई है. (२) आर्य सुधर्मास्वामी श्रुतागार (ग्रंथालय) : प्रभु श्री महावीरस्वामी के पट्टधर आर्य सुधर्मास्वामी को समर्पित यह विभाग विविध माध्यमों से मुद्रित; जैसे शिलाछाप (लिथो), मुद्रित (प्रिन्टेड) पुस्तकें तथा प्रतें, इलेक्ट्रानिक मिडिया में कैसेट, सी.डी. आदि व सामायिक पत्र-पत्रिकाओं का व्यवस्थापन करता है. यहाँ पर संग्रहित १,०७,५०० से ज्यादा पुस्तकों को २७ विभागों में रखा गया है. इन ग्रंथों की भाषा प्रायः संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी, ढुंढारी, मराठी, बंगाली, उड़िया, मैथिली, पंजाबी, तमिल, तेलगु, मलयालम, परशियन आदि होने के साथ ही हजारों की संख्या में विदेशी भाषा जैसे अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, अरबिक, परशियन, तिब्बतन, भूटानी आदि भी है. For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १८ श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ परिणामतः यह ज्ञानतीर्थ जैन एवं भारतीय विद्या का विश्व में अग्रणी केन्द्र बन गया है. अभी इस संग्रह को और इतना समृद्ध करने की योजना है कि जैन धर्म से सम्बन्धित कोई भी जिज्ञासु यहाँ पर अपनी ज्ञान-पिपासा परितृप्त करके ही जाय. यह विभाग जैन ग्रन्थों के अध्ययन एवं अध्यापन की भी सुविधा उपलब्ध कराता है. भारत भर में यत्र-तत्र विहार कर रहे पूज्य साधु-भगवन्तों तथा स्व- पर कल्याणक गीतार्थ निश्रित सुयोग्य मुमुक्षुओं को उनके अध्ययन-मनन के लिए यहाँ संगृहित सूचनाएँ, संदर्भ एवं पुस्तकें उपलब्ध करने के साथ ही दुर्लभ ग्रंथों की लगभग ४२,२४९ पन्नों की फोटोस्टेट प्रतियाँ भी निःशुल्क उपलब्ध करायी गई है. विविध विषय जैसे प्राचीन भाषाएँ, शास्त्र, आयुर्वेद, गणित, ज्योतिष, वास्तु, शिल्प, विविध कलादि ज्ञान-विज्ञान, लुप्त हो रही ज्ञानसंपदा तथा नवीन सिद्धियाँ यथा कृति, प्रकाशन, पारम्परिक तकनीकी ज्ञान-विज्ञान आदि जिज्ञासु जन-मानस को उपलब्ध किया जाता है. ग्रंथालय के वाचकों में प्रमुख रूप से सम्पूर्ण जैन समाज के साधु-साध्वीजी भगवन्त, मुमुक्षु वर्ग, श्रावक वर्ग, देशी-विदेशी संशोधक, विद्वान एवं आम जिज्ञासु सम्मिलित हैं. श्रमणवर्ग को उनके चातुर्मास स्थल तथा विहार में भी पुस्तकें उपलब्ध कराई जाती हैं. वाचकों हेतु अध्ययन की यहाँ पर सुन्दर व्यवस्था है. एक दशक में इस विभाग में हुई प्रगति का विवरण इस प्रकार FO १. पुस्तक संग्रहण : १,०४,५८४ ३८९१ पुस्तकें दाताओं की ओर से भेट में प्राप्त हुई हैं. पुस्तकें प्रकाशकों तथा पुस्तकविक्रेताओं से क्रय की गईं. इस प्रकार अभी तक कुल पुस्तकें संग्रहित की गईं. १,०७,५०० ८०,००० पुस्तकों पर आवेष्टन चढ़ाकर ग्रंथनाम लिखने का कार्य हुआ. ८५,००० पुरानी पुस्तकों का फ्यूमिगेशन किया गया.' २. ग्रंथ परिक्रमण (वाचक सेवा) : ७३६ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाचक संस्था से पुस्तक आदि अध्ययन हेतु ले जाते है. इनमें १४७ पूज्य साधुभगवन्त, ११७ पूज्य साध्वीजी, ४४ संशोधक एवं विद्वान आदि एवं ४२८ अन्य वाचक शामिल हैं. ४०,००० पुस्तकें संस्था में वाचकों द्वारा अध्ययन की गईं २१,४५४ पुस्तकें इश्यु की गईं. १९,९०६ पुस्तकें वापस आईं. ३. प्रत्यालेखन (फोटोकापी) विभाग : दस्तावेजों व विविध सामग्री की प्रतिलिपि छापने के लिए यहाँ पर एक Ricoh Afficio 270 Digital Printer cum Copier तथा एक Kodak Ektaprinter 90 Copier मशीनें है. इन मशीनों का निम्नलिखित सदुपयोग किया गया. ४२, २४९ पन्नों की फोटोस्टेट प्रतियाँ पूज्य साधु-साध्वीजी भगवंतों को निःशुल्क प्रदान की गईं. ६०,६३२ पन्नों की फोटोस्टेट प्रतियाँ देश-विदेश के विद्वानों, संशोधकों तथा छात्रों को सशुल्क उपलब्ध की गईं. ४३,६०५ पन्नों की फोटोस्टेट प्रतियाँ ज्ञानमंदिर के उपयोगार्थ निकाली गईं. For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ १९ ४३,२३६ पन्नों की फोटोस्टेट प्रतियाँ मुख्य कार्यालय के वहीवटी कार्यों हेतु उपलब्ध कराई गईं. ४. पत्र-पत्रिका विभाग : संस्था में लगभग १७ से २० हजार जितनी पुरानी तथा नवीन पत्रिकाएँ संग्रहित की गई हैं. इनमें से कुछ पत्रिकाओं तथा जर्नल्स के सेट दुर्लभ हैं. जिनका स्वतः में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है. प्रतिमास औसतन ६०-६५ नवीन पत्र-पत्रिकाएँ खरीद तथा भेट में नियमित आती हैं. इन्हें वाचकों को पठनार्थ उपलब्ध कराया जाता है. पत्रिकाओं की प्राथमिक सूचनाओं का कम्प्यूटरीकरण कार्य विगत दो वर्षों से ही प्रारम्भ किया गया है. मुद्रित पुस्तकों तथा हस्तप्रतों के कम्प्यूटरीकरण कार्य को प्रथम वरीयता देने के कारण इस कार्य को प्रारम्भ करने में विलम्ब हुआ है. प्रथम चरण में अभी १०,७२४ पत्रिकाओं की सामान्य सूचनाएँ कम्प्यूटरीकृत की गईं है. शेष का कार्य प्रगति पर है. अभी इस दिशा में पर्याप्त कार्य शेष है. ५. पुस्तक वितरण : २०,००० पुस्तकें संस्था के लिए अनुपयोगी होने के कारण अथवा भेट में आवश्यकता से अधिक प्राप्त होने के कारण समयोचित अन्य संस्थाओं/संघों को उनकी आवश्यकतानुसार भेंट स्वरूप दी गई. जिनके लाभार्थी हैं- श्रुतनिधि ट्रस्ट (अहमदाबाद), शारदाबेन चीमनभाई एजूकेशनल रीसर्च इन्स्टीच्यूट (अहमदाबाद), प्राकृत भारती एकेडमी (जयपुर), प्राच्य विद्यामंदिर (शाजापुर), जैन सेन्टर, अमेरिका व यू. के. तथा आम्बावाडी, अहमदाबाद, सिरोडी (राजस्थान), बुद्धिविहार (माउन्ट आबू) अजीमगंज, कलकत्ता आदि के श्रीसंघ. (४) आर्यरक्षितसूरि शोधसागर जैनागमों के अध्ययन हेतु मास्टर-की रूप अनुयोगद्वारसूत्र के रचयिता युग प्रधान श्री आर्यरक्षितसूरि को समर्पित इस अनुसन्धान का मुख्य ध्येय जैन परम्परा के अनुरूप जैन साहित्य के संदर्भ में गीतार्थ निश्रित शोध-खोल एवं अध्ययन-संशोधन हेतु यथासम्भव सामग्री एवं सुविधाओं को उपलब्ध करवाकर उसे प्रोत्साहित करना व सरल और सफल बनाना है. जैन साहित्य को भारतवर्ष में ही नहीं अपितु विश्व साहित्य में अपना एक अनोखा व विशिष्ट स्थान प्राप्त है. इसमें जैनधर्म के प्रवर्तक, प्रवर्धक तथा संरक्षणशील श्रमण परम्परा के असंख्य मनीषियों की साधना का निचोड़ है, जो किसी भी देश काल के जीव की गतिविधि के हर पहलू को स्पर्श करता है. इस ज्ञान परम्परा को सशक्त करने, आत्मार्थियों को इसकी योग्य उपलब्धि के द्वारा सम्यक उपयोग हो सके इसके लिए इस अनुभाग में विविध विशिष्ट परियोजनाएँ गतिशील की जा रही हैं. जैन साहित्य व साहित्यकार कोश परियोजना : इस परियोजना के अंतर्गत काल दोष से लुप्त हो रहे जैन साहित्य के मुद्रित एवं हस्तलिखित ग्रंथों में अन्तर्निहित विविध सूचनाओं का डाटा-बेस खड़ा किया जा रहा है, जिसके अन्तर्गत किसी भी कृति, विद्वान, हस्तप्रत, प्रकाशन, पुस्तक आदि की सूक्ष्मातिसूक्ष्म विस्तृत सूचनाएँ खास तौर पर विकसित प्रोग्राम के द्वारा कम्प्यूटर पर प्रविष्ट की जाती हैं. कृति से सम्बन्धित सूचनाओं में उसके नाम, अन्य नाम, आदिवाक्य, अन्तवाक्य, परिमाण, कृति परिवार, भाषा, एकाधिक कर्ता- अन्य प्रचलित नामों के साथ ही कृति से सम्बन्धित हस्तप्रत एवं प्रकाशनों की विस्तृत जानकारी प्राप्त हो सकती है. विद्वान से सम्बन्धित सूचनाओं में उनके प्रचलित अन्य नाम, उनकी गुरु-शिष्य व समुदाय परम्परा, समय, उनके द्वारा रचित कृतियाँ, विद्वान के नामोल्लेख वाली हस्तप्रतों आदि के विषय में सूचनाएँ तथा संपादित प्रकाशन आदि उपलब्ध हो सकते हैं. For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २० www.kobatirth.org श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ हस्तप्रत से सम्बन्धित सूचनाओं में ग्रंथनाम प्रतिलेखन वर्ष, प्रतिलेखन स्थल, प्रतिलेखक, प्रतिलेखन का उद्देश्य, प्रतिलेखन पुष्पिका से ज्ञात होने वाला समसामयिक वृत्तान्त आदि के साथ ही हस्तप्रत की प्राचीनता तथा महत्ता आदि के विषय में विवरण प्राप्त किया जा सकता है. . प्रकाशन से सम्बन्धित सूचनाओं में प्रकाशन नाम, प्रकाशन में निहित कृति परिवार, खण्ड, भाग, आवृत्ति, प्रकाशक, प्रकाशन स्थल, प्रकाशन वर्ष, पृष्ठ संख्या, संपादक आदि सहित सम्बद्ध पुस्तकों से संलग्न सूचनाएँ जैसे पुस्तक संख्या, सामान्य परिग्रहणांक, मूल्य, देय, अदेय, दशा, प्राप्तिस्रोत, प्राप्तितिथि, पुस्तक के वाचकों तथा इसके लेन देन का सम्पूर्ण विवरण उपलब्ध होता है. यदि प्रकाशन नाम ज्ञात न हो तो भी इसकी १२५ प्रकार के सम्भवित लाक्षणिकता सूचक शब्दों के आधार पर शोध सम्भव है. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपर्युक्त उद्देश्यों की परिपूर्ति के लिए संस्था में संग्रहित सभी हस्तलिखित ग्रंथों तथा मुद्रित प्रकाशनों, पत्र-पत्रिकाओं, डिजीटल वाचन सामग्री आदि सरलता से वाचकों की उपयोगितानुसार उपलब्ध कराया जा सके एतदर्थ इनकी विस्तृत व विशद सूक्ष्मतम जानकारियों को कम्प्यूटर पर प्रविष्ट किया जाता है. यह सूचना पद्धति अपने आप में अनोखी व देश में पहली बार यहीं पर विकसित की गई अनुपम व अद्वितीय है. ७४०९७ २५४७१ १२४८२७ १२९३३८ ४७५०३ ५८६३७ १०८२४८ इस प्रणाली के द्वारा वाचक को यदि ग्रन्थ के सम्बन्ध में अल्पतम सूचनाएँ ज्ञात हों तो शोध भी उनकी इच्छित विस्तृत सूचनाएँ सरलता से प्राप्त की जा सकती हैं. इस सूचना पद्धति का परम पूज्य साधु-भगवंतों, देशी-विदेशी विद्वानों तथा समग्र समाज ने भूरि-भूरि अनुमोदना की है. इस विशेष परियोजना के तहत गत वर्ष निम्नलिखित प्रमुख कार्य सम्पन्न हुए : १. ग्रंथालय के कम्प्यूटर प्रोग्राम में निम्नलिखित सूचनाओं के आधार पर कम्प्यूटर पर शोध संभव है : ८४५५८ हस्तप्रत ११७०७२ कृति आदिवाक्य अंतिमवाक्य कृतियाँ हस्तप्रतों में उपलब्ध कृतियाँ प्रकाशनों में उपलब्ध विद्वान नाम (कर्ता / व्यक्ति/संपादक/प्रतिलेखक आदि के रूप में) प्रकाशन पुस्तक प्रचलित अन्य नाम ग्रंथमाला नाम ४१५१७ १७४० ७१०७६ अध्याय १०३८८ प्रकाशनों के साथ ३२३८२ लाक्षणिकतासूचक शब्दों का संयोजन. २. ग्रंथालय के कम्प्यूटर प्रोग्राम में सूचनाओं का संपादन एवं प्रमाणीकरण : लायब्रेरी प्रोग्राम में पूर्व प्रविष्ट सूचनाओं का सुधार, निरंतर नवीन सुविधाओं को उपलब्ध किये जाने के कारण पूर्व प्रविष्ट सूचनाओं को अद्यतन करने हेतु इन सूचनाओं का संशोधन, संपादन एवं प्रमाणीकरण कार्य होता रहता है, जिसके अंतर्गत विविध फाईलों में अग्रलिखित कार्य किये गये : १४५६ कृति परिवारों की ५१३७ कृतिओं की सूचनाएँ उनके साथ जुड़े हर प्रत व प्रकाशन के साथ मिलान कर गहराई से छान-बीन करके प्रमाणित की गईं. अपने आप में यह For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org २१ श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ अपने ढंग का पहला व चुनौतीपूर्ण संशोधनात्मक कार्य है. वर्तमान में जैन कृतियों पर यह कार्य चल रहा है. ११२६३ प्रकाशनों की सूचनाएँ प्रमाणित की गईं. १५५३२ पुस्तकों की सूचनाएँ प्रमाणित की गईं. १९६९६ हस्तप्रतों के कति-लिंक प्रमाणित किया गया. १६२८२ प्रकाशनों के साथ कृति-लिंक प्रमाणित किया गया १९४६१ कृतिओं की सूचनाएँ संपादित की गईं. २३६१५ हस्तप्रतों की सूचनाएँ संपादित की गईं. ६३६४ विद्वान विषयक माहिती संपादित की गईं.. ३१०३ आदिवाक्यों का संपादन किया गया. २१४७ अंतिमवाक्यों का संपादन किया गया. ३. ग्रंथानुयोग (कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग) : उपर्युक्त वर्णित व संपन्न किये गए सभी कार्य संस्था में ही विकसित किये गये कम्प्यूटर आधारित विशेष लायब्रेरी प्रोग्राम के तहत होते हैं. विद्वानों को महत्तम सूचनाएँ शीघ्रातिशीघ्र प्राप्त हो सके, इसके लिए इस प्रोग्राम को नियमित रूप से उपयोगितानुसार अद्यतन करने हेतु अग्रलिखित कार्य किये गये : १. इस प्रोग्राम में कार्यरत पंडितों के द्वारा प्रविष्टि, संपादन, प्रमाणीकरण तथा वाचकों हेतु विविध सूचनाओं को सरलतम पद्धति से न्यूनतम समय में प्राप्त किया जा सके एतदर्थ नियमित सुधार तथा नवीन सुविधाएँ प्रदान करने का कार्य किया गया. २. वाचकों के द्वारा मांगी गई विशिष्ट प्रकार की सूचनायें कम्प्यूटर आधारित विशेष प्रोग्राम द्वारा उपलब्ध की गईं. ३. लायब्रेरी प्रोग्राम को विंडो बेस बनाने हेतु बाहरी एजेन्सी को कांट्रेक्ट दिया गया व संस्था के प्रोग्रामरों के साथ मिलकर यह कार्य किया जा रहा है. यथाशीघ्र यह कार्य पूर्ण हो जाने की संभावना है. ४. संस्था कुल २३ कम्प्यूटर, २ लैप टॉप, २ स्कैनर, १ डीसी २९० केमरा, ७ प्रिन्टर १ रिको प्रिन्टर कम कॉपियर मशीन से सज्ज है. ४. वेब-साईट डिजाईनिंग व इन्टरनेट सुविधाएँ : १. श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा तीर्थ का विस्तार से परिचय कराने वाली वेब-साईट की सामग्री तैयार कर इसे यहीं पर विकसित किया गया है. समय-समय पर इसे अपडेट भी किया जा रहा है. संस्था के साथ वाचक पत्र व्यवहार हेतु इ-मेल का उपयोग कर रहे हैं. २. पाइय सद्द महण्णवो शब्दकोश प्रायोगिक तौर पर इन्टरनेट पर उपलब्ध किया गया है. अर्धमागधी एवं शब्दरत्नमहोदधि कोश भी शीघ्र ही इंटरनेट पर उपलब्ध करा देने के प्रयास चल रहे हैं. ५. प्राकृत, संस्कृत शब्द कोश कम्प्यूटरीकरण प्रोजेक्ट : इस प्रोजेक्ट में जैन परंपरा के निम्नलिखित कोशों को कम्प्यूटरीकरण हेतु चयन किया गया है- (१) पाईअसद्दमहण्णवो- (प्राकृत, संस्कृत, हिंदी), (२) अर्धमागधी कोश ५ भागों में (प्राकृत, संस्कृत, गुजराती, हिंदी, अंग्रेजी), (३) शब्दरत्न महोदधि ३ भागों में (संस्कृत-गुजराती). प्रूफ की भूलें कम से कम हो इस हेतु खास तरह से विकसित For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ प्रोग्राम के तहत कम्प्यूटर पर इनकी डबल एन्ट्री करवाई जा रही है. १. पाइअसद्दमहण्णवो की सिंगल व डबल एन्ट्री हो चुकी है एवं प्रथम प्रूफ का कार्य चल रहा है. २. अर्धमागधी कोश के पांचो भागों की सिंगल एन्ट्री हो चुकी है एवं प्रथम चार भागों की डबल एन्ट्री ___ हो चुकी है, पांचवें भाग की डबल एन्ट्री चल रही है. ३. शब्दरत्न महोदधि की सिंगल एन्ट्री हो चुकी है एवं प्रथम भाग की डबल एन्ट्री हो रही है. ४. कम्प्यूटर पर प्रविष्टि के समय सामान्य टेक्स्ट के रूप में इनकी एन्ट्री करवाई जाती है तथा बाद में प्रोग्राम बनाकर इन्हें विविध तबक्कों में विविध प्रकार से सर्चेबल डाटा बेस में लिया जाता है. वर्तमान में तीनों ही कोशों को प्रायोगिक तौर पर प्राथमिक रूप से डाटा बेस में लिया गया है. पंडितों की सुविधा के लिए एवं शब्दकोश हस्तप्रत सूचीकरण प्रोग्राम में कम्प्यूटर पर भी उपलब्ध किया गया है. ५. इन तीनों के अतिरिक्त हस्तप्रत लेखन वर्ष एवं कृति के रचनावर्ष को बतानेवाले सांकेतिक शब्दों हेतु संख्यावाचक शब्द कोश को भी कम्प्यूटर पर उपलब्ध कर दिया गया है. यह कोश काफी उपयोगी सिद्ध हो रहा है. ६. प्रायोगिक तौर पर पाइअसहमहण्णवो को www.Kobatirth.org/dic/dic.asp वेब साईट पर भी रखा गया है. ५. अक्षर (प्राचीन लिपि) प्रोजेक्ट : प्राचीन लिपि को जानने व समझनेवाले बहुत कम विद्वान ही रह गये हैं. सदियों की संचित हस्तप्रत, ताडपत्र, ताम्रपत्र, भोजपत्र, वस्त्रपटादि अपनी श्रुत धरोहर को सुरक्षित रखने, उनकी महत्ता, उपयोगिता से अगली पीढ़ी को परिचित कराने हेतु अक्षर प्रोजेक्ट का कार्य चल रहा है. विद्वानों एवं अध्येताओं को प्राचीन हस्तलिखित साहित्य को पढ़ने में सुगमता रहे इस हेतु वि. सं. ९०० से वि.सं. २००० तक देवनागरी-खासकर प्राचीन जैनदेवनागरी लिपि के प्रत्येक अक्षर/जोडाक्षर में प्रत्येक शतक में क्या-क्या परिवर्तन आए और उनके कितने वैकल्पिक स्वरूप मिलते हैं, उनका संकलन करते हुए उनके चित्रों का कम्प्यूटर पर एक डेटाबेस में संग्रह किया गया है. गत चार बर्षों से यह कार्य यथानुकूल एक तरह से जॉब-वर्क के रूप में पंडितों द्वारा किया जा रहा हैं. ला. द. विद्यामंदिर के श्री लक्ष्मणभाई भोजक का भी इसमें सहयोग रहा है. वास्तव में तो कोबा तीर्थ एवं ला. द. भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर दोनों के संयुक्त प्रोजेक्ट के रूप में इसे देखा जा सकता है. यह कार्य दो भागों में विभाजित है. १. अक्षर संकलन : अप्रकाशित कृतियों के प्रकाशनार्थ लिपि विषयक दुरूहता को ध्यान में रखकर खासकर साधु-भगवन्त, शोधार्थियों हेतु इस कार्य के अन्तर्गत विक्रम संवत् की 10वीं से 20वीं सदी तक के विभिन्न हस्तलिखित ताडपत्रीय आदि शास्त्रग्रन्थों को स्केनिंग करके अपेक्षित मूलाक्षर, जोडाक्षर, मात्राएँ, विविध लाक्षणिक चिह्नों, विशेषताओं, अंकों/अक्षरांकों आदि का व्यापक पैमाने पर कम्प्यूटर प्रोग्राम के द्वारा तद्रूप में ही संचय किया गया है. कार्य अपने अन्तिम चरणों में है, मात्र थोडे से अवशिष्ट अक्षर लेने बाकी हैं एवं उन्हें अंतिमरूप से क्रमांकित करना बाकी है. चूंकि वर्तमान में हस्तप्रत सूचीकरण पर पूरा ध्यान केन्द्रित किया गया है अतः यह कार्य फिलहाल स्थगित है. २. परिचय लेखन : चयन का कार्य पूरा होते ही प्रत्येक अक्षर हेतु शतक अनुसार, उपलब्ध विकल्पों अनुसार एवं भ्रम होने के स्थानों पर परिचय लेखन का कार्य प्रारंभ होगा. इसके पूर्ण होने पर For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ इसे पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया जा सकेगा. ६. देश के प्रमुख ज्ञानभण्डारों की महत्वपूर्ण हस्तप्रतों के संकलित सूचीकरण हेतु पूज्य श्रुतस्थविर मुनिराज श्री जंबूविजयजी म.सा. का प्रोजेक्ट : १. पाटण, खंभात, लिंबडी, जेसलमेर, पूना आदि भंडारस्थ अत्यावश्यक महत्वपूर्ण जैन एवं जैनेतर ताडपत्रीय व कागज पर लिखी विशिष्ट प्राचीन हस्तप्रतों को पूज्य श्रुतस्थविर मुनिवर श्री जम्बूविजयजी म.सा. के निर्देशन के अन्तर्गत श्रीसंघ के अनुपम सहयोग से उपरोक्त भंडारों की अपेक्षित हस्तप्रतों की माइक्रोफिल्मिंग व जेरॉक्सिंग करायी गयी थी. २. इन भंडारों के विविध सूचीपत्रों का मिलान कर एक सम्मिलित सूचीपत्र तैयार करने का सौभाग्य आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर को प्राप्त हुआ. कार्य अपने आप में बिल्कुल ही दुरूहतम था, पर अशक्य नहीं. दो चरणों में संपन्न इस संकलित सूची के विविध ग्यारह प्रकार से प्रिंट लिए गए जो लगभग २२०० पृष्ठों में समाविष्ट हैं . इसके अलावा अन्य विकल्प से भी लगभग १३००० पृष्ठों के प्रिन्ट व जेरॉक्स पूज्यश्री को उपलब्ध कर दी गई है. यह कार्य पूर्ण करने में तीन वर्षों का समय लगा. ७. विविध प्रकार के कम्प्यूटर आधारित प्रोग्रामों का निर्माण : १. जैन विद्या में स्वशिक्षण के लिए नवीन प्रोग्राम विकसित करने की शृंखला में नवकार मन्त्र के गूढ़ रहस्यों व अर्थों को इस तरह सरलता एवं सहजता से समझाने के लिए कम्प्यूटर पर एक प्रोग्राम विकसित किया गया है, जिसके द्वारा कोई भी व्यक्ति बहुत ही कम समय में इसे समझ कर सीख सकता है. प्रकाशन के क्षेत्र में यहाँ नए आयाम प्रस्तुत किये गये हैं. २. डबल एन्ट्री नामक प्रोग्राम के तहत संस्कृत-प्राकृत आदि ग्रंथों की प्रूफ रीडिंग की जरूरत नहिवत् रह जाती है. ३. वर्ड इन्डेक्स प्रोग्राम में शब्द, गाथा, श्लोक आदि की अकारादि अनुक्रम के निर्माण की उलझनें स्वतः समाप्त हो जाती है और महीनों तक चलने वाला कार्य कुछ ही दिनों में हो जाता है. ४. जैन धार्मिक ट्रस्टों के हिसाब-किताब के लिए विशेष प्रकार से Financial Accounting Package तैयार किया गया है. जिससे शास्त्रानुसार देव-द्रव्य सहित सातों क्षेत्रों का हिसाब व्यवस्थित तौर पर रखा जा सकता है. ५. जैन संघ के एक मात्र सीमंधरस्वामी प्रत्यक्ष पंचांग का गणित पूर्ण शुद्धिपूर्वक करने का प्रोग्राम भी मुख्य तौर पर यहीं विकसित किया गया है. ८. आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी, आचार्य श्री भद्रगुप्तसूरिजी, आचार्य श्री पद्मसागरसरिजी आदि विरचित पुस्तकों का कम्प्यूटरीकरण, यथावश्यक प्रकाशन एवं उन्हें Web पर रखने का कार्य : १. पूज्य आचार्य श्रीमद् बुद्धि सागरसूरिजी की परमात्मा श्री महावीरस्वामी से सम्बन्धित पद्यमय रचनाओं का संकलन रूप आतम ते परमातमा परमातम ते वीर नामक प्रकाशन हेतु रचनाओं का चयन, प्रविष्टि, संपादन एवं प्रूफरीडिंग आदि कार्य विशेष तौर पर संपन्न हुआ. २. पूज्य आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वजी के प्रवचनों के निम्नलिखित प्रकाशनों की कम्प्यूटर प्रविष्टि तथा संपादन कार्य हुआ :- संवाद की खोज, प्रतिबोध, संशय सब दूर भये, पद्मपराग, हे नवकार महान, मित्ती मे सव्वभूएसु, मोक्ष मार्ग में बीस कदम, कर्मयोग (आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरि For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २४ www.kobatirth.org श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ कृत), गुरूवाणी, मैं भी एक कैदी हूँ, चिंतननी केडी, जीवननो अरुणोदय (भाग १) प्रेरणा, सुवास अने सौंदर्य, सद्भावना, पाथेय, आतम पाम्यो अजवाळु, हुं पण एक केदी छु, Awakening, Beyond Doubt, Golden steps to salvation आदि. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३. पूज्य साधुभगवंतों के निम्नलिखित प्रकाशनों की भी कम्पोजिंग यहाँ पर हुई : आनन्दघन पदसंग्रह भावार्थ- (आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरि कृत), पंचप्रतिक्रमणसूत्र - हिन्दी, अंग्रेजी सहित (सम्पादक - मुनि श्री निर्वाणसागरजी), दो प्रतिक्रमणसूत्र हिन्दी-अंग्रेजी अर्थ सहित (सम्पादकमुनि श्री निर्वाणसागरजी), वज्रकवच (उपाध्याय श्री धरणेंद्रसागरजी कृत), आतम ज्ञानी श्रमण कहावे, नंदीसूत्र (सम्पादक - मुनि श्री अक्षयचंद्रसागरजी) उपदेशमाला- हेयोपादेयाकथारहितटीका (सम्पादक- आचार्य श्री प्रद्युम्नसूरि) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, योगदीपक, परिशिष्ट पर्व, द्रव्यसप्ततिका, भगवतीसूत्र, जीवनदृष्टि (प्रवचनकार - आचार्य श्री पद्मसागरसूरिजी ), गौतम नाम जपो निश दिश (संकलन- पं. श्री धरणेंद्रसागरजी), स्वाध्यायसागर (संकलन- मुनिश्री हेमचंद्रसागरजी ) जिनशासन के समर्थ उन्नायक : आचार्य श्री पद्मसागरसूरि श्रुत सागर (कोबातीर्थ के मुखपत्र के १० अंक) आदि प्रकाशनों की कम्प्यूटर प्रविष्टि तथा प्रूफ रीडिंग आदि. अरुणोदय फाउण्डेशन के सीमंधरस्वामी प्रत्यक्ष पंचांग तथा कोबा डायजेस्ट आदि प्रकाशनों एवं अन्य सामग्रियों की एन्ट्री तथा प्रूफ रीडिंग की गईं. ३. पूज्य आचार्य श्री भद्रगुप्तसूरिजी रचित साहित्य अब तक विश्वकल्याण प्रकाशन ट्रस्ट, महेसाणा से प्रकाशित होता था, परंतु आचार्यश्री के कालधर्म के बाद अब उस संस्था की सारी प्रवृत्ति बंद हो जाने के कारण यह कार्य ज्ञानतीर्थ कोबा ने एक एग्रीमेंट के तहत ले लिया है. इनकी कुछ एक पुस्तकों की काफी मांग रहती है. उनका सारा स्टोक १२० प्रकाशनों की लगभग ४१३३३ पुस्तके कोबातीर्थ संचालित श्रुतसरिता में विक्रयार्थ लाये गये हैं. विश्वकल्याण प्रकाशन ट्रस्ट से प्रकाशित पुस्तकों के पुनर्मुद्रण का अधिकार अब आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर को प्राप्त हो गये हैं. अभी तक आचार्यश्री की ३१ प्रकाशनों की कम्प्यूटर प्रविष्टि हेतु कार्य हुआ है. प्रूफ रीडिंग बाकी है. (५) आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर की अहमदाबाद स्थित शाखा अहमदाबाद के विविध उपाश्रयों में स्थिरता कर रहे पूज्य साधु भगवंतों तथा श्रावकों की सुविधा हेतु अहमदाबाद के जैन बहुसंख्यक क्षेत्र पालडी विस्तार में १९ नवम्बर १९९९ को पूज्य आचार्यदेवेश श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. की शुभ प्रेरणा व आशीर्वाद से आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का शाखा ग्रंथालय विधिवत प्रारम्भ किया गया. यहाँ पर उपलब्ध साहित्य वाचकों को उपलब्ध करने के अतिरिक्त कोबा स्थित ग्रंथालय की पुस्तकें भी वाचकों को उनकी योग्यता के अनुसार नियमित रूप से मंगवा कर दी जा रही हैं. यहाँ पर संपन्न प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं : १. ३३९४ पुस्तकें ईश्यु की गई. २. ३१९१ पुस्तकें वापस आईं. ३. ९७ वाचक इस शहरशाखा के सदस्य हैं, जिनमें से ४७ नियमित वाचक हैं. ४. २१८९ पुस्तकें भेंट स्वरूप प्राप्त हुईं. ५. आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर द्वारा स्टाक चेकिंग की गईं. ७. ग्रंथालय संबंधी कार्यों के अतिरिक्त श्री महावीर जैन आराधना केंद्र, कोबा के अहमदाबाद में जनसंपर्क सम्बन्धी विविध कार्य इस शाखा के द्वारा किये जाते हैं. For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५ श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ ८. आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर की विविध परियोजनाओं की डाटा एन्ट्री का कार्य भी किया जाता है.... (६) संस्था की प्रकाशन प्रवृत्ति १. योगनिष्ठ आचार्य श्रीमदबुद्धिसागरसूरिजी द्वारा विरचित भगवान श्री महावीरस्वामी विषयक पद्य कृतिओं का संकलन आतम ते परमातमा परमातम ते वीर नामक प्रकाशन भगवान महावीरस्वामी के २६००वें जन्मकल्याणक वर्ष में संपन्न हुआ. २. उपाध्याय श्री धरणेंद्रसागरजी म.सा. द्वारा संकलित गौतम नाम जपो निशदीश नामक ग्रंथ को संपादित कर प्रकाशित किया गया. ३. परम पूज्य आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. के आचार्य पद की रजतजयंति के उपलक्ष में जिन शासन के समर्थ उन्नायक आचार्य श्री पद्मसागरसूरि नामक ग्रन्थ प्रकाशित किया गया. ४. स्वाध्याय सागर ग्रंथ प्रकाशनाधीन है. ५. संस्था का मुखपत्र श्रुतसागर पत्रिका के १० अंक प्रकाशित किए गए. कलातीर्थ सम्राट संप्रति संग्रहालय प्रतिदिन कम से कम एक जिनालय की प्रतिष्ठा करवाए बिना आहार न ग्रहण करने वाले तथा असंख्य प्रतिमाओं के निर्माता सम्राट् सम्प्राते का स्मरण कराने वाला यह संग्रहालय जैन सांस्कृतिक एवं श्रुत परम्परा का रक्षक होने के साथ ही जैन व आर्य संस्कृति की झाँकी का दर्शन कराता है. भगवान महावीरस्वामी के आदर्श सिद्धान्तों का प्रचार प्रसार एवं जैन धर्म व संस्कृति के प्रति गौरव जागृत करने, जैन सांस्कृतिक धरोहर और कला संपदा का संरक्षण-संशोधन करने तथा इस हेतु लोक जागरण के उद्देश्य से यह संग्रहालय कार्य कर रहा है. संग्रहालय में प्राचीन एवं कलात्मक रत्न, पाषाण, धातु, काष्ठ, चन्दन एवं हाथी-दांत, सीप आदि में बनी कलाकृतियाँ विपुल प्रमाण में संग्रहीत की गईं हैं. इनके अलावा ताड़पत्र एवं कागज पर लिखी सचित्र हस्तप्रतें, प्राचीन चित्रपट्ट, विज्ञप्तिपत्र, गट्टाजी, प्राचीन लघुचित्र, सिक्के एवं अन्य परम्परागत चन्दन, सीप, हाथीदांत एवं चीनीमिट्टी की बनी कलाकृतियों का भी संग्रह किया गया है. इसके अतिरिक्त जैन श्रुत परम्परा से सम्बन्धित सामग्रियों में ब्राह्मी से देवनागरी लिपि तक के विकास, आलेखन माध्यम, आलेखन तकनीक एवं श्रुतसंरक्षण के नमूने प्रदर्शित किये गए हैं. इस संग्रहालय में विशेष रूप से जैन संस्कृति, इतिहास व कला का अपूर्व संगम किया गया है. कलाकृति संरक्षण प्रयोगशाला : कलाकृतियों की सुरक्षा एवं संरक्षण के लिए एक अद्यतन प्रयोगशाला भी कार्यरत है, जिसमें आवश्यकता होने पर कलाकृतियों तथा हस्तातों को वैज्ञानिक पद्धति से रासायनिक उपचार द्वारा सुरक्षित किया जाता है. विगत दशक में प्रमुख रूप से निम्निलिखित कार्य संपादित किये गए. १. संग्रहालय की आंतरिक साज-सज्जा में समय-समय पर अवसरोचित परिवर्तन व सुधार किया गया. नवीन शोकेस बनाए गए व अधिक संख्या में कलाकृतियाँ दर्शकों के अवलोकनार्थ प्रदर्शित की गईं. For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ २. संग्रहालय की विद्युत् प्रकाश व्यवस्था में यथासंभव सुधार किया गया. ३. श्रीमद् राजचंद्र आध्यात्मिक साधना केन्द्र की रजत जयंति के अवसर पर जैन संस्कृति विषयक प्रदर्शनी के आयोजन में सहयोग किया गया. ४. ज्ञानपंचमी तथा दीपावली के अवसरों पर संस्था में कलाकृतियों के विशेष प्रदर्शन तथा ज्ञानपूजन के आयोजन किये गये. ५. आचार्यपद रजत जयंति समारोह के प्रसंग पर संस्था में संग्रहित कलाकृतियों व परम पूज्य राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. के जीवन, कवन के विविध पहलुओं पर ज्ञान-दर्शन-चारित्र विषयक विशिष्ट प्रदर्शन आयोजित किया गया. ६. विश्वमैत्रीधाम, बोरीज तीर्थ की प्रतिष्ठा के अवसर पर आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर द्वारा जैन स्थापत्य व शिल्प विषयक विशेष प्रदर्शनी तथा रंगोली का आयोजन किया गया. ७. संस्था में संगृहित कलाकृतियों की डिजीटल फोटोग्राफी का कार्य लगभग पूर्ण हो गया है. ८. संगृहीत ऐतिहासिक कलाकृतियों का पुरातत्त्व विभाग में रजिस्ट्रेशन करवाया गया. ९. लगभग २,५०,००० दर्शकों ने अभी तक ज्ञानमंदिर का अवलोकन किया है. श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र के दर्शनार्थियों की अब तक की संख्या लगभग १० लाख से ज्यादा होगी. १०. देश-विदेश से उच्च अध्ययन हेतु विद्वान, संशोधक, छात्र हजारों की संख्या में यहाँ पर आते हैं, जिन्हें आवश्यकतानुसार मार्गदर्शन कर संतुष्ट किया जाता है. ज्ञानतीर्थ के सम्बन्ध में गुरुभगवंतों एवं विद्वानों के अभिप्राय औसत से ज्यादा अतिथियों तथा ज्ञानमंदिर का अध्ययनार्थ उपयोग करने वाले सुधीजनों ने सदैव __ यहाँ की प्रवृतियों की भूरि-भूरि प्रशंसा की है जो यहाँ के विकास के लिये प्रेरक सिद्ध हुई है. "સમ્યગુ જ્ઞાનનાં સંરક્ષણ-સંવર્ધન-સંપાદનનું કાર્ય વૈજ્ઞાનિક પદ્ધતિથી સુંદર રીતે થઈ રહ્યું છે. તે પ્રત્યક્ષ નિહાળ્યું, ખુબ આનંદ થયો. શ્રી મહાવીર જૈન આરાધના કેન્દ્ર પોતાનાં ગંતવ્ય તરફ ઉત્તરોત્તર અગ્રેસર બને अंवी शुलछ। स माशी..." - वियरामसूरिन धर्ममा "વિશ્વભરમાં અદ્વિતીય સુંદર જે જ્ઞાનમંદિર... વિગેરે સમ્યગુ દર્શનને સમ્યગુ જ્ઞાનના કારણભૂત કાર્યની २-२ अनुमान." -આચાર્ય શ્રીમેરૂપ્રભસૂરિ "સંસ્થાના જ્ઞાનમંદિરના શિલાસ્થાપન પ્રસંગે રહેવાનું થયું. જ્ઞાનમંદિરના નિર્માણ કાર્યની દીર્ધદષ્ટિ જો એ મુજ બ કાર્યરત બની રહેશે તો વિજ્ઞાન અને ધર્મ બંનેની સાપેક્ષતાનો અનુભવ કરી શકાય તેવી શક્યતા છે. ઉત્સાહી કાર્યકરો પૂરેપૂરા સમર્પિત તો છે જ પણ જ્ઞાનમંદિરનું નિર્માણ કાર્ય પૂર્ણ થતા તેને ચેતનવન્ત બનાવવા અથાગ પ્રયત્નની જરૂરિયાત આવશ્યક બની રહેશે. શાસનદેવને પ્રાર્થના છે સર્વને પ્રાચીન વિદ્યાનું એક 'प्रति नायव सहाय ४३." -આચાર્ય શ્રીચન્દ્રોદયસૂરિ "અહિનું પરિસર ઘણું જ સુંદર ને રમણીય છે. તેમજ સમ્યગુ દર્શનને, જ્ઞાનની પ્રાપ્તિને અને ચારિત્રની આરાધનાને અનુકૂળ છે. આ સ્થળ વધુને વધુ વિકસિત થાય એવી શુભેચ્છા. -આચાર્યશ્રી વિજયસૂર્યોદયસૂરિ For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ २७ "આજે શ્રી મહાવીર જૈન આરાધના કેન્દ્ર, કોબા ખાતે શ્રમણ ભગવાન શ્રી મહાવીર પરમાત્માના પરમ આહલાદક શ્રી જિનબિંબના દર્શન કરી અમે પાવન થયા. મંદિર અને મૂર્તિ સુંદર ભાવોત્પાદક છે. જ્ઞાનમંદિરના જ્ઞાનભંડારની વ્યવસ્થા પણ જોઈ સમ્યગુ દર્શનની નિર્મળતા અને સમ્યગુ જ્ઞાનની પ્રાપ્તિ માટેના સુંદર આલંબનનો સદુપયોગ કરી પુણ્યાત્મા સમ્યગુ ચારિત્ર્યને પામી પોતાના મોક્ષને નિકટ બનાવે અને આવા કાર્યોમાં શ્રાવકોજ જૈન શાસનની મર્યાદા મુજબ સઘળું કાર્ય કરે એજ એક શુભાભિલાષા. -આચાર્ય વિજયમહોદયસૂરિ "આચાર્ય શ્રી કેલાસસાગરસૂરિ જ્ઞાનમંદિરની વિશિષ્ટ રચના અને એની પાછળની આચાર્ય શ્રી પદ્મસાગરસૂરીશ્વરજી મ. સા. તથા તેઓના વિદ્વાન અને કલ્પનાશીલ શિષ્યોની દોરવણી જોતાં ખૂબજ પ્રસન્નતા અનુભવી, ખાસ કરીને જે નાગમો શાસ્ત્રો વિગેરે શ્રુતજ્ઞાનના પ્રાચીન-અર્વાચીન ગ્રંથો-પુસ્તકોનો સંગ્રહ એની જાળવણી વિગેરે ખુબ સુંદર છે." -આચાર્ય શ્રી સૂર્યોદયસૂરિ (આ. શ્રી ધર્મસૂરિ સમુદાય) ". ખરે-ખર રત્નત્રયીની સાધના માટે આ અનોખું-અનુપમ સ્થાન બન્યું છે. એની પૂર્ણતા જૈન સંઘને ગૌરવાન્વિત બનાવશે." -આચાર્ય મિત્રાનંદસૂરિ "પૂજ્ય વીરવિજયજી એ કહ્યું છે કે કલિકાલમાં જિનબિંબ અને જિ નાગમ બે જ ભવ્ય જીવોને આધારરૂપ છે. જિનબિંબથી પરમાત્માની ઉપાસના અને જિનાગરમોથી શ્રત ઉપાસના થાય છે. કોબાના આ મંગળ ધામમાં આ બન્ને વસ્તુ સાકાર થઈ છે. પરમાત્માની મનોહર મૂર્તિ સાધકોના હૃદયને પવિત્ર બનાવે છે. તો અહિનો વિશાળ શાસ્ત્ર-સંગ્રહ બુદ્ધિ ને વિકસિત બનાવે છે. બુદ્ધિ અને હૃદયનો સમકક્ષી વિકાસ જ્યાં થઈ શકે એવું આ મંગળ સ્થાન સૌને ઉન્નતિ પ્રેરક બની રહે એજ કલ્યાણ કામના." - -આચાર્ય કલાપૂર્ણસૂરિજી મ. સા. "પ્રભુશાસનના અણમોલ વારસાની આટલી સુંદર જાળવણી નિહાળતા મન પ્રસન્નતાથી તરબતર બની ગયું. આપણી પાસે આવો ભવ્ય વારસો છે. એ ખ્યાલે દિલ અહોભાવ સભર બની ગયું. આ વારસાની આટલી સુંદર જાળવણી થઈ રહી છે એ ખ્યાલે દિલ અનુમોદન સભર બની ગયું." -આચાર્ય વિજય રત્નસુંદરસૂરિ "पूर्व में पू. हेमचंद्राचार्य महाराजा ने अथक प्रयास करके जो साहित्य का सर्जन किया है तथा पू. आनंदघनजी एवं पू. यशोविजयजी आदि के मुख कमल से जो सरस्वती का प्रवाह निकला है, उस प्रवाह को आदि से अंत तक पहुँचाने के लक्ष्य से यह जो कार्य मुनिश्री अजयसागरजी ने किया है, बहुत ही अनुमोदनीय है. जिस लक्ष्य से महापुरुषों ने साहित्य सर्जन किया है उस लक्ष्य को सर्व जीव प्राप्त करे यही શુભેચ્છા" -प. प. आचार्य श्री विजय हेमप्रभसरिजी ___ "बहुत ही सुंदर है. म्यूजियम में प्राचीन कलाकृतियाँ बहुत ही यत्न से सहेजी गई हैं. यत्नकर्ता बहुत ही अभिवंदन व अभिनंदन के पात्र हैं." -વાર્ય ડૉશિવમુનિ (૨થાનકવાસી) "जैन संस्कृति व इतिहास की अमूल्य धरोहर देख, सुन और समझ कर अति प्रसन्न हुआ. इस कार्य के प्रयास में जिनका भी प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से सहयोग रहा उनके अथक परिश्रम की भूरि-भूरि अनुमोदना. एक दिन यह केन्द्र विश्वविख्यात होगा, ऐसा प्रतीत होता है." -मुनि विद्यानन्द विजय,(पंजाब केसरी गुरु वल्लभाचार्य समुदायवती) "आचार्य कैलासस नमंदिर का अवलोकन किया. आपका परिश्रम और ज्ञानमंदिर के लिये जो For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८ श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ समर्पण है, वह स्तुत्य है. निश्चित तौर पर यदि कोई ज्ञान का आराधक अपनी सम्पूर्ण लगन एवं निष्ठा के साथ ज्ञान की आराधना करे तो वह अपने जीवन को आमूल चूल ज्ञानमय बना सकता है. आराधना का यह कार्य सतत गतिशील रहे. यही भावना!" । -दिगम्बर आचार्य श्री पुष्पदंतसागरजी म.सा. शिष्य मुनि श्री प्रसन्नसागरजी म.सा. "श्रमण संस्कृति के अभ्युदय और विकास में ज्ञानमन्दिर के माध्यम से जो योगदान दिया जा रहा है वह अनुकरणीय एवं प्रशंसनीय है. ज्ञानमन्दिर के माध्यम से संस्कृति को जो संरक्षण मिल रहा है वह युग-युग तक अमर रहेगा. ऐसा मैं सोचता हूँ. सेवारत सभी कार्यकर्ता परे श्रम व समर्पण के साथ ज्ञानमन्दिर के प्रति समर्पित लगे. जिससे ज्ञानमन्दिर के समुज्ज्वल भविष्य की कल्पना सहज है." -मुनि प्रेमचंद [(प्रेममुनि) स्थानकवासी] "महीd is stथ छ , २६ २ छ, ते ४ निष्ठापूर्व, प्रेमपूर्व २६ २७... દરેકને ખૂબજ પ્રેરણા મળે તેવું કાર્ય થાય છે. ભારતભરની વિશાભરની લાઈબ્રેરીઓને માર્ગદર્શન મળે તેવું કાર્ય અને વ્યવસ્થા છે. લાયબ્રેરીનો પ્રોગ્રામ પણ અતિ પ્રશંસનીય છે. ભગવાન સ્વામિનારાયણ, પ્રમુખસ્વામી મહારાજ ને પ્રાર્થના કરીશું જેથી હજું પણ આ કાર્ય આગળ વધે, વિશ્વપ્રસિદ્ધિ થાય એવી અભ્યર્થના..." - સાધુ પ્રભુચરણદાસ, (શિષ્ય પૂજ્ય શ્રી પ્રમુખસ્વામી મહારાજ) "શ્રી મહાવીર જૈન આરાધના કેન્દ્રમાં પૂ. ગુરુજી એ મને સાથે આવીને પુસ્તકોનું સંગ્રહાલય, પૌરાણિક મુર્તિઓ, હસ્તલિખિત તાડપત્રો અને અનેક દુર્લભ વસ્તુઓ બતાવી. આ અદ્ભુત સંગ્રહાલય અને પુસ્તકાલય છે. મારા જ્ઞાનમાં આવી વસ્તુઓ હયાત હશે તેની કલ્પનાજ નહોતી. આ કાર્યને હું બિરદાવું છું. પૂ. ગુરુદેવે સમાજ માટે કરેલું આ કાર્ય અતિ વિરલ છે. " -કેશુભાઈ રા. પટેલ, પૂર્વ મુખ્ય મંત્રીશ્રી, ગુજરાત રાજ્ય "માત્ર જૈન ધર્મનાંજ નહી દેશ-વિદેશના તમામ ધર્મ-સંપ્રદાયની સાંસ્કૃતિક પરંપરાના દર્શન થયા. અહીનું મ્યુઝીયમ અને જ્ઞાનમંદિર તો ખરેખર અદ્ભુત અને અજોડ લાગ્યા. આપણી સંસ્કૃતિ-સંસ્કાર, પવિત્ર તીર્થસ્થાન મૂર્તિઓ વિ. ના દર્શનથી ખુબજ પ્રભાવિત થયા. આ કેન્દ્રની ઉત્તરોત્તર પ્રગતિ થાય તેવી હાર્દિક शुभ७८." -ईश्व२०15 31. Bu, घारासाम्य, मसाप, ४२रात "સાંભળ્યું છે કે જ્ઞાન વગર ભક્તિ આંધળી છે અને ભક્તિ વગર જ્ઞાન પાંગળું છે. ધર્મસ્થાન સાથે જ્ઞાનમંદિરનું સહ અસ્તિત્વ અહીં સાર્થક થાય છે. પ્રાચીન જૈન સાહિત્યનો ખજાનો અહીં સચવાયો છે, જળવાય છે અને અર્વાચીન ઉપકરણોના ઉપયોગથી વિસ્તાર પામે છે, તે સુખદ ઘટના છે. પણ સૌથી વધુ સ્મરણીય અને આનંદદાયક ઘટના તો આ પુસ્તકાલયના લીધેલા લાભ દરમ્યાન અહીંના સંન્નિષ્ઠ અને સેવાભાવી કાર્યકરોના મળેલા સ્નેહાળ સહકારની છે." -सिनी टोपीयाणा, अमहावाह ___"आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा के अवलोकन का यह अवसर जैन विद्या के क्षेत्र में कार्य करने वाले व्यक्ति के लिये तीर्थ यात्रा के समान सुखद होता है. भारत में जैन विद्या के क्षेत्र में कार्य करने वाली जो संस्थाएं हैं. उनमें यह अल्पकाल में ही शीर्षस्थ स्थान पर आ गई है. इस संस्था में पुस्तकों, हस्तप्रतों, कलाकृतियों आदि का जो संग्रह है, वह केवल संख्या में विशाल ही नहीं है, अपितु उच्च कोटि का भी है. संस्था की विशेषता यह है कि यह अत्याधुनिक सुविधाओं एवं तकनीक से युक्त है. जैन विद्या के क्षेत्र में शोध कार्य करने वाले विद्यार्थियों के लिये इस संस्था का योगदान महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगा." ___-डॉ. सागरमल जैन, निदेशक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ , वाराणसी "अत्यंत दर्शनीय एवं ज्ञान की साधना का केन्द्र है. जैन दर्शन एवं साहित्य के संरक्षण में बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह हो रहा है. " -लताबेन बोथरा, जैन भवन, कलकत्ता For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९ श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ "जैन साहित्य तथा अन्य साहित्य पर होने वाला केट लोग, अद्वितीय कार्य है! आशा करता हूँ, अन्य संस्थान भी सहयोग कर इसे राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान करेंगे." -डॉ. एम. आर. गेलरा, पूर्व उपकुलपति, लाडनूं "यह पुस्तकालय अद्भुत है. मैंने अपनी रिसर्च के दौरान अनेक पुस्तकालयों में जा कर काम किया लेकिन जैसी सुविधा तथा आतिथ्य यहाँ प्राप्त हुआ अन्य जगह नहीं. भविष्य में और भी अधिक उन्नति की कामना करती हूँ." -मंजू नाहटा, चित्रकार, विकास, १, लाउडन स्ट्रीट, कोलकाता "अतिसुंदर परिकल्पना है. आने वाली पीढ़ी को महत्वपूर्ण मदद मिल सकेगी. एक ही स्थान पर इतना ज्ञान एकत्र कर पाना एक महान उपलब्धि है. इसके अवलोकन से ही आचार्य श्री पद्मसागरसूरिजी के विराट व्यक्तित्व एवं दूरदर्शिता के दर्शन हो जाते हैं -संयम लोढा, विधायक, सिरोही राजस्थान "We were extremely pleased to be at Koba and look at its excellent facilities while are being developed." - Prof. M. A. Dhaky & Dr. U. S. Moorti, Alls, Gudgaon "It was a good occasion to visit the complex and I was very much impressed by the activities (academic as well as religious) carried here. The working of computer was astonishing and its multifarious fields of work was very useful for use this modern age". -Dr. K. R. Chandra, Ex- Head, Dept. of Prakrit. Gujarat University, Ahmedabad "One of the most systematically arranged library. Rich in contents. Staff is very efficient and ready to help. Students of Jainology in particular and of Indology in general must come to this library." -Prof. Dr. Dayanand Bhargawa, Ladnun "Precious Experience!" -Kazako Tsunematsu. Japan "Memorable monument! Pleasent place to visit. Impressed with the managment, library and sculputural activites going on." -Dr. Pravin Purohit, Agarkar Research Institute, Pune ! "Amazing collection and excellent upkeep of every thing. The heritage will be handed down for generations for which Jains and Indians will be extremely proud of and indebted to P.P. Guru Bhagvant Acharya Sri Padmasagarsuriji Saheb." -Samveg Lalbhai (M.D., Arvind Mills) & Hansa Niranjan Lalbhai, Ahemadabad "This is an absolutely marvelous institution. I am fascinated with the remarkable computer system, which is so good, it should be put on the Internet, in my opinion, I wish the director and his staff further success in future." -Dr. Peter Flugel 16 Elsinore Gardens, London NW2 ISS, UK "Jain mandir is in real sense an architect of knowledge. The manegment, we found, is worth and true in the Jain sprit". -Chandrakant Topiwala, Ahemadabad "This institute & building is exceptionally marvellous and something that the entire Jain community in the world can be proud off." -Vasant Sheth 128 Ave. Rd., Maple, ont. 16AIY2, Canada "Excellent pioneer work. For the new millenium - Jain Sasan has lot to offer and this istitution will be major contributor."-Rashmi & Kusum R. Shah, P.V. Est. California For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૩૦ श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ કોબાતીર્થ સંલગ્ન : આચાર્ય શ્રીમદ્ બુદ્ધિસાગરસૂરિજીની સાધનાસ્થલી : બોરી જતીર્થથી વિશ્વમૈત્રીધામ સુધીની યાત્રા મહાન જિનશાસન પ્રભાવક પ.પૂ. આચાર્યદેવ શ્રી પધસાગરસૂરીશ્વરજી મ.સા.ની પ્રેરણા અને માર્ગદર્શનથી શેઠ શ્રી નવીનચંદ્ર જગાભાઈ શાહ પરિવાર દ્વારા આ તીર્થનો કાયાકલ્પ તીર્થ-સલિલા સાબરમતી નદીના તટે વસેલું નાનકડું ગામ બોરીજ . તે કાળમાં ગામની આજુ બાજુની ઊંડી ભેંકાર કોતરોમાં જંગલી ભૂંડ વિગેરે હિંસક પ્રાણીઓ પુષ્કળ પ્રમાણમાં હતા. તે જ કોતરોમાં અવારનવાર લાંબા સમય સુધી રહીને આત્મ-૨મણતાના એક અલમસ્તયોગી નિર્ભયદશાની સાધના કરતા હતા. નામ એમનું યોગનિષ્ઠ આચાર્યદેવ શ્રી બુદ્ધિ સાગરસૂરીશ્વરજી. આ સિદ્ધ -સાધનાભૂમિના સૌથી ઊંચાઈવાળા ક્ષેત્રમાંનાં એક ખેતરમાંથી વિક્રમ સંવત ૧૯૮૧, ઈ.સ. ૧૯૨૪ના અરસામાં યુગો-યુગોથી ભંડારેલ પ્રભુ શ્રી વર્તમાન મહાવીર સ્વામી, શ્રી નેમિનાથપ્રભુ અને શ્રી પાર્શ્વનાથ પ્રભુની શુભ્ર ધવલ આરસ પહાણની ૧૭"ની ત્રણ પ્રતિમાઓ સાક્ષાત મહાનિધાનની જેમ ભૂમિના અભ્યદયનો જાણે સંકેત બની પ્રગટ થઈ. ખેડૂતનો આનંદનો પાર ન રહ્યો. એની પાસે જ આવેલા પ્રાચીન બાવન જિનાલયથી શોભતા પેથાપુર ગામના શ્રીસંઘને આમંત્રી ત્રણે પ્રતિમાજીની સાથે જ પવિત્ર બનેલી પોતાની વિશાળ ભૂમિ પણ સમર્પિત કરી જાણે પોતાની એકોતેર પેઢીને તારવાનું પુણ્ય એકઠું કરી લીધું. પોતાની યોગદષ્ટિનાં બળે બોરીજ, પેથાપુર આદિ ક્ષેત્રના આજુ બાજુની ભૂમિના અભ્યદયને સ્પષ્ટ નિર્દશનારા અધ્યાત્મ યોગી આચાર્ય શ્રીમદ્ બુદ્ધિસાગરસૂરિ મહારાજ ના સદુપદેશથી પેથાપુર શ્રીસંઘે એક સુંદર જિનાલયનું નિર્માણ કરીને પૂજ્યશ્રીની નિશ્રામાં મંગલ મહોત્સવ સાથે આ પ્રતિમાઓ અહીં જ પ્રતિષ્ઠિત કર્યા. સાધકોને એ પછી પણ તીર્થનાં મોટા અભ્યદયનાં સંકેત મળતા રહ્યા હતા. પેથાપુર, ઇંદ્રોડા વિગેરે આજુ બાજુના અનેક ગામો માટે બોરીજ એક તીર્થભૂમિ બની રહ્યું. પરમાત્મા મહાવીરના કલ્યાણકો અને અન્ય પર્વ દિવસોમાં દર્શન-પૂજન માટે અહીં માનવ મહેરામણ ઉભરાતું હતું. આ બાજુ થી વિહાર કરનારા પૂજ્ય સાધુ-સાધ્વીજી ભગવંતો અહીં ખાસ દર્શનાર્થે પધારી સ્થિરતા કરતા હતા. કાલચક્ર ફરતું રહ્યું, પેથાપુર વિગેરે ગામોમાંથી સ્થળાંતર કરી વસ્તી ખાલી થઈ રહી હતી. ઠીક એનાંથી ઉલટું તે જ દિવસોમાં ગુજરાત રાજ્યની નવી રાજધાનીના નિર્માણ માટે બોરીજ અને આજુ બાજુની ભૂમિ પસંદ કરવામાં આવી, જે આજે દુનિયા સમક્ષ હરિતનગર ગાંધીનગર તરીકે વિખ્યાત થઈ, જે સિદ્ધસાધકની કાળ જ યી વાણીને અક્ષરશઃ સત્ય ઉદ્ઘોષિત કરી રહ્યા છે. બોરી જતીર્થ બન્યું વિશ્વમેત્રીધામ: અનેક તીર્થોની હયાતી સાધકો અને નર શ્રેષ્ઠોના સુકૃતોથી ગૌરવવન્તી એવી ગરવી ગુર્જરધરાની નૂતન રાજધાનીની પરિસીમામાં સામેલ થઈ જતાં શ્રી બોરીજ તીર્થને જૈનત્વનાં ગૌરવને અનુરૂપ વિકસિત કરવા માટે વિ. સં. ૨૦૪૬ ઈ. સ. ૧૯૯૦માં શ્રી પેથાપુર સંઘે આ તીર્થ પૂજ્ય આચાર્યદેવ શ્રી પધસાગરસુરીશ્વરજીના માર્ગદર્શન મુજબ શ્રી મહાવીર જૈન આરાધના કેન્દ્ર- કોબાતીર્થને સમર્પિત કરી દીધું. તે સમયથી જ આ તીર્થ વિકાસનાં પંથે એક-એક કરી ડગલા ભરવા માંડ્યું અને વિશ્વના જીવમાત્ર માટે મૈત્રીનાં ધામ એવા પ્રભુ શ્રી વર્લ્ડ માનસ્વામીનાં આ તીર્થને પૂજ્ય આચાર્યશ્રીની ભાવના મુજબ વિશ્વમૈત્રીધામ ના રૂપમાં વિકસિત કરવામાં આવ્યું. વિ.સં.૨૦૫૩ (ઈ.સ. ૧૯૯૬)માં નેપાળની રાજધાની કઠમંડુમાં સેકડાં વર્ષો પછી થયેલ સર્વપ્રથમ પ્રતિષ્ઠાના અવસરે પૂજ્ય ગુરૂ દેવશ્રીની આ તીર્થના વિકાસની ભાવના શ્રી મુકેશભાઈ નવીનચન્દ્ર શાહના ધ્યાનમાં આવી. આ ભાવના ટુંક સમયમાં પરમ ગુરૂ ભક્ત નવીનચન્દ્ર જગાભાઈ શાહ પરિવારનો એક સંકલ્પ બની ગઈ કે પૂજ્ય માતુશ્રી ધનલમીબેનના આત્મકલ્યાણનાં અર્થે વિશ્વમૈત્રીધામ - શ્રી બોરીજતીર્થનો એ રીતે For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ ३१ ઉદ્ધાર અને વિકાસ કરવો કે તે હજા૨ો વર્ષો સુધી જૈનત્વની ગૌરવગાથાનો જયનાદ આખા જગતમાં કર્યા કરે . ભગીરથ કાર્યનો શુભારંભ થયો. વર્ષો સુધી અનેક લોકોનો અને ખાસ ક૨ી શ્રી નવીનચંદ્ર જગાભાઈ શાહ પરિવારના દરેક સભ્યોનો અથાગ પરિશ્રમ રંગ લાવ્યો. વિઘ્નો ધણાં આવ્યાં પણ દેવ-ગુરૂ-ધર્મ પસાયે એકેય ન ટકી શક્યો. અશક્ય જણાતા કાર્યો પણ જાણે સહજમાં થવા માંડ્યા. જિનાલય બન્યું મહાલય : ભારતના વિખ્યાત સોમપુરા શ્રી ચન્દુભાઈ ત્રિવેદીએ વિ.સં. ૨૦૫૪ (ઈ.સં. ૧૯૯૭)માં ભવ્ય ઉત્તુંગ દેરાસરનું સર્જન પ્રથમ પોતાની ચિત્તભૂમિમાં કલ્પના અને શિલ્પશાસ્ત્ર બોધના પત્થર-ચૂના વડે કરી પછી એને કાગળ પર નક્શારૂપે અંકિત કર્યું. આ કાર્યમાં પાછળથી જોડાઈને પણ શ્રી શાંતિભાઈ સોમપુરાએ ખૂબજ સક્રિય યોગદાન આપ્યું. સેકડો શ્રેષ્ઠ શિલ્પીઓએ દિવસ-૨ાત ખૂન-પસીનો એક કરી એક-એક પાષાણને સુંદર કલા-કારીગિરી યુક્ત ઘડીને જોડ્યા. સમૂહનો પરિશ્રમ સફળ થયો છે. આકાશને ચૂમતું બંસી-પહાડપુરના એક સરખા આછાં ગુલાબી પત્થરોની પ્રભા ચોમેર ફેલાવતું આ મંદિર આજે જિનશાસનની પતાકા આકાશમાં ફરકાવી રહ્યું છે. પંચ પરમેષ્ઠિના ૧૦૮ ગુણોના પ્રતિક સ્વરૂપ બે પ્રાસાદપુત્ર શિખરોથી યુક્ત આ મંદિર ૧૦૮ ફૂટ ઉંચું છે. લંબાઈ ૨૪૫ ફૂટ અને પહોળાઈ ૨૦૧ ફૂટ છે. જગતીની લંબાઈ ૨૯૦ ફૂટ અને પહોળાઈ ૨૦૮ ફૂટ છે. નાગરાદિ પ્રકારના આ જિનાયતનનું શિખર વીરવિક્રમ પ્રાસાદ શૈલીનું છે. ધ્વજ દંડની ઉંચાઈ ૨૧ ફૂટ ૧ ઇંચની છે. જ્યારે ઘંટડીઓનો મધુર ઘંટારવ ફેલાવતી પાટલી ૩'.૬", ૧'.૯", ૭"ની છે. મોટા દેહ૨ામાં આરાધ્યદેવ કાંઈ નાના અને સામાન્ય પ્રકારે બનેલા ન હોય. અતિશુદ્ધ ઠોસ પંચધાતુના મૂળનાયક શ્રી વર્લ્ડમાનસ્વામીની ઊંચાઈ ૮૧.૨૫" છે. પહોળાઈ ૬૪.૭૪" છે. ગાદીની પહોળાઈ ૧૦૦" ની છે. જ્યારે પરિકર આશરે બાર ફૂટનું છે. એનું કુલ વજન ૧૬ ટન જેટલું થાય છે. આ અત્યંત મનોહર જિનપ્રતિમાને એક જ વારમાં ઢાળીને પાલીતાણાનાં સુવિખ્યાત શ્રી અમૃતલાલ કાળીદાસ લુહાર પરિવારનાં શ્રી મનહ૨ભાઈ વિગેરે આ દુઃશક્ય કાર્યને સફળતા પૂર્વક પાર પાડ્યું છે . આ વીરાલયમાં મૂળનાયક સિવાય ૩૧"ના શ્રી આદીશ્વરજી, શ્રી સીમંધરસ્વામીજી, શ્રી શાંતિનાથજી, શ્રી વાસુપૂજ્યસ્વામીજી, શ્રી પાર્શ્વનાથજી, શ્રી મુનિસુવ્રતસ્વામીજી, ૨૭" શ્રી ગૌતમસ્વામીજી તથા શ્રી સુધર્માસ્વામીજીની મૂર્તિઓ પણ બિરાજમાન કરવામાં આવેલ છે. મૂળ જૂના મંદિરમાં બિરાજમાન યોગનિષ્ઠ શ્રીમદ્ બુદ્ધિસાગરસૂરિ મહારાજ દ્વારા પ્રતિષ્ઠિત મૂળનાયક શ્રી મહાવીરસ્વામી, શ્રી નેમિનાથજી અને શ્રી પાર્શ્વનાથજીની પ્રતિમાઓને ઉપરના મજલે બિરાજમાન ક૨વામાં આવેલ છે. સાથેજ પતાસાપોળ શ્રીસંઘના શ્રી વાસૂપૂજ્ય જૈન દેરાસરથી મળેલ શ્રી સંભવનાથજી અને શ્રી પાર્શ્વનાથજીની પ્રાચીન પ્રતિમાઓ પણ અહીં પ્રતિષ્ઠિત કરવામાં આવેલ છે. દેરાસરના આગળના ભાગમાં પગથીઆની બન્ને બાજુએ શાસન રક્ષક તપાગચ્છ અધિષ્ઠાયક શ્રી માણિભદ્રવીર તેમજ શાસનરક્ષિકા રાજરાજેશ્વરી દેવી શ્રી પદ્માવતીમાતાની ૪૧"ની પ્રતિમાઓ સ્વતંત્ર કુલિકાઓમાં બિરાજમાન કરવામાં આવી છે. ખાસ નોંધવા પાત્ર છે કે વિશ્વમૈત્રીધામમાં પ.પૂ. આચાર્યદેવ શ્રી પદ્મસાગરસૂરીશ્વરજી મ.સા.ની જન્મભૂમિ બંગાળ સ્થિત મુર્શિદાબાદ-મહિમાપુરની ધન્યધરા પર જગવિખ્યાત જગતશેઠશ્રી ફતેસિંહજી ગેલડા દ્વારા વિક્રમના ૧૮માં સૈકામાં નિર્માણ પામેલ જૈનસંઘની ઐતિહાસિક ધરોહ૨રૂપ કસોટીરત્નથી બનેલ કલાત્મક જિનમંદિર સ્વરૂપ દેવકુલિકાની પણ નિકટ ભવિષ્યમાં પુનઃસ્થાપના આ જ જિનાલયના તલગૃહ ભોંયરાના મધ્ય ખંડમાં કરી કસોટી મંદિર અને શ્રીમાન જગતશેઠની સ્મૃતિને ચિરસ્થાઈ ક૨વાની યોજના છે. *** *# For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३२ www.kobatirth.org प्रवचन - पराग " शिक्षा प्रणाली का आधार भारतीय होना चाहिए..." Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ -आचार्य पद्मसागरसूरि अनंत उपकारी जिनेश्वर परमात्मा ने सर्व जीवों के कल्याण हेतु देशना देकर सभी जीवों पर परम उपकार किया है. जिसमें जीवन के सभी प्रश्नों के उत्तर मिल जाते हैं. हमारी अज्ञानता के कारण मिथ्यात्व का पोषण होता है, यही कारण है कि बार-बार संसार में आवागमन होता है. अज्ञान दशा मिथ्यात्व का पोषण करती है. ज्ञान का मतलब आधुनिक डिग्रियाँ नहीं हैं, इनका कोई आध्यात्मिक मूल्य नहीं है. ज्ञान वह है जो जीवन को सही दिशा बतलाए. हमारे ज्ञान पर हमारे विवेक का अनुशासन होना चाहिए. स्वयं का परिचय करने के लिए जो बुद्धि मिली है, उसका दुरुपयोग कर हम हाईड्रोजन बम बनाने तक का अपराध कर चुके हैं. यह आत्मा के लिए कितना बड़ा अपराध है? ज्ञान पर विवेक का अभाव हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है. कषायों के पोषण का परिणाम यह है कि हमारा जीवन ज्योति की जगह ज्वाला बन रहा है. जहाँ हमें मोक्ष मिलना चाहिए, वहाँ हम बार-बार आवागमन के चक्कर में फँस रहे हैं. बुद्धि का यह घोर दुरुपयोग करना मूर्खता का लक्षण है. हमें ज्ञान के प्रकाश में जीवन का भविष्य देखना है. सम्यक् ज्ञान के प्रकाश में ही जीवन आगे बढ़ सकता है. स्वाध्याय का अर्थ है स्वयं को पढ़ना. ज्ञान के प्रकाश में हमें स्वाध्याय करना है, भविष्य में प्रवेश करने का मंगलद्वार मानव जीवन है. श्मशान यदि नगर के किनारे न होकर मध्य में होता तो रोज लोगों को मालूम पड़ता कि हमें भी किसी समय यहाँ लाया जाएगा. यह वैराग्य को पुष्ट करने के निमित्त बनता. मानव को स्वयं के गुणों को किस प्रकार पुष्ट करना है, यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए. परमात्मा महावीर ने कहा है कि जैसे-जैसे मानव को ज्ञान प्राप्त होता है, उसमें लघुता आती है और बाद में वह गुरुता को प्राप्त करता है. For Private and Personal Use Only ज्ञान की विकृति भविष्य में पशुता को प्राप्त कराती है. आज हमारी परंपराएँ बदल रही हैं और विकृति को प्राप्त हो रही हैं. लोगों में राष्ट्रीय भावना का अभाव, वेशभूषा, भाषा, शिष्टाचार और संस्कार सब कुछ बदल गया है. लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति का परिणाम यह है कि आज अंग्रेजों के भारत से जाने के बाद भी अंग्रेजीयत बरकार है. परिणामस्वरूप आध्यात्मिक दृष्टि से हम दिवालिया बन चुके हैं. इसके लिए हमें ज्ञान के प्रकाश में जगत् का अवलोकन करना है. ज्ञान के साथ क्रिया और क्रिया के साथ ज्ञान का समन्वय मोक्ष का साधन बनता है. आत्मा की गहराई से जब ज्ञान प्राप्त होता है तब उसमें पूर्णता होती है, अनंत ज्ञान का प्रवाह होता है, मन को अपूर्व संतोष प्राप्त होता है. ऐसे महापुरुषों के जीवन का एक अंश भी मनुष्य के जीवन में आ जाय तो जीवन सफल हो जाय. महावीर दर्शन में सत्य से परिपूर्ण वैज्ञानिक रहस्य मिलेगा. परमात्मा के मार्ग पर चलने वाले का अवश्य कल्याण होगा. इस कल्याण प्राप्ति के मार्ग के लिए भारतीय प्रणाली के अनुरूप हमारी शिक्षा होनी चाहिए, जो नैतिकता, सदाचार, राष्ट्रीयता और चारित्र के बीज मनुष्य के अन्दर कूट-कूट कर भर दे. मैकाले की शिक्षा हमारे किसी काम की नहीं, क्योंकि उसका इरादा ही हमें पतित करना था, हमें यदि पुनः भारतीय होने का अहसास करना है तो प्राचीन शिक्षा प्रणाली अपनानी होगी. साधु-संत संसार के चौराहे पर खड़े ट्राफिक पुलिसवाले... प्रवचन से परमात्मा बनने की प्रक्रिया प्रभु ने बतलाई है. परमात्मा महावीर तो करूणा के सागर थे, Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ ३३ वात्सल्य की मूर्ति थे, वे तो वीतराग हो चुके थे फिर भी उन्होंने प्रवचन दिया. जीवमात्र के दुःख से मुक्ति के लिए बड़ी करुणा से प्रवचन दिया. इस प्रवचन में दार्शनिकता, आत्मा का स्वरूप, षड्द्रव्य परिचय, लौकिक व्यवहार (जन्म से मृत्यु पर्यंत) आदि बहुत सारी बातें थी. उन्होंने जगत को सन्मार्ग दिखाया, निःस्वार्थ जीवमात्र के कल्याण हेतु आत्मा से परमात्मा बनने की प्रक्रिया में जीव का दायित्व है कि अपना नैतिक कर्तव्य समझें. अपने भीतर अपने मन में ही समस्याओं का समाधान होता है, किन्तु अक्सर हम उसे बाहर खोजते हैं. समुद्र के किनारे ठंडी हवा मिल सकती है, किन्तु यदि मोती चाहिए तो डुबकी लगानी ही पड़ेगी. परमात्मा के प्रवचन का आधार लिया जाय तो कोई संसार में डूब नहीं सकता. परिपूर्ण सत्य की प्राप्ति के लिए परमात्मा के वचनों का सहारा है. सत्य की प्राप्ति के लिए कुतर्क छोड़ना होगा. जीवन यहीं से प्रारम्भ होता है. साधु-संत संसार के चौराहे पर खड़े ट्राफिक पुलिस वाले जैसे हैं, जो सतत यह देखते रहते हैं कि जीव कहीं दुर्घटनाग्रस्त न जाय. परमात्मा श्री महावीर ने भी यही किया था. परमात्मा की इस परंपरा को हमें कायम रखना है. इस परंपरा को हमें अपने घर से, परिवार से प्रारम्भ करना है. धर्म की शुरुआत अपने घर से करनी है. सबसे पहले हमें यह देखना है कि हम अपने बच्चों के लिए कितना समय देते हैं. हमारा सर्वप्रथम कर्तव्य है कि बालक पूर्ण रूप से समाजोपयोगी, धार्मिक परंपराओं का रक्षक तथा हमारे चित्त को समाधि देने वाला बने. आज लोगों के पास समय नहीं है, फिर भी हमें यह करना है, क्योंकि बच्चों को उचित शिक्षा न देने के परिणाम हमें ही भोगने हैं, हर जीव अपने कर्म लेकर आता है. हमें अपने पूर्वजों का उपकार मानना चाहिए कि उन्होंने कितनी श्रेष्ठ परम्पराएँ हमें दी हैं, हम जो कुछ भी हैं उन्हीं की बदौलत . ऐसी विरासत अन्य देशों में नहीं मिलती. परमात्मा ने हमारे लिए जो कुछ कहा है वह हमारे आचरण से प्रगट होना चाहिए. इसके लिए हमें बहुत कुछ सहन करना पड़ सकता है. जहाँ परिवार की एकता हो और प्रेम का निवास हो वहाँ पर परमात्मा निवास करता है. ऐसे ही परिवार का कल्याण होता है. भौतिकता से घिरे वातावरण से निकलने के लिए चेतना आवश्यक है. हम कहाँ हैं, यह पता हो तो हम अपना भविष्य बना सकते हैं... हमें अपने धर्म, कुल, परिवार की उत्तमता का अहसास होना चाहिए. हमारा जीवन चलता-फिरता स्कूल होना चाहिए, जिससे हम दूसरों के लिए प्रेरणा, शिक्षा के आदर्श बनें. जो व्यक्ति धर्म के लिए वफादार होता है वह देश के लिए भी वफादार होता है. व्यक्ति की बाहरी समृद्धि बढ़ी है, किन्तु वह अंदर से दरिद्र हो चुका है. अंदर की शुद्धि के लिए मन को शुद्ध करना होगा. अपने अंतर को पवित्र करना होगा. व्यक्ति दुर्व्यसन छोड़ कर मात्र भक्ति का ही व्यसन कर ले, तो जीवन धर्ममय बन जाय. प्रजा का विनाश न हो इसी लिए परमात्मा ने आचार ग्रंथों की रचना की है. आज हमें उसके लिए चिन्तन करना आवश्यक है. जिसकी स्मृति में परमात्मा प्रतिष्ठित हो, उसे दुनिया में कोई परास्त नहीं कर सकता. श्रद्धा के अभाव में प्रतिक्रमण पूजा आदि से वीतरागता प्राप्त नहीं हो सकती. श्रद्धा से ही कल्पना साकार हो सकती है. इस वक्त यदि यह पता हो कि हम कहाँ हैं? तभी हम अपना भविष्य बना सकते हैं, अन्यथा हमारा उद्धार सम्भव नहीं. विश्वशान्ति का मूल मंत्र क्षमापना : कषायों से मुक्ति बिना मोक्ष संभव नहीं है विश्वशांति का मूल मंत्र क्षमापना है. इस विषय पर प्रवचन देते हुए महान श्रुतोद्धारक जैनाचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. ने श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा तीर्थ में कहा कि संसार की जेल में For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४ श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ कोई भी आत्मा मुक्त नहीं है. लेकिन जीवन-यात्रा में किस प्रकार व्यक्ति विराम करे. वह मार्ग अनन्त उपकारी जिनेश्वर परमात्मा ने अपने प्रवचन में कहा है. यह प्रवचन समुद्र है, बिन्दु मात्र भी ग्रहण कर हम पूर्णता प्राप्त कर सकते हैं. पर्युषणपर्व मित्र के रूप में आता है. यदि भावपूर्वक उसका स्मरण करें तो अमूल्य भेट देकर जाता है. परमात्मा के प्रवचन का मन में मन्थन किया जाय तो नवनीत निकलता है. हमें मृत्यु का विसर्जन करना चाहिए, इसके लिए रोज परमात्मा से जन्म, जरा व मृत्यु निवारण के लिए प्रार्थना करनी चाहिए. बार-बार जन्म का कारण है - कषाय. पर्वाधिराज पर्युषण पर हमें कषाय से मुक्ति का प्रयास करना चाहिए. हमें अपने कषायों के कारण ही दुःखमय संसार मिला. यहाँ पर क्षणमात्र का आनन्द दुःख का कारण बन जाता है. आचारांगसूत्र में कहा गया है कि "खणमिक्ख सुक्खा बहुकाल दुक्खा". हमें अपने अच्छे विचारों का भी विसर्जन कर देना चाहिए. क्योंकि आत्मकल्याण का मार्ग कषायों से मुक्ति है. मैत्री, क्षमापना जैन धर्म का प्राण है. हृदय निर्मल हो तो दुर्गंध नहीं आएगी. अन्तर भाव से यदि क्षमापना नहीं की तो नरक गति निश्चित है. क्षमापना में लघुता और विनय होना ही चाहिए. संवत्सरी उपवास के पारणा में सबसे पहले दूध पीते हैं. दूध से क्षमा मांगिए कि मैंने अपनी माँ तथा गौमाता का अनगिनत लीटर सफेद दूध पी गया, फिर भी अपना हृदय दूध जैसा उज्ज्वल नहीं बना सका. इसके बाद मिठाई से क्षमापना मांगते हुए कहें कि हम आज तक उसके जैसा माधुर्य प्राप्त नहीं कर सके. घी से क्षमापना मांगते हुए कहें कि उसके जैसा स्नेह स्वभाव आज तक नहीं बना सके. आँखों से प्रभुदर्शन किया नहीं, मात्र ये विकारी ही रहीं. जीभ ने नवकार का उच्चारण नहीं किया बल्कि कड़वे बोल ही बोले. हाथों ने परमात्मभक्ति, शुभकार्य, दान, अर्पणादि नहीं किये मात्र लूटने का काम और अपराध ही किये. इसी प्रकार पैरों से धर्म स्थानों की यात्रा नहीं की बल्कि इनका दुरुपयोग ही किया. इन सबसे क्षमापना कर के ही दूसरों से क्षमापना करने के लिए घर से बाहर निकलें. देखिये कितना सुन्दर आत्म-परिवर्तन होता है. कषाय आत्मा से जन्म लेता है और आत्मा को ही नुकसान पहुंचाता है. इसलिए कषायों से बचें और मुक्ति-मार्ग पर आगे बढ़ें. * हृदयमा दयालुता अने जीवनमा उदारताथी आत्माना वैभवनो विकास थाय छे. करुणाथी जीवन पवित्र बनशे अने प्राणीमात्र प्रत्ये मैत्री अने प्रेमभाव उत्पन्न थशे. * मननी पवित्रताना कारणे महान पुरुषना शब्द पण मंत्र बने छे. * परमात्मानी उपासना जीवननी वासनाने घटाडे छे. * अहिंसा, संयम अने तपनो त्रिवेणीसंगम ए ज धर्म छे. For Private and Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ 3 અદ્વિતીય જ્ઞાનતીર્થ ી જૈન અને આર્ય સભ્યતા તથા સંસ્કૃતિનું સંરક્ષણ કરતું ભારતનું એક અદ્વિતીય કેન્દ્ર. વિશ્વનો અતિ વિશાળ અને અદ્વિતીય જૈન જ્ઞાનભંડાર અને જ્ઞાનતીર્થ. જૈન ધર્મની પ્રાચીન હસ્તપ્રતો, મુદ્રિત પુસ્તકો તથા પત્ર-પત્રિકાઓનો સૌથી મોટો અને સમૃદ્ધ જ્ઞાનભંડાર. કપ્યુટર વિગેરે અત્યાધુનિક સુવિધાઓથી સંપૂર્ણ સજ્જ, સંયોજિત અને સુગઠિત કેન્દ્ર. સમગ્ર વર્ષ દરમ્યાન એક પણ રજા વિના ખુલ્લું રહે છે. અન્યત્ર અનુપલબ્ધ એવી અદ્વિતીય અને અદ્યતન વિસ્તૃત ગ્રંથાલય માહિતી વ્યવસ્થા. વિદ્વાનો, જિજ્ઞાસુઓ તથા વાચકો માટે સુવિધાઓ તથા સાધુ-સાધ્વીજીઓ માટે વિશેષ સુવિધાઓ. - જ્ઞાનમંદિરમાં આર્થિક સહયોગ માટેની યોજનાઓ - ૧. જ્ઞાનદ્રવ્ય ૩. જ્ઞાનમંદિર ગ્રંથ ખરીદ ખાતું ૫. હસ્તપ્રત સૂચીકરણ સાધારણ ખાતું ૭. ઝેરોક્ષ નિભાવ ખાતું ૨. જ્ઞાનમંદિર નિભાવ ખાતું ૪. સમ્રાટ સંપ્રતિ સંગ્રહાલય ખાતું ૬. હસ્તપ્રત સૂચીકરણ જ્ઞાનદ્ર વ્ય ખાતું ૮. કપ્યુટર નિભાવ ખાતું Unique Gyantirth An unique center that conserves the heritage of Jain and Aryan culture. World's largest and unique library of Jain Religion. Richest and largest repository of Jain old original manuscripts, publications and periodicals. Fully computerized, well organized and well maintained most modern center. Opened all days in a year except Samvatsari day. Self developed unique and unparraleled detailed cataloguing system. Facilities available for Sadhu-Sadhviji, scholars and readers : Schemes in which you may contribute your fund 1. Gyandravya 2. Gyanmandir Nibhav (Maintanence) Account 3. Gyanmandir Granth Kharid (Book-Purchasing) Account 4. Samrat Samprati Sangrahalay Account 5. Hastaprat (Manuscript) Cataloging Sadharan Account 6. Hastaprat (Manuscript) Cataloging Gyandravya Account 7. Zerox Nibhav (Maintenence) Account 8. Computer Nibhav (Maintenence) Account For Private and Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३६ www.kobatirth.org गांव तो चलने से ही आएगा, पूछने से नहीं Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ & आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी अनंत उपकारी अरिहंत परमात्मा ने मृत्यु के माध्यम से जीवन का परिचय दिया. जीवन नश्वर है, क्षणभंगूर है. अप्रमत्त अवस्था से हमें जीवन को संपूर्णतया जागृत करना है. मेक कई जगह पर चौकीदार के तरीके से कुत्ता रखा जाता है. कुत्ता एक वफादार प्राणी है. मालिक की रोटी खाता है और हमेशा मालिक की रक्षा करता है. अगर कोई चोर आ जाये तो भौंकना शुरु करता है, और भौंकता ही रहता है, जब तक मालिक जागे नहीं. हम साधु भी समाज के चौकीदार हैं. समाज से हमारा पोषण होता है. जीवन एक मकान है. इस मकान के मालिक आत्माराम सेठ हैं विषय विकारादि चोर जीवनरूपी मकान को लुटने के लिए आये हैं. इन चोरों से रक्षण करने के लिए प्रवचन के द्वारा हमें आत्माराम सेठ को जगाना है. अगर एक बार आत्माराम सेठ जागृत हो जाय तो फिर प्रवचन की कोई जरूरत नहीं. जागृत आत्मा स्वयं ही अपना रास्ता निकाल लेती है. . भगवान महावीर समाजवाद के एक महान पुरस्कर्ता थे. उनकी नजरों में किसी प्रकार का भेद भाव नहीं था. पापी हो या पुण्यशाली हो उनकी नजरों मे सब समान थे महावीर के समाजदाद में उच्चकोटी के लोगों को नीचे लाने का प्रयास नही था लेकिन नीचले स्तर के लोगों को उपर उठाने की भावना थी. उच्च स्तर के लोगों को नीचे लाने में समस्या खड़ी होगी और इस समस्या से संघर्ष का निर्माण होगा. प्रेम-भाव से प्रवचन का श्रवण हो जाय तो अंतरात्मा में पवित्रता आती है, अगर एक बार मन में पवित्रता आ जाय, तो फिर पूर्णता आने में देर नहीं लगती. ज्वालामय यह संसार ज्योतिर्मय बन जाऐगा. आपका जीवन ऐसा होना चाहिए कि उससे दूसरों को भी प्रेरणा मिले. साधु का जीवन सूपडे (सूप) जैसा होता है. सूपडे की विशेषता होती है सूपडा अनाज से कचरा बाहर फेंक देता है और अच्छे अनाज को अपने अंदर रखता है, साधु भी अपने जीवन से विकारों को बाहर फेंक देते हैं और आत्मा के गुणों को अपने अंदर रखते हैं तथा साधना के द्वारा उन गुणों का पोषण करते हैं. अगर आप विचार करेंगे तो आपको मालुम पडेगा कि आपका जीवन चालनी जैसा बन गया है. गुणों को आप बाहर फेंक रहे हो और दुर्गुणों का कचरा अन्दर भर रहे हो. भोजन से पेट भरता है लेकिन प्रोटीन से शक्ति प्राप्त होती है. दुर्विचार में जीवन की बरबादी है. दुर्विचार को छोड़ कर स्वयं में स्व को खोजने का प्रयास करो, पुरुषार्थ करो. आप को जगाने के लिये प्रवचन दिया जाता है. कभी कभी ऐसा कहा जाता है कि प्रवचन में पैसेदार को प्रथम स्थान दिया जाता है. ऐसा भेद-भाव क्यों किया जाता है ? किसी क्वालीफाईड डॉक्टर के यहाँ आप जाऐंगे तो लाईन में खड़ा रहना पड़ता है. एक के बाद एक पेशंट की जाँच की जाती है. अगर उस वक्त कोई सीरियस अस्वस्थ मरीज आ जाय तो क्या उसको लाईन में खड़ा किया जाता है? नहीं. उसे तुरंत अंदर लिया जाता है और तुरंत ईलाज शुरु कर दिया जाता है. यह उपाश्रय भी एक हॉस्पिटल है. यहाँ रहनेवाले निर्ग्रथ त्यागी साधु इस हॉस्पीटल के क्वालीफाईड डॉक्टर्स होते हैं. प्रवचन में आनेवाला श्रोता पेशंट होते हैं. श्रीमंत व्यक्ति सीरीयस मरीज होते हैं, उनको आगे बिठाया जाता है. और उनके ऊपर सख्त ध्यान दिया जाता है. For Private and Personal Use Only जागृति में अगर आप श्रवण करेंगे तो श्रवण से समाधि प्राप्त होगी. बहुत से व्यक्ति प्रवचन को आते है, लेकिन घर का कोटा यहाँ पूरा कर लेते हैं. घर में घर की अशांति में Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ ३७ नींद नहीं आती है तो यहाँ आराम से नींद लेते हैं. एक बार साधु महाराज प्रवचन देते थे और आसोजी नाम के एक श्रावक आगे बैठ कर आराम से नींद ले रहे थे. यह बात युवान साधु को अच्छी नहीं लगी. नींद एक प्रकार का प्रमाद है. साधु प्रमाद के दुश्मन होते हैं. साधु आसोजी से कहते हैं - "आसोजी, सोते हो या जागते हो?" आसोजी कहते हैं - "नहीं महाराज, जागता हूँ ध्यान से सुन रहा हूँ." थोडी देर के बाद आसोजी ने फिर समाधि लगा दी. साधु फिर आसोजी को कहते - "क्यों आसोजी, जागते हो?" आसोजी ने फिर वही जवाब दिया. थोड़ी देर के बाद फिर समाधि में चढ़ गये. अब साधु सोचते हैं कि अब आसोजी को बराबर क्रॉस में पकड़ना चाहिये. साध आसोजी को कहते- "क्यों आसोजी जीते हो?" आसोजी ने कहा, "नहीं नहीं महाराज" साधु कहे, "प्रवचन मुड़दों के लिए नहीं जीवित व्यक्ति के लिये होता है. जीवन को एक बार जागृत करो और जागृति में साधना करो जागृति में स्वयं की खोज करो. एक बार देवों की सभा में परमात्मा ने कहा-"मुझे ऐसी एकान्त जगह में ले चलो कि जहाँ मुझे आराम मिले. यहाँ इन्सानों ने तो मुझे हैरानकर रखा है. बार-बार मेरे पास आकर भिखारी की तरह मांगते रहते हैं." देवो ने सोचा परमात्मा को चंद्रलोक मे लिया जाय. परमात्माने कहा- "नहीं वहां मुझे शांति नहीं मिलेगी, क्योंकि आदमी अभी चंद्रलोक में भी जाने का प्रयास कर रहा है." देवो ने सोचा परमात्मा को हिमालय के उपर लिया जाय. परमात्मा ने कहा-"वहां भी तो तेनसिंग जैसे गिर्यारोहक आ जाएंगे." देवोने सोचा परमात्मा को पाताल में लिया जाय. परमात्मा ने कहा "ड्रीलींग कर के आदमी वहाँ भी आ जाऐगा." देवों ने विचार किया और कहा आप मानव के अंतर हृदय में जावो. परमात्मा ने कहा-"यह जगह तो बहुत सुरक्षित है." कहने का मतलब आदमी सुख को संसार मे खोज रहा है लेकिन उसको अपने अंतर-मन को देखने के लिए फुरसद ही नहीं है. आत्मा में परमात्मा है. परमात्मा बनने के लिए कौन सी प्रक्रिया है? प्रवचन से जीवन का परिचय होता है. जीवन पवित्र बनता है. पवित्रता से जीवन की पूर्णता साकार बनती है. प्रवचन से विचार जागृत होंगे, और विचार आचार को जागृत करेंगे. परमात्मा का मार्गदर्शन अपूर्व है. इस मार्गदर्शन से शैतान भी संत बनता है. पापी परमेश्वर बनता है. जैन साधु हमेशा प्रसन्न होते हैं. संपूर्णतः त्यागमय भूमिका में जीवन की आराधना करते हैं. वो तो सिर्फ स्नेह-प्रेम के भूखे होते हैं. आप के प्रेम ने हमे यहाँ खीच कर लाया है. आपका प्रेम चौदह केरेट का नहीं है चौबीस केरेट का है. मेरी अंतर कामना है कि प्रत्येक व्यक्ति का जीवन मंदिर बने. वीतराग की विचार धारा से जीवन में जागति आए. जागति में की हई आराधना से सफलता मिलेगी. वर्गहीनता, वादशून्यता यह जैन धर्म की विशिष्टता है. श्वेतांबर या दिगंबर इन शब्दों में परमात्मा नहीं है. कोई भी वाद या पक्ष या युक्ति प्रयुक्ति में मुक्ति नहीं हैं. काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ, माया, मान आदि कषायों से मुक्त होना ही मुक्ति है. यही सिद्धिपद है. धर्मग्रंथों से स्वयं का परिचय होता है. धर्म याने अंतःकरण की शुद्धता होती है. महावीर की दृष्टि सापेक्ष है. विविध पर्याय से सत्यता जानने की सापेक्ष दृष्टि महावीर ने बतलाई. सापेक्ष दृष्टि से संघर्ष मिट जाता है- समन्वय हो जाता है. महावीर ने कहा- "पदार्थ एक है लेकिन परिचय अनेक. For Private and Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 3८ श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ धर्मबिंदु ग्रंथ की रचना महान् जैनाचार्य श्रीमद् हरिभद्रसूरीश्वरजी ने की है. इसमें व्यवहारिक और अध्यात्मिक दृष्टि से संसार का और 'स्व' का परिचय दिया है. ___ आपको पेकिंग नहीं अन्दर का माल देखना चाहिए. बड़े मुल्ला बैंक के चोकीदार थे. एक दिन बेंक मेनेजर बाहर गाँव जा रहे थे. मेनेजर ने चौकीदार से कहा कि बेंक के ताले का ध्यान रखना. कोई भी ताला न तोड़े क्योंकि अंदर जोखम है. मुल्ला ने ताले का बराबर ध्यान रखा. चार दिन के बाद मेनेजर आये. __ ताला बराबर देख के होश उड़ गये. अंदर गये. तिजोरी खोल कर देखा तो माल गायब था. पिछली बाजु से व्हेंटीलेटर में से चोर अंदर आया था और चोरी कर के चला गया था. अपने जीवन की बात भी ऐसे ही हो रही है. पेंकिंग अच्छा और माल गायब. अंदर से आत्मा की नीतिमत्ता, प्रामाणिकता चली जा रही है. ऊपर से क्रिया दान तप-रूपी ताला कायम है. प्रेम से प्रवचन का श्रवण किया जाय तो श्रवण से पवित्रता आती है और ज्वालामय जीवन ज्योतिमय बन जाता है; और अंतिम, अनंत सुख का भोक्ता बन जाता है. जीवन में विचार के साथ आचरण होना चाहिये. आचरण से ही धर्म गतिमान बनता है. सिर्फ पढ़ने से या श्रवण करने से धर्म नहीं आएगा. विचारों को आचरण में लाना पड़ेगा. एक बार जेसलमेर की ओर हमारा विहार था. विहार लंबा लंबा था. गरमी का मौसम था. रास्ता रेतीला था. एक आदमी ने कहा- "मैं आपको शॉर्ट कट से ले चलूँगा" हम को प्रसन्नता हुई. सड़क कच्ची थी. रास्ते में कोई भी मील का पत्थर नहीं था. थोडी देर के बाद मैंने पूछा-"अभी कितने मील चलना है?" आदमी ने कहा- अभी २-३ कोस होगा. थोड़ी देरके बाद मैने फिर पूछा, "अभी कितना मील बाकी है?" आदमी ने कहा २-३ कोस होगा. बार-बार मैं पूछता और आदमी वही जवाब देता. मैंने आदमी से पूछा "हम चल रहे हैं या खडे हैं ?" आदमी तो बडा फिलॉसफर निकला. उसने कहा- महाराजजी आप बार-बार क्या पूछते हो? एक बार पूछो या पचास बार पूछो- गांव तो चलने से ही आयेगा, पूछने से नहीं. अगर हमे मोक्ष तक पहुंचना है तो चलने का प्रयास करना चाहिये. विचारो को आचरण में लाना चाहिये. सिर्फ जानने से या सुनने से कुछ नही होगा. * शीलनो सेवनार, तप करनार तथा भावना भवनार पोतानोज उदय करी शके छे, ज्यारे दान देनार स्वोपरनो उदय करी शके छे. * धर्म थाय एटलो करजो परन्तु ते करनाराओना मार्गमा अन्तरायरूपी कांटो तो कदी नांखशो नहि. * आशा अने तृष्णानी आग तो मनमा अशान्ति ज पेदा करशे. * धन सन्मार्गे वापरवाथी कदी खुटतुं नथी. * प्राणी मात्र साथे मैत्री तेज धर्म. For Private and Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ___३९ श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबातीर्थ का उदार दानदाताओं से नम्र निवेदन आपको विदित ही होगा कि राष्ट्रसंत आचार्यदेव श्रीपद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. की प्रेरणा से स्थापित श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र में स्थित आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर वर्तमानकाल के एक विशिष्ट एवं विलक्षण ज्ञानभंडार के रूप में ख्याति प्राप्त कर रहा है. इस ज्ञानभंडार में २,५०,००० से ज्यादा प्राचीन हस्तप्रतें संगृहीत हैं. इनमें ३००० से ज्यादा ताड़पत्रीय ग्रंथ भी है. ग्रंथालय में लगभग एक लाख दस हजार से ज्यादा मुद्रित पुस्तकें हैं. उल्लेखनीय है कि इन सभी ग्रंथों की सक्ष्मतम जानकारी खास विकसित की गई सूचीकरण प्रणाली के द्वारा दुनिया में सर्वप्रथम कम्प्यूटर में भरी जा रही है. इस कार्य को २५ कम्प्यूटरों के उपयोग से ८ पंडितों (जो कम्प्यूटर के उपयोग के लिये विशेष रूप से प्रशिक्षित किए गए हैं) एवं अन्य अनेक सह कर्मचारियों के सहयोग से किया जा रहा है. इसी कार्य को आगे चल कर बृहत् जैन साहित्य एवं साहित्यकार कोश के रूप में विकसित करने की योजना है. आपकी सुविधा के लिए ही इस परिश्रम के फलस्वरूप हस्तलिखित ग्रंथों के केटलॉग का प्रथम खण्ड प्रकाशित किया गया है. इसी के तहत जैसलमेर, पाटण, खंभात एवं लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अहमदाबाद ताडपत्रीय व अन्य विशिष्ट ग्रंथों की विस्तृत सूची कम्प्यूटर पर ली जा चुकी है (हमारे लिये __ गौरव का विषय है कि यहाँ उपलब्ध जैसलमेर भंडार संबंधी सूचनाओं का उपयोग पूज्य मुनिराज श्री जंबूविजयजी ने भी इस भंडार को व्यवस्थित करते समय एवं स्केनिंग के कार्य के समय किया था) एवं अन्य विशिष्ट भंडारों की सूची कम्प्यूटर पर लेने का कार्य क्रमशः जारी है. साथ ही अनेक भंडारों के विशिष्ट ग्रंथों की माइक्रो-फिल्म एवं जेरॉक्स प्रतियाँ भी एकत्र की गई है. इस कार्य के पूरा होते ही प्रायः समग्र उपलब्ध जैन साहित्य एवं साहित्यकारों की सूचनाएँ एक ही जगह से उपलब्ध हो सकेंगी. __ वैसे आज भी जैन साहित्य एवं साहित्यकारों के विषय में इस संस्था में जितनी सूचनाएँ उपलब्ध हैं, वे अन्यत्र कहीं भी नहीं हैं. चूँकि यह ज्ञानमंदिर जैनों की नगरी अहमदाबाद के एकदम समीप स्थित हैं, अतः पूज्य साधु-साध्वीजी म. सा., विद्वद्वर्ग एवं सामान्य श्रद्धालुजन भी इन सूचनाओं का महत्तम मात्रा में उपयोग कर रहे हैं. साथ ही यह प्रयास भी किया जा रहा है कि अधिकतम लोग यहाँ की सूचनाओं/सुविधाओं का उपयोग करें. अपनी इस प्राचीन धरोहर सुसंरक्षित करने का यह कार्य अत्यंत ही श्रमसाध्य है एवं इस कार्य के वर्षों तक जारी रहने की संभावना है. उदाहरण के लिए हस्तप्रत के अस्त-व्यस्त हो चुके बिखरे पन्नों वाले ग्रंथों के पत्रों का परस्पर मिलान करके उन्हें पुनः इकट्ठा करने का प्राथमिक कार्य ही पंडितों का बहुत सा समय एवं श्रम ले लेता है. इसके बाद संशुद्ध रूप से सूचीकरण हेतु हस्तप्रत संबद्ध लगभग आठ विविध प्रक्रियाएँ होती हैं. इतने विशाल पैमाने पर इस तरह का बहूपयोगी कार्य सर्वप्रथम हो रहा है. यह कार्य ज्यों-ज्यों आगे बढता जाएगा, त्यों-त्यों जैन साहित्य के संशोधन एवं अभ्यास के क्षेत्र में एक नए युग का उदय होता जाएगा. निःसंदेह यह भगीरथ कार्य समूचे श्रीसंघ एवं जैन समाज का अपना कार्य है. इसी से हमें अपने साहित्य की समृद्धि एवं अपने गौरवपूर्ण इतिहास का विशेष बोध होगा. श्रुत निधि की श्री जैन संघों में संरक्षित एवं संवर्धित करने की विश्व में अद्वितीय एवं गौरवपूर्ण मिसाल रही है. सम्राट् कुमारपाल महाराज एवं वस्तुपाल व तेजपाल आदि के इस दिशा में कार्य एवं योगदान को इतिहास कभी भुला नहीं सकेगा. समस्त श्रीसंघ, जैन समाज एवं आर्य संस्कृति के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण इस ज्ञानयज्ञ में शक्यतम अधिक से अधिक सहकार करने हेतु हम आप से आग्रहपूर्वक अनुरोध करते हैं. हमें For Private and Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४० श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि समस्त संघों एवं तीर्थों के ट्रस्टीगण श्रुतभक्ति के इस अद्वितीय कार्य में उदार मन से सहयोगी बनकर महत्तम धनराशि उपलब्ध करायेंगे. श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र अपने सभी सहयोगियों, दाताओं, शुभेच्छकों एवं यात्रियों का आभारी है. दाताओं के उदार सहयोग से इस जैन तीर्थ ने सफलता के कीर्तिमान स्थापित किये हैं. यहाँ पर विकास की अभी कई योजनाएं एवं कार्यक्रम आपके सहयोग की अपेक्षा रखते हैं. आप अपना बहुमूल्य सहयोग निम्न योजनाओं हेतु प्रदान कर सकते हैं : आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर में विविध स्थानों पर तक्ति में नाम हेतु १. आचार्य हरिभद्रसूरि कक्ष ३. पेथड शाह मन्त्री खण्ड ५. ठक्कर फेरु खण्ड ७. वाचक नागार्जुन कक्ष ९. आचार्य स्कंदिल कक्ष ११. श्राविका अनुपमा देवी कक्ष १३. सम्राट सम्प्रति संग्रहालय की प्रयोगशाला २. याकिनी महत्तरा कक्ष ४. जगत् शेठ खण्ड ६. विमल मन्त्री खण्ड ८.महाकवि धनपाल खण्ड १०. श्रेष्ठी धरणा शाह खण्ड १२. श्रावक ऋषभदास कक्ष १४. स्वागत कक्ष ज्ञानमंदिर की विविध प्रवृत्तियों हेतु १५. श्रुतरक्षक १७. श्रुतभक्त १९. श्रुत संवर्धन योजना १६. श्रुत प्रसार सहयोगी १८. हस्तप्रत मंजूषा सहयोगी २०. पुस्तक प्रकाशन उपर्युक्त योजनाओं हेतु आप अपने अधिकार क्षेत्र के ज्ञानद्रव्य अथवा व्यक्तिगत कोष में से यथायोग्य सहयोग देकर सुकृतानुभागी बनें. संस्था को दिया अनुदान आयकर अधिनियम की धारा ८० जी. के तहत आयकर से मुक्त है। * निवेदक प्रमुख श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा, गांधीनगर ३८२००९ फोन: (०७९) ३२७६२०४, ३२७६२०५, ३२७६२५२ फेक्स ९१-७९-३२७६२४९ website: www.kobatirth.org E_mail: gyanmandir@kobatirth.org For Private and Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૦ પદ્મસુધા ૦ પરમાત્માના દ્વારે જઇને આપણે યાચના કરવી જોઈએઃ મારે સંસારની સમૃદ્ધિ નથી જોઈતી, મારી કોઈ કામના નથી, દરિદ્રતા નથી. હુ ભિખારી બનીને તારા દ્વારે નથી આવ્યો, કોઈ પણ કામના લઇને તારી પાસે નથી આવ્યો. મારી એક જ ઇચ્છા છેઃ અભિલાષા છેઃ હે પ્રભુ મને સમાધિ મરણ દે. આ શક્તિ માત્ર તારી પાસે જ છે. ચિત્તની શુદ્ધતા અને સમાધિ તારી પાસે છે, તે મને પ્રદાન કરો. આવી અભિલાષા વ્યક્ત કરનાર પરમાત્મા પાસેથી કંઇક લઇને જ જાય છે. સંસારથી શૂન્ય બનીને પરમાત્મા પાસે આવશો તો પૂર્ણતાથી પરમાત્મા બનીને પાછા ફરશો. પરમાત્મા પાસે ભૂલોનો સ્વીકાર કરાનાર સ્વયં પરમાત્મા બનીને પાછા ફરે છે. સાધના દ્વારા પરમાત્માની ઝાંખી મળે છે. માનસિક ક્લેશથી પીડિત વ્યક્તિઓ માટે ધર્મ આશીર્વાદ રૂપ છે. વિકૃત મનથી ઉત્પન્ન થયેલ તનાવ-ટેન્શન સર્વ રોગોનું મૂળ કારણ છે. વાયુ, પિત્ત અને કફ એ ત્રણેય ધાતુઓને માનસિક તનાવ વિકૃત કરી દે છે. વ્યક્તિના સ્વભાવને આ વિકૃતિ બદલી નાંખે છે. તેને દૂર કરવાનો શ્રેષ્ઠ ઉપચાર આ ધર્મની આરાધના તપ જપ અને ધ્યાન દ્વારા બતાવેલ છે. મનની બિમારીઓને દૂર કરવા માટે બાહ્ય કોઈ સંપૂર્ણ સક્ષમ ઉપચાર સંસારમાં નથી માટે જ્ઞાનીઓએ કહ્યું છે કે મન દ્વારા જ તેનો ઉપય કરી શકાય છે. મનની બિમારીનો ઉપાય પણ મન દ્વારા જ શક્ય છે. મનને સાધીને મનની વિકૃતિઓ દૂર કરવાનું સામર્થ્ય ધર્મ આરાધનામાં રહેલું છે. જિનેશ્વર પરમાત્માના મંદિરો અને સાધનાના તીર્થધામ સમા ઉપાશ્રયો એ તો આધ્યાત્મિક હોસ્પિટલ ગણાય છે. જ્યાં ચિત્તની બિમારીયોને દૂર કરવાના ઉત્સવો ઉજવાય છે. દુરાચારીને સદાચારી બનાવાય છે. સંસારથી થાકેલા ઇન્સાનને ત્યાં પરમ શાન્તિ અને સમાધિ મળે છે. સાધુ અને સન્તો આ બિમારીઓને ઉપચાર કરવાવાળા સાચા અર્થમાં ડૉક્ટરો છે. For Private and Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir D आर्षवाणी 0 भगवान महावीर की भक्ति का एक तरीका यह भी हो सकता है कि हम उनके सिद्धांतों को पहले तो स्वयं अच्छी तरह समझे, हृदय पूर्वक स्वीकारें तथा सच्चाई व ईमानदारी के साथ उनका पालन करें. साथ ही अपने सामर्थ्यानुसार वीर प्रभु के इन विश्व मंगलकारी सिद्धांतों को अखिल विश्व के समस्त मानव समुदाय को समझाने का सामूहिक प्रयास सतत करें. विश्व समुदाय को बारूदी संस्कृति की ऑक्टोपसी पकड से रिहा करवाने का, उचित रास्ता इन्हीं सिद्धांतों से मिलेगा. 0 जो दुनिया में आपकी पहचान में आपकी पहचान बनाता है, वह है ज्ञान. जो कर्मों के मकड-जाल में उलझी आपकी आत्मा की आजादी सुनिश्चित करा दे, वह है ध्यान! तप एवं श्रेष्ठ ध्यान का सर्वोच्च P, इनाम है केवलज्ञान. * શ્રુતજ્ઞાનની આરાધનાનું ફળ ધર્મનો માર્ગ પ્રાપ્ત થાય. જગતના સ્વરૂપની વાસ્તવિક ઓળખાણ થાય. અનેક પ્રકારના દૃષ્ટિકોણો-બુદ્ધિ-જ્ઞાન વધતાં જાય. કોઈપણ સંયોગોમાં સ્વસ્થ રહી શકાય. સુખ-દુઃખની સાચી સમજ મળે. કર્મના રહસ્યોનો બોધ થાય. આધ્યાત્મિક સુખની ઝાંખી-પ્રાપ્તિ કરાવે. શંકા-કુશંકા દૂર કરાવે. જીવનમાં માણસાઈ અને સજ્જનતાની પ્રાપ્તિ થાય. ગુણોનાં વિકાસ માટેનો સાચો માર્ગ મળે.. હૈયામાં આરાધકભાવ ઉત્પન્ન કરાવે. ક્રિયાઓ ફળવંતી-ભાવવાહી બનાવે. અનંતર સમ્યગ્દર્શનની પ્રાપ્તિ દ્વારા સંયમની પ્રાપ્તિ કરાવે. પરલોકમાં જૈન ધર્મ મળે તેવા કુળાદીની પ્રાપ્તિ કરાવે. જ્ઞાનનો ક્ષયોપશમ વિશિષ્ટ થાય. | ઉત્તમ ગતિની પ્રાપ્તિ થાય. પરંપરાએ મોક્ષસુખની પ્રાપ્તિ કરાવે. Book Post/ Printed Matter सेवा में प्रेषक : संपादक, श्रुत सागर आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर 382 009 (INDIA) प्रकाशक : सचिव, श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा, गांधीनगर - 382 009 For Private and Personal Use Only