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श्रुत सागर, भाद्रपद २०५९
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चित्रित प्रतों की अपनी एक अलग ही बृहत्कथा है. प्रतों में एक दो से लगाकर बड़ी तादाद में सोने की स्याही व अन्य विविध रंगों से बने बड़े ही सुंदर व सुरेख चित्र मिलते है, आलेख के चारों ओर की खाली जगह में भी विविध सुंदर वेल बुटे एवं अन्य कलात्मक चित्र चित्रित मिलते हैं.
कालक्रम से लेखन शैली में परिवर्तन देखा जाता है. यथा विक्रम की १४वीं - १५वीं सदी में प्रत के मध्य में रिक्त स्थान चौकोर फुल्लिका देखने में आता है जो कि ताडपत्रों में दोरी पिरोने हेतु छोड़ी जाने वाली खाली जगह की विरासत थी. बाद में यही कालक्रम से वापी का आकार धारण कर धीमे धीमे लुप्त होती पाई गई है. शैली की तरह लिपि भी परिवर्तनशील रही है. विक्रम की ११वीं सदी के पूर्व और पश्चात की लिपि में काफी भेद पाया जाता है. कहते हैं कि नवांगी टीकाकार श्री अभयदेवसूरि को प्राचीन प्रतों की लिपि को पढ़ने में हुई दिक़्क़तों के कारण जैन लिपिपाटी स्थिर की गई और तब से अत्यल्प परिवर्तन के साथ प्रायः वही पाटी सदियों तक मुद्रणयुग पर्यंत स्थिर रही. मुख्य फर्क पडीमात्रा - पृष्ठमात्रा का शिरोमात्रा में परिवर्तित होने का ज्ञात होता है. योग्य अध्ययन हो तो प्रत के आकार-प्रकार, लेखन शैली एवं अक्षर परिवर्तन के आधार पर कोई भी प्रत किस सदी में लिखी गई है उसका पर्याप्त सही अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है.
ताड़पत्र युग और उसके बाद के प्रारंभिक कागज के युग में भी पत्रांक दो तरह से लिखे मिलते हैं. बाई ओर सामान्य तौर पर संस्कृत भाषा में क्वचित ही बननेवाले विशिष्ट अक्षर संयोगमय संकेत जो शतक, दशम व इकाई हेतु भिन्न-भिन्न होते थे और ऊपर से नीचे की ओर लिखे जाते थे. इन्हीं संकेतों का उपयोग प्रायश्चित्त ग्रंथों में ह्रस्व दीर्घ इ की मात्रा के साथ चतुर्गुरू, षड्लघु आदि को इंगित करने हेतु हुआ है. पृष्ठ के दाईं ओर सामान्य अंकों में पृष्ठांक लिखे मिलते हैं.
प्रत लिखते समय भूल न रह जाय उस हेतु भी पर्याप्त जागृति रखी जाती थी. एक बार लिखने के बाद विद्वान साधु आदि उस प्रत को पूरी तरह पढ़कर उसके गलत पाठ को हरताल, सफ़ेदा आदि से मिटा कर, छूट गए पाठ को हंसपाद आदि योग्य निशानी पूर्वक पंक्ति के बीच ही या बगल के हांसीये आदि में ओली-पंक्ति क्रमांक के साथ लिख देते थे.
इसी के साथ वाचक को सुगमता रहे इस हेतु सामासिक पदों के ऊपर छोटी-छोटी खड़ी रेखाएँ कर के पदच्छेद को दर्शाते थे. क्रियापदों के ऊपर अलग निशानियाँ करते थे एवं विशेष्य विशेषण आदि संबंध दर्शाने के लिए भी परस्पर समान सूक्ष्म निशानियाँ करते थे. सामासिक पदों में शब्दों के ऊपर उनके वचन-विभक्ति दर्शाने हेतु ११, १२, १३, २१, २२, २३... इत्यादि अंक भी लिखते थे, तो संबोधन हेतु 'हे' लिखा मिलता है. इससे भी आगे बढ़ कर जैसे चतुर्थी विभक्ति हुई है तो क्यों ? यह बतलाने के लिए 'हेतो' इस तरह से हेत्वर्थे चतुर्थी का संकेत मिलता है. दार्शनिक ग्रंथों में पक्ष- प्रतिपक्ष के अनेक स्तरों तक अवांतर चर्चाएँ आती हैं. उन चर्चाओं का प्रारंभ व समापन बतलाने के लिए दोनों ही जगहों पर प्रत्येक चर्चा हेतु अलग-अलग प्रकार के संकेत मिलते हैं. श्लोकों पर अन्वय दर्शक अंक क्रमानुसार लिखे जाते थे. संधिविच्छेद बताने के लिए संधि दर्शक स्वर भी शब्दों के ऊपर सूक्ष्माक्षरों से लिखे जाते थे.
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प्रत वाचन में सुगमता की ये निशानियाँ बड़े ही सूक्ष्माक्षरों से लिखी होती हैं. इसी तरह अवचूरि, टीकादि भाग एवं कभी-कभी पूरी की पूरी प्रत इतने सूक्ष्माक्षरों से लिखी मिलती है कि जिन्हें पढ़ना भी आज दुरूह होता है. विचार आता है कि जिसे पढ़ने में भी आँखों को बड़ी दिक़्क़त होती है उन प्रतों को महानुभावों ने लिखा कैसे होगा. फिर भी यह हकीकत है कि लिखा है और हजारों की तादाद में लिखा है, विहार में
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