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श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९
३.४.२ गच्छ शाखा-प्रशाखा वंशवृक्ष : इसमें मुख्य गच्छनाम के अकारादि क्रम से उनमें से निकली
शाखा-प्रशाखाओं की सूचनाएँ वंशवृक्ष शैली में होंगी. ३.४.३ गच्छानुसार विद्वान माहिती : इसमें गच्छ माहिती व विद्वान माहिती संक्षेप में होगी व दोनों
___ ही अपने-अपने स्तर पर अकारादिक्रम युक्त होंगी. सूची प्रकाशन की यह एक संभवित रूपरेखा है. अनुभवों, उपयोगिता एवं व्यवहारिक मर्यादाओं के आधार पर इसमें यथासमय योग्य परिवर्तन भी किया जाएगा. कृति, विद्वान एवं गच्छ माहिती का सुसंकलन अपने आप में एक महाकार्य है. काफी जटिलताएँ हैं इसमें. पर्याप्त गवेषणाओं के लिए काफी श्रम, समय, सहायक सामग्री, धन व अनुभव की आवश्यकता रहेगी.
हस्तप्रत : एक परिचय प्राचीन लेखन शैली के दो रूप हैं- प्रथम अभिलेख रूप में और द्वितीय हस्तप्रत रूप में प्राचीन भारतीय साहित्य को आज हम जिस रूप में प्राप्त करते हैं, उनका आधार हस्तप्रत है. शास्त्र की हस्तलिखित नकल होने के कारण यह हस्तप्रत कहलाई. इसे पाण्डुलिपि भी कहा गया है. मूल प्रति कालक्रम से नष्ट होती जाती थी तथा इसकी कई प्रतियाँ तैयार होती जाती थी. प्रतिलिपि से प्रत शब्द लिया गया ज्ञात होता है. प्राचीन संस्कृति को जानने के लिए हस्तप्रतों का विशिष्ट महत्व है, क्योंकि मात्र पुरातत्वीय साक्ष्यों के आधार पर इतिहास का निर्माण नहीं हो सकता. इतिहास की पुष्टि के लिए साहित्य अनिवार्य बनता है. प्राचीन काल में ज्ञानभंडारों में हस्तलिखित साहित्य ही होते थे. देश में हस्तप्रत लेखन के कई केन्द्र थे. इन केन्द्रों (लेखनस्थलों) के आधार पर अध्ययन करने पर भिन्न-भिन्न वाचना वाली प्रतों के समूह (कुलों) का ज्ञान होता है तथा समीक्षित आवृत्ति के प्रकाशन में इनका बड़ा महत्व होता है. ___ हस्तप्रतें मुख्य रूप से ताड़पत्र, कागज, भोजपत्र, अगरपत्र एवं वस्त्र पर लिखी गई हैं. इनका लेखन मंगलसूचक शब्दों, संकेतों से प्रारम्भ करके इन्हीं शब्दों व संकेतों से पूर्ण किया जाता है. हस्तप्रत के प्रकार १. आंतरिक प्रकार :- यह हस्तलिखित प्रति के रूपविधान का प्रकार है. इसके अंतर्गत लेखन की पद्धति
आती है, जिसे एक पाट (एकपाठ), द्विपाट (द्विपाठ), त्रिपाट (त्रिपाठ), पंचपाट (पंचपाठ) शुड (शूढ). चित्रपुस्तक, सुवर्णाक्षरी, रौप्याक्षरी, सूक्ष्माक्षरी व स्थूलाक्षरी आदि कहते हैं. ग्रंथों के ये भेद कागज पर हस्तप्रत लेखन परम्परा प्रारम्भ होने के बाद विशेष विकसित हए लगते हैं. इन प्रकारों के आधार पर लहिया (प्रतिलेखक) की रूचि, दक्षता आदि का परिचय होता है. ऐसी प्रतों का बाह्य स्वरूप सामान्य
होने के बावजूद अंदर के पत्र देखने पर ही इनकी विशिष्टता का बोध होता है. २. बाह्य प्रकार :- प्राचीन हस्तलिखित प्रतें प्रायः लम्बी, पतली पट्टी के ताड़पत्र पर मिलती हैं. इनके मध्य भाग में एक छिद्र तथा कई बार उचित दूरी पर दो छिद्र मिलते हैं. ताडपत्रों पर स्याही से व कुरेद कर दो प्रकार से प्रतें लिखी मिलती हैं. कुरेद कर लिखने की प्रथा उड़ीसा, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, केरल व कर्णाटक के प्रदेशों में रही एवं शेष भारत में स्याही से ही लिखने की प्रथा रही. कागज के प्रयोग के प्रारंभ के बाद इन्हीं ताड़पत्रों को आदर्श मानकर कागज की प्रतें भी प्रारंभ में बड़े-बड़े लंबे पत्रों पर लिखी गईं. इन ताडपत्रीय प्रतों की लंबाई-चौड़ाई के आधार पर जैन भाष्यकारों, चूर्णिकारों तथा टीकाकारों ने प्रतों के पांच प्रकार बताये हैं
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