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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९ (१) गंडी, (२) कच्छपी (३) मुष्टि (४) संपुटफलक (५) छेदपाटी १. गंडी- प्रत की लंबाई और चौड़ाई एक समान हो उसे गंडी कहा जाता है. २. कच्छपी- दोनों किनारों पर सँकरी तथा बीच में फैली हुई कछुए के आकार की प्रत को कच्छपी प्रत कहा जाता है. ३. मुष्टि- जो प्रत मुट्ठी में आ जाय इतनी छोटी हो उसे मुष्टि प्रकार की प्रत कहते हैं. ४. संपुट फलक- लकड़ी की पाटियों पर लिखी प्रत संपुटफलक के नाम से जानी जाती है. ५. छेदपाटी (छिवाडी) - प्राकृत शब्द छिवाडी का संस्कृत रूप छेदपाटी है. इस प्रकार की प्रतों में पत्रों की संख्या कम होने से प्रति की मोटाई कम होती है लेकिन लंबाई-चौड़ाई पर्याप्त प्रमाण में होती है. उपर्युक्त पाँच प्रकारों के अतिरिक्त कागज व वस्त्र पर फरमान की तरह गोल कुंडली प्रकार से लिखे ग्रंथ भी मिलते हैं जिन्हें अंग्रेजी भाषा में scroll कहते हैं. यह २० मीटर जितने लंबे हो सकते हैं किन्तु इसकी चौड़ाई सामान्य-औसत ही होती है. जैन विज्ञप्तिपत्र, महाभारत, श्रीमद्भागवत, जन्मपत्रिका आदि कुंडली आकार (स्क्रोल) में लिखे मिलते हैं. इसी तरह समेट कर अनेक तहों में किए गए लंबे चौड़े कागज आदि पट्ट भी मिलते हैं. सामान्यतः यंत्र, कोष्ठक, आराधना पट्ट एवं अदीद्वीप पट्ट आदि इनमें लिखे होते हैं. इनके अलावा ताम्रपत्रों एवं शिलापट्टों पर भी ग्रंथ लिखे मिलते हैं. हस्तप्रत के प्रायः खुले पन्ने ही होते हैं किन्तु कई बार पत्रों को मध्य में सिलाई कर या बांध कर पुस्तकाकार दो भागों में बांट दिया जाता है. ऐसे पत्रों वाली प्रत को गुटका कहा जाता है. ये बही की तरह ऊपर की ओर एवं सामान्य पुस्तक की तरह बगल में खुलने वाले - इस तरह दो प्रकार से बंधे मिलते हैं. मोटे गत्ते के आवरण में बंधे ये गुटके अत्यंत लघुकाय से लगाकर बृहत्काय तक होते हैं. अक्सर इन गुटकों को लपेट कर बांध देने के लिए इनके साथ दोरी भी लगी होती है. चित्रपुस्तक- चित्रपुस्तक अर्थात् पुस्तकों में खींचे गए चित्रों की कल्पना कोई न करे. यहाँ पर 'चित्रपुस्तक' इस नाम से लिखावट की पद्धति में से निष्पन्न चित्र से है. कुछ लेखक लिखाई के बीच ऐसी सावधानी के साथ जगह खाली छोड़ देते हैं, जिससे अनेक प्रकार के चौकोर, तिकोन, षट्कोण, छत्र, स्वस्तिक, अग्निशिखा, वज्र, डमरू, गोमूत्रिका आदि आकृति चित्र तथा लेखक के विवक्षित ग्रन्थनाम, गुरुनाम अथवा चाहे जिस व्यक्ति का नाम या श्लोक-गाथा आदि देखे किंवा पढ़े जा सकते हैं. अतः इस प्रकार के पुस्तक को हमें 'रिक्तलिपिचित्रपुस्तक' इस नाम से पहचानने के लिए मुनि श्री पुण्यविजयजी ने कहा है. इसी प्रकार लेखक लिखाई के बीच में खाली जगह न छोडकर काली स्याही से अविच्छिन्न लिखी जाती लिखावट के बीच के अमुक-अमुक अक्षर ऐसी सावधानी और खूबी से लाल स्याही से लिखते जिससे उस लिखावट में अनेक चित्राकृतियाँ, नाम अथवा श्लोक आदि देखे-पढे जा सकते हैं. ऐसी चित्रपुस्तकों को 'लिपिचित्रपुस्तक' का नाम दिया गया हैं. इसके अतिरिक्त 'अंकस्थानचित्रपुस्तक' भी चित्रपुस्तक का एक दूसरा प्रकारान्तर है. इसमें पत्रांक के स्थान में विविध प्राणी, वृक्ष, मन्दिर आदि की आकृतियाँ बनाकर उनके बीच पत्रांक लिखे जाते हैं. कुछ प्रतों में मध्य व पार्श्व-फुल्लिकाएँ बडे ही कलात्मक ढंग से चित्रित व कई बार सोने, चांदी के वरख व अभ्रक से सुशोभित मिलती है. ऐसी प्रतें विक्रमीय १५वीं से १७वीं सदी की सविशेष मिलती हैं. इसी तरह प्रथम व अंतिम पत्रों पर भी बड़ी ही सुंदर रंगीन रेखाकृतियाँ चित्रित मिलती है जिन्हें चित्रपृष्ठिका के नाम से जाना जाता है. कई प्रतों की पार्श्वरेखाएँ भी बडी कलात्मक बनाई जाती थी. For Private and Personal Use Only
SR No.525261
Book TitleShrutsagar Ank 2003 09 011
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoj Jain, Balaji Ganorkar
PublisherShree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2003
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size1 MB
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