Book Title: Shrutsagar 2019 01 Volume 05 Issue 08
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 12
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 12 श्रुतसागर जनवरी-२०१९ ६. अशुचि भावना- यह शरीर मांस, रुधिर आदि से पूरित अशुचिमय होने के साथ व्याधिग्रस्त एवं रोग-शोक का मूल कारण है। नाखुन, नसें, मेद, चमडी आदि स्वरूप वाले देह में शुचि कैसे संभव है? उस सुन्दर चर्म के भीतर ये दुर्गन्धपूर्ण अशुचि पदार्थों पर प्रीति कैसे हो सकती है? पुरुष के शरीर से नौ द्वारों एवं स्त्री के ग्यारह द्वारों से निरंतर अशुचि प्रवाहित होती रहती है। अनेक स्वादिष्ट व्यंजन एवं मिष्टान्न जहाँ दुर्गन्धमय बन जाते हैं। ऐसे इस देह को जिनेश्वर परमात्मा ने मिट्टी के भांड के समान अस्थिर कहा है। इस देह से सुकृत कर शाश्वत सुख को प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रकार चिन्तन करना अशुचि भावना है। ७. आस्रव भावना- पुण्य-पापरूपी कर्मों के आगमन के मार्ग को आस्रव कहते है। जिसके द्वारा शुभाशुभ कर्म आत्मा के साथ बँधते है। आस्रव भाव संसार परिभ्रमण का कारण है। पाँचों इन्द्रियों के विषय में निरत रहकर जीव प्रमादी बनता है। प्रमाद एवं कषायों का फल दुर्गतिरूप किंपाक फल के समान है। आस्रव के रहते हुए प्राणी सद्-असद् के विवेक से शून्य रहता है। इस भावना के चिन्तन से जीव कर्मों से मुक्त होकर अक्षय अव्याबाध सुख को प्राप्त करता है। ८. संवर भावना- द्वार के बंद हो जाने पर जिस प्रकार किसी का प्रवेश नहीं होता वैसे ही आत्मा के परिणामों में स्थिरता होने पर अर्थात् आस्रव के निरोध होने पर आत्मा में शुभाशुभ कर्मों का आगमन नहीं होता। आत्मशुद्धि हेतु कर्मों को रोकने के लिए पाँच समिति, तीन गुप्ति, पच्चक्खाण, नियम, व्रत आदि द्वारा संवर को धारण करना ही संवर भावना है। क्षमादि दस यति धर्म को धारण करने वाला संवर रस का अनुभव कर जन्म-मृत्यु के भय को समाप्त कर सकता है। कर्मों के उदय में आगत परीषहों को जो जीतता है वह गजसुकुमाल मुनि की तरह दीप्तिमान बनता है। ९. निर्जरा भावना- तप आदि के द्वारा आत्मा से कर्मों को दूर करना निर्जरा है। निर्जरा के दो प्रकार बताए गए हैं १. सकाम निर्जरा और २. अकाम निर्जरा। अज्ञानतापूर्वक दुःखों का सहन करना अकाम निर्जरा है जबकि ज्ञानपूर्वक तपस्यादि के द्वारा कर्मों का क्षय करना सकाम निर्जरा है। इस भावना में दुष्ट वचन, परीषह, क्रोध, मानापमान आदि को समभाव से सहन करना, इन्द्रियों को वश में करना आदि शुद्ध कार्य करना इष्ट है। निर्जरा के लिए शास्त्रों में अनेक प्रकार के तप का वर्णन है यथा- रत्नावली, कनकावली, सिंहनिष्क्रीडित आदि विविध तप के For Private and Personal Use Only

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