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ISSN 2454-3705
श्रतसागर | श्रुतसागर
SHRUTSAGAR (MONTHLY) January-2019, Volume : 05, Issue : 08, Annual Subscription Rs. 150/- Price Per copy Rs. 15/EDITOR : Hiren Kishorbhal Doshi
BOOK-POST / PRINTED MATTER
१. अनित्य भावना
५.अन्यत्वभावना
६.अशुचि भावना
२.अशरण भावना
७.आस्रव भावना
३.संसार भावना
१२ भावना के प्रतीक ७ चित्र.
४.एकत्व भावना
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
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पूज्य राष्ट्रसंत आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराजा के
___इन्दौर नगरप्रवेश की झलकियाँ.
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SHRUTSAGAR
RNI : GUJMUL/2014/66126
January-2019 ISSN 2454-3705
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का मुखपत्र) श्रुतसागर
મૃતસાગર SHRUTSAGAR (Monthly)
वर्ष-५, अंक-८, कुल अंक-५६, जनवरी-२०१९
Year-5, Issue-8, Total Issue-56, January-2019 वार्षिक सदस्यता शुल्क - रु. १५०/-* Yearly Subscription - Rs.150/अंक शुल्क - रु. १५/- * Price per copy Rs. 15/
आशीर्वाद राष्ट्रसंत प. पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. * संपादक * * सह संपादक * * संपादन सहयोगी * हिरेन किशोरभाई दोशी रामप्रकाश झा राहुल आर. त्रिवेदी
एवं
ज्ञानमंदिर परिवार १५ जनवरी, २०१९, वि. सं. २०७५, पौष शुक्ल-९
राधना के
जैन आराम
स्वीर जैन
त महाक
केन्द्र.
अमृतं तक
विद्या
ভূIথ
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
(जैन व प्राच्यविद्या शोध-संस्थान एवं ग्रन्थालय)
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर-३८२००७ फोन नं. (079) 23276204, 205, 252 फैक्स : (079) 23276249, वॉट्स-एप 7575001081 Website : www.kobatirth.org Email : gyanmandir@kobatirth.org
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श्रुतसागर
जनवरी-२०१९
अनुक्रम 1. संपादकीय
रामप्रकाश झा 2. आध्यात्मिक पदो
आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी 6 3. Awakening
Acharya Padmasagarsuri 4. बारह भावना संधि
आर्य मेहुलप्रभसागर 5. वरतीपुरमंडन श्रीमल्लिजिन स्तवन गजेन्द्र शाह 6. सोळमा शतकनी गुजराती भाषा मधुसूदन चिमनलाल मोदी 7. पुस्तक समीक्षा
राहुल आर.त्रिवेदी 8. समाचार सार
माया छाया एक है, घटै वधइ छिनमांहि। इनकी संगति जे करै, तिनहीकु सुख नाहि॥
हस्तप्रत ८४५३१ भावार्थ - माया और छाया एक समान है, जो क्षण में बढती है और क्षण में घटती है, जो व्यक्ति इनकी संगति करता है, उसे कभी सुख प्राप्त नहीं होता
* प्राप्तिस्थान* आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर तीन बंगला, टोलकनगर, होटल हेरीटेज़ की गली में
डॉ. प्रणव नाणावटी क्लीनीक के पास, पालडी अहमदाबाद - ३८०००७, फोन नं. (०७९) २६५८२३५५
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SHRUTSAGAR
January-2019 संपादकीय
रामप्रकाश झा श्रुतसागर का यह अंक आपके करकमलों में समर्पित करते हुए हमें अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है।
प्रस्तुत अंक में गुरुवाणी शीर्षक के अन्तर्गत योगनिष्ठ आचार्यदेव श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरजी म. सा. की कृति “आध्यात्मिक पदो” की गाथा ९३ से १०४ तक प्रकाशित की जा रही है। इस कृति के माध्यम से साधारण जीवों को आध्यात्मिक उपदेश देते हए अहिंसा, सत्यपालन, आहारादि से संबंधित प्रतिबोध कराने का प्रयत्न किया गया है। द्वितीय लेख राष्ट्रसंत आचार्य भगवंत श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. के प्रवचनों की पुस्तक 'Awakening' से क्रमबद्ध श्रेणी के अंतर्गत संकलित किया गया है, जिसके अन्तर्गत जीवनोपयोगी प्रसंगों का विवेचन किया गया है। ___अप्रकाशित कृति प्रकाशन के क्रम में इस अंक में सर्वप्रथम आर्य मेहलप्रभसागरजी म. सा. के द्वारा सम्पादित “१२ भावना सन्धि" प्रकाशित की जा रही है। श्री जयसोम गणि ने कुल ७२ गाथाओं की इस कृति में मन को एकाग्र करने हेतु अनित्यादि बारह भावनाओं का परिचय प्रस्तुत किया है। द्वितीय कृति के रूप में आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर के सुज्ञ पंडितप्रवर श्री गजेन्द्र शाह के द्वारा सम्पादित “वरतीपुरमंडन श्रीमल्लीजिन स्तवन" प्रकाशित किया जा रहा है। श्री कीर्त्तिउदय गणि ने कुल १४ गाथाओं की इस लघु कृति के माध्यम से १९वें तीर्थंकर श्री मल्लिनाथजी की स्तवना की है। ____ पुस्तक समीक्षा के अन्तर्गत इस अंक में श्रुतभवन संशोधन केन्द्र, पूणे से ई. २०१५ में प्रकाशित तथा मुनि श्री वैराग्यरतिविजयजी म. सा. के द्वारा सम्पादित उपाध्याय श्रीचारित्रनन्दी की स्वोपज्ञ कलिकाप्रकाश वृत्ति से विभूषित “स्याद्वादपुष्पकलिका” की समीक्षा प्रस्तुत की जा रही है।
पुनःप्रकाशन श्रेणी के अन्तर्गत बुद्धिप्रकाश, पुस्तक ८२ के प्रथम अंक में प्रकाशित “सोलमा शतकनी गुजराती भाषा” नामक लेख का गतांक से आगे का भाग प्रकाशित किया जा रहा है। इस लेख के माध्यम से सोलहवीं सदी की रचनाओं में प्रचलित गजराती भाषा के स्वरूप तथा उच्चारणभेद का वर्णन किया गया है। श्रुतसागर के प्रस्तुत अंक में इस लेख का पुनः प्रकाशन किया जा रहा है।
हम यह आशा करते हैं कि इस अंक में संकलित सामग्रियों के द्वारा हमारे वाचक अवश्य लाभान्वित होंगे व अपने महत्त्वपूर्ण सुझावों से हमें अवगत कराने की कृपा करेंगे, जिससे आगामी अंक को और भी परिष्कृत किया जा सके।
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श्रुतसागर
जनवरी-२०१९
आध्यात्मिक पदो
आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी
(गतांक से आगे)
(हरिगीत छंद) व्यवहार निश्चय वेदना मर्मो लहे के ज्ञानीओ, गुरूगम विना कूटाय छे झघडा करी अभिमानीओ; अन्तर् करेली खोज तेने वेदविद्याओ मळी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. अध्यात्म ज्ञानज वेद छे सहु वेदना पण अग्रणी, द्रव्यानुयोग ज वेद छे व्यवहार वेद शिरोमणि; समजाय साचुं ते ग्रहो कंकास ममता परिहरी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. विश्वोन्नतिशांति प्रदा राष्ट्रीय जे जे कायदा, व्यवहारथी ते वेद छे जेथी थता जग फायदा; स्वातंत्र्य मळतुं सर्वने त्यां वेद विद्याओ फळी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. स्वाश्रयपणुं ते वेद छे शुभ इच्छq ते वेद छे, धृतिकीर्ति कान्ति वेद छे ए पामतां नहि खेद छे; ममता कदाग्रह त्यागीने साचाविषे जावू भळी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. व्यसनोविषे नहि वेद छे स्वार्थोविषे पण जाणवू, ज्यां न्याय साचो वर्ततो त्यां वेद छे मन मानवं; ज्यां न्याय त्यां सहु वेद छे समजो हृदयमां संचरी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. जे जे प्रमाणिक मानवो ते वेद छे जग चालता, जे जीवता जगमां रहीने, विश्व जीव जीवाडता;
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January-2019
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SHRUTSAGAR
7 जे लांच लेता नहि कदि, उत्तम जीवनने आचरी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. निर्दोष मनडुं वेद छे सर्वे जीवोनुं हित चहे, परमार्थ माटे प्राण दे ते वेद साचो जग कहे; प्राणो पडे पण जूठ पक्षोमां न जातो जे भळी, एवी अमारी वेदनी छे, मान्यता निश्चय खरी. जे भेद भाव धरे नहीं ने सर्व- हित आदरे, मतभेद निन्दादिक सही अपकारी- हित आचरे; ते वेदमूर्ति जीवती जे जागती जग हितकरी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. साचा अमारा वेद अनुभव शिक्षणो जे जे मळे, साचा अमारा वेद ते छे दःखडां जेथी टळे; साची अमारी वेदमूत्ति विश्वमांहि केवळी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. ज्यां राग नहि ज्यां द्वेष नहि ज्यां वेद कर्ता ते खरो, ते वेदनो प्रभु छे खरो एवा प्रभुओ अवतरो; ते सत्यना सागर प्रभु, अर्हन् विभु ब्रह्मा बळी, एवी अमारी वेदनी छे, मान्यता निश्चय खरी. सामाजीकी प्रगति करे कल्याण करवा सर्वनु, तेना हृदयमां वेद छे, ज्यां नाम नहि छे गर्वनें; सहु जीवना कल्याणमां वृत्ति मझानी हित भळी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी. निरवद्य प्रभुनी भक्तिमां स्फुरणा उठे जे शिवकरी; ते भाव वेदो छ सही अध्यात्मभावे जयकरी, शक्ति अनंति खीलवे निज आत्मनी वेगे वळी, एवी अमारी वेदनी छे मान्यता निश्चय खरी.
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102
103
104 (क्रमशः)
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श्रुतसागर
जनवरी-२०१९ Awakening
Acharya Padmasagarsuri
(from past issue...)
“Tetape U” Kshama veerasya bhushanam (Forgiveness is an ornament to a hero)
Patience enhances the glory of a heroic man; not of a coward.
Only when you live in the midst of society and worldly life, your virtues are tested like gold on the touchstone. When you are living in solitude, in a cave, there is no opportunity for you to show your anger; hence, in that situation, it will not be possible to find out whether you are patient or peaceful or forgiving. Life is the mirror that reflects your true nature and reveals it.
The tongue does not become soft and smooth whatever quantity of butter we eat; similarly an enlightened man does not develop attachment for worldly life though he may be living in the (Samsar) worldly life. He will remain untouched by life just as a lotus remains untouched by water. Such a man attains spiritual elevation by means of penance and self-conquest.
संजमेण तवसा अप्पाण भावेमाणे विहराइ
Sanjamena tavasa appana bhavemane viharayi
(Man attains spiritual excellence by means of penance and self-control.)
Man has to taste in his enlightened state the bitter fruit of his sinful actions committed in his state of ignorance. Thriprusta Vasudev gave orders to his servants: “Stop the music when I sleep”. But the servants out of forget fulness did not carry out this order. So, angered by their indifference to his order, Thriprusta Vasudeva ordered that molten lead should be poured into their ears. This was an action which Lord Mahavira com
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SHRUTSAGAR
January-2019
mitted in an earlier life (Poorva Janma). When a cowherd drove into Lord Mahavira's ears wooden bolts he bore with the pain calmly remembering what he had done in his Poorva Janma (an earlier life).
The Flowering of Life
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A great acharya (preceptor) has said;
मा सुयह जग्गिअव्वं पलायियव्वम्मि कीस वीसमह । तिण्णि जणा अणुलग्गा रोगो य जरा य मच्चू य ॥
Ma suyah Jaggiavvam, Palayiyavvammi kisa visamaha, Tinni jana anulagga, Rogo ya jara ya machchu ya
Do not sleep. Be awake; when you have got to run how can you take rest. Disease, old age and death are chasing you.
If one wicked man is chasing us we run to escape from him. When that is so how can we commit the error of taking rest when three wicked men are chasing us?
But this is what is actually happening in life. Gurudev (the preceptor) gives us a knowledge of this error. He awakens people from their spiritual stupor and gives suggestions to them to enable them to achieve their objectives (purusharthas).
All creatures, that are born, easily attain the stage of life or existence. Of course, they get existence and life but it is not an easy task to make life flower forth and develop by means of renunciation, and self-control. It does not matter if the boat sails on water; but water should not enter the boat. If such a thing happens, the boat sinks;
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(Continue...)
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जनवरी-२०१९
पूज्य गणिश्री जयसोम रचिता बारह भावनासंधि
आर्य मेहुलप्रभसागर कृति परिचय
जैन दर्शन में मोक्ष के चार मार्ग बताए गए हैं यथा- दान, शील, तप और भाव। इनमें अंतिम मार्ग भाव है। चतुर्थ मार्ग अतिशय महत्वपूर्ण है। भाव के बिना दान, शील, तप आदि अल्प फलदायक होते हैं। अर्थात् दान के साथ दान देने की सद्भावना होगी, शील के पालन की सच्ची भावना होगी एवं तप करने के सुंदर भाव होंगे तभी वे मोक्ष के हेतु बनेंगे। ___ भावना यानि किसी भी विषय पर मनोयोग पूर्वक विचार करना, विचारों के द्वारा जैसी भावना होती है वैसा ही फल मिलता है। शास्त्रकार भगवंतों ने भावना के संबंध में बड़ा ही गहरा एवं व्यापक विश्लेषण किया है। आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज ने भावना की परिभाषा देते हुए कहा है कि भाव्यते अनेनेति भावना' अर्थात् जिसके द्वारा मन को भावित किया जाए, संस्कारित किया जाए, उसे भावना कहते हैं। श्री मलयगिरिजी भगवंत ने भावना को परिकर्म अर्थात् विचारों की साज-सज्जा कहा है। जैसे शरीर को तेल, इत्र आदि से बार-बार सजाया जाता है, वैसे ही विचारों को विशिष्ट भावों के साथ पुनः पुनः जोड़ा जाता है। इसका कारण यह है कि मन की चंचलता से शरीर और वाक् संयम प्रभावित होता रहता है। मन को एकाग्र करने की बहुत सारी प्रक्रियाओं में से एक है भावना।
साधक को मोक्षमार्ग की प्राप्ति के लिए बारह भावनाओं का चिन्तन करने का निर्देश दिया गया है- १. अनित्य भावना, २. अशरण भावना, ३. संसार भावना, ४. एकत्व भावना, ५. अन्यत्व भावना, ६. अशुचि भावना, ७. आस्रव भावना, ८. संवर भावना, ९. निर्जरा भावना, १०. धर्म भावना, ११. लोकस्वरूप भावना तथा १२. बोधिदुर्लभ भावना।
इन बारह भावनाओं का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है१. अनित्य भावना- जगत में जितने भी पौगलिक पदार्थ हैं वे सभी अनित्य हैं। घास
की नोंक पर रहे हुए ओस की बूँद की तरह जीवन भी आयुष्य की नोंक पर टिका
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SHRUTSAGAR
January-2019 हुआ है। आयुष्य की पत्तियाँ हिलेंगी और जीवन का ओस सूख जाएगा। इसलिए व्यक्ति को क्षणभर भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। वर्षाकाल में बालक क्रीडा हेतु रेत से घर बनाता है। बरसात होते ही घर ध्वस्त हो जाते हैं। उसी प्रकार यह शरीर
अनित्य है। ऐसा चिन्तन करना अनित्य भावना है। २. अशरण भावना- जैसे सिंह हिरण को पकड़कर ले जाता है, वैसे ही मृत्यु मनुष्य
को ले जाती है। तब माता-पिता व भाई आदि कोई भी बचा नहीं सकते। जीव को अनाथी मुनि और सगर राजा की तरह चिन्तन करना चाहिए कि संसार की कोई भी वस्तु शरणभूत नहीं है। एक धर्म ही शरणरूप है। जो अनेक प्रकार के दुःखों
से प्राणी की रक्षा करता है। ३. संसार भावना- जन्म-मरण के चक्र को संसार कहते हैं। जो प्राणी जन्म लेता है वह अवश्य मरता है। इस तरह जीव चार गति के चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता है। अरहट माला के न्याय से वायु के द्वारा प्रेरित पत्ते जिस प्रकार ऊपर-नीचे होते है वैसे ही सभी प्राणी कीट-पतंग, निर्धन-धनी, सौभागी-दुर्भागी, भूपति-भिखारी आदि विविध भव करते हैं। परिभ्रमण के दौरान भोगे हुए कष्टों
और विचित्रताओं का तटस्थता से अवलोकन कर जंबूस्वामी और वज्रकुमार की तरह मन को प्रतिबोधित करें कि इस संसार-चक्र से मुक्त कैसे होऊँ? शुद्ध मार्ग
पर कैसे चलूँ? ४. एकत्व भावना- आत्मा की दृष्टि से प्रत्येक प्राणी पूर्वभव से अकेला आया है और
अकेला जाएगा। जन्म-मरण एवं रोगादि का कष्ट भी स्वयं को अकेले ही सहन करना पडता है। स्वयं के द्वारा किए गए कृत्यों का फल भी स्वयं को ही भोगना पड़ता है। इन सभी में माता-पिता, पुत्र-पत्नी आदि कोई भी शरण नहीं देता है। ‘एगोहं' अर्थात् मैं अकेला हूँ, और 'नत्थि मे कोई मेरा कोई नहीं है। यह सुदृढ विचार कर नमि राजर्षिवत् एकत्व भावना को पुष्ट करना चाहिए। ५. अन्यत्व भावना- यह शरीर, परिजन, बाहरी पदार्थ आदि अन्य हैं। मेरे नहीं हैं। सभी मुझसे भिन्न हैं, पर हैं। पर वस्तु में अगर मैं अपनत्व का आक्षेपण करूँगा तो वह कष्टदायी होगा। जिस प्रकार संध्या के समय वृक्षों पर पक्षी एकत्रित हो क्रीडा करते है, वे सभी सूर्योदय होते ही दसों दिशाओं में पहुंच जाते है, उसी प्रकार परिजन भी इस भव में मिले हैं, मृत्यु होते ही यहाँ से अकेले जाना है। अतः मात्र आत्मा को स्व मानते हुए आत्मगुणों को पहचानना एकत्व भावना है।
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श्रुतसागर
जनवरी-२०१९ ६. अशुचि भावना- यह शरीर मांस, रुधिर आदि से पूरित अशुचिमय होने के साथ
व्याधिग्रस्त एवं रोग-शोक का मूल कारण है। नाखुन, नसें, मेद, चमडी आदि स्वरूप वाले देह में शुचि कैसे संभव है? उस सुन्दर चर्म के भीतर ये दुर्गन्धपूर्ण अशुचि पदार्थों पर प्रीति कैसे हो सकती है? पुरुष के शरीर से नौ द्वारों एवं स्त्री के ग्यारह द्वारों से निरंतर अशुचि प्रवाहित होती रहती है। अनेक स्वादिष्ट व्यंजन एवं मिष्टान्न जहाँ दुर्गन्धमय बन जाते हैं। ऐसे इस देह को जिनेश्वर परमात्मा ने मिट्टी के भांड के समान अस्थिर कहा है। इस देह से सुकृत कर शाश्वत सुख को प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रकार चिन्तन करना अशुचि भावना है। ७. आस्रव भावना- पुण्य-पापरूपी कर्मों के आगमन के मार्ग को आस्रव कहते
है। जिसके द्वारा शुभाशुभ कर्म आत्मा के साथ बँधते है। आस्रव भाव संसार परिभ्रमण का कारण है। पाँचों इन्द्रियों के विषय में निरत रहकर जीव प्रमादी बनता है। प्रमाद एवं कषायों का फल दुर्गतिरूप किंपाक फल के समान है। आस्रव के रहते हुए प्राणी सद्-असद् के विवेक से शून्य रहता है। इस भावना के चिन्तन
से जीव कर्मों से मुक्त होकर अक्षय अव्याबाध सुख को प्राप्त करता है। ८. संवर भावना- द्वार के बंद हो जाने पर जिस प्रकार किसी का प्रवेश नहीं होता
वैसे ही आत्मा के परिणामों में स्थिरता होने पर अर्थात् आस्रव के निरोध होने पर आत्मा में शुभाशुभ कर्मों का आगमन नहीं होता। आत्मशुद्धि हेतु कर्मों को रोकने के लिए पाँच समिति, तीन गुप्ति, पच्चक्खाण, नियम, व्रत आदि द्वारा संवर को धारण करना ही संवर भावना है। क्षमादि दस यति धर्म को धारण करने वाला संवर रस का अनुभव कर जन्म-मृत्यु के भय को समाप्त कर सकता है। कर्मों के उदय में आगत परीषहों को जो जीतता है वह गजसुकुमाल मुनि की तरह दीप्तिमान बनता है। ९. निर्जरा भावना- तप आदि के द्वारा आत्मा से कर्मों को दूर करना निर्जरा है। निर्जरा के दो प्रकार बताए गए हैं १. सकाम निर्जरा और २. अकाम निर्जरा। अज्ञानतापूर्वक दुःखों का सहन करना अकाम निर्जरा है जबकि ज्ञानपूर्वक तपस्यादि के द्वारा कर्मों का क्षय करना सकाम निर्जरा है। इस भावना में दुष्ट वचन, परीषह, क्रोध, मानापमान आदि को समभाव से सहन करना, इन्द्रियों को वश में करना आदि शुद्ध कार्य करना इष्ट है। निर्जरा के लिए शास्त्रों में अनेक प्रकार के तप का वर्णन है यथा- रत्नावली, कनकावली, सिंहनिष्क्रीडित आदि विविध तप के
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January-2019
द्वारा आत्मा निर्मल भाव को धारणकर यथेष्ट स्थान प्राप्त कर सकती है। १०. धर्म भावना- • डूबते का सहारा, अनाथों का नाथ, सच्चा मित्र एवं परभव में साथ चलने वाला यह धर्म सच्चा संबन्धी है। जो उसे धारण करता है उसके सारे संताप दूर हो जाते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार इस संसार में एकमात्र शरण धर्म है, इसके अतिरिक्त जीव की रक्षा कोई और नहीं कर सकता है। जरा-मरण-कामतृष्णा आदि के प्रवाह में डूबते हुए प्राणियों के लिए धर्म द्वीप का काम करता है । इसी धर्मरूपी द्वीप का जीव शरण लेता है। धर्म में दृढ श्रद्धा और आचरण में धर्म को साकार करते हुए आत्मा को इहलोक एवं परलोक में सुखी बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।
११. लोकस्वरूप भावना- लोक अर्थात् जीवसमूह और उनके रहने का स्थान । यह लोक चौदह रज्जु प्रमाण है । इस लोक में भव-भ्रमण करते हुए जीव कर्मवश माता-पिता- -पुत्र बनता है। पुनः यदा-कदा वैरवश शत्रु भी बन जाता है। साधु सुकोशल को देखकर बाघिन के भव में वैरवश पूर्व भव के पुत्र अर्थात् साधु सुकोशल का मांसभक्षण करती है। इस प्रकार इस लोक में स्वार्थ के कारण सभी स्वजन हैं और स्वार्थ न होने पर सभी दूर हो जाते हैं। लोक के ऐसे स्वरूप का चिन्तन कर उपशम रस में निमग्न होकर लोक के अग्रभाग पर पहुँचने की भावना करना लोकस्वरूप भावना है।
१२. बोधिदुर्लभ भावना- इस संसार में अनेक दुर्लभ वस्तुओं में से कोई जीव उन दुर्लभ वस्तुओं को आसानी से प्राप्त कर ले, परंतु बोधि अर्थात् सम्यग्ज्ञान दर्शन चारित्र की प्राप्ति अत्यंत कठिन है। बोधि अर्थात रत्नत्रय जो जीव का स्वभाव है । स्वभाव की प्राप्ति दुर्लभ नहीं मानी जा सकती। परंतु जीव जब तक अपने स्वरूप को नहीं जानता है और कर्म के अधीन रहता है, तब तक बोधिस्वभाव पाना दुर्लभ है और कर्मकृत सभी पदार्थ सुलभ हैं। अनन्त काल से ८४ लाख योनियों में भ्रमण करते हुए यह मनुष्य भव मिला है। अनेक बार चक्रवर्ती के समान ऋद्धि प्राप्त की है। उत्तम कुल और आर्यक्षेत्र भी पाया है, पर चिन्तामणि के समान सम्यक्त्व रत्न प्राप्त करना अत्यंत दुर्लभ है, इस प्रकार चिन्तन करना बोधिदुर्लभ भावना है।
प्रस्तुत संधि में सरलता के साथ सरसता और कथा विवरण के साथ मार्मिकता का गुंफन कर कर्ता ने काव्य की गरिमा में वृद्धि की है।
खरतरगच्छ साहित्य कोश में यह क्रमांक ८७६ पर उल्लिखित है।
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जनवरी-२०१९ कर्ता परिचय
महोपाध्याय श्री जयसोम के शिष्य गणि श्री गुणविनय ने दमयन्तीकथाचम्पू टीका की प्रशस्ति में गुरुपरंपरा का परिचय दिया है तदनुसार श्री जिनमाणिक्यसूरिजी के पट्टधर गच्छनायक युगप्रधान पदधारक श्री जिनचन्द्रसूरिजी विद्यमान थे। उसी समय खरतरगच्छ की क्षेमशाखा के उपाध्याय प्रमोदमाणिक्य के शिष्य उपाध्याय जयसोमजी हुए।
प्रस्तुत कृति के कर्ता महोपाध्याय जयसोमजी की अन्य १४ जितनी कृतियाँ प्राप्त होती हैं। जयसोमजी महाराज के शिष्यों में उपाध्याय गुणविनयजी, विजयतिलकजी, सुयशकीर्ति आदि कई विद्वान शिष्य थे। इनमें उपाध्याय श्री गुणविनयजी सत्रहवीं शताब्दी के नामांकित विद्वान थे। श्री गुणविनयजी की ७० से अधिक कृतियाँ प्राप्त होती हैं। प्रति परिचय
प्रतिलेखक वाचक विमलकीर्ति खरतरगच्छीय उपाध्याय साधुकीर्ति के प्रशिष्य तथा वाचक विमलतिलक के शिष्य थे। ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह की पृष्ठसंख्या २०९ के आधार पर आपकी दीक्षा वि.१६५४ में हुई थी। वाचक पदवीयुक्त आपका स्वर्गवास सिन्धु देशस्थित कहिरोर में अनशनपूर्वक हुआ था। आपने सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मारुगुर्जर भाषा में गद्य और पद्य रचनाएँ कर साहित्य की अमूल्य सेवा की है।
उपलब्ध रचनाओं में यशोधर रास वि.१६६५, आवश्यक बालावबोध वि.१६७१, गणधर सार्धशतक टब्बा वि.१६८०, प्रतिक्रमणविधि स्तवन वि.१६९०, उपदेशभाषा टब्बा सहित २५ कृतियाँ प्रमुख हैं। आपके शिष्य विमलरत्न भी अच्छे साहित्यकार थे।
प्रत का लेखन वर्ष वि.सं.१६८४ है। प्रतिलेखक मारुगुर्जर भाषा के विद्वान होने से प्रस्तुत प्रति नं. ४९५५० में स्खलना प्रायः नहीं है। अक्षर सुन्दर और सुवाच्य हैं। प्रति की स्थिति प्रायः जीर्ण है। रक्तवर्णीय मसि से गाथा संख्या एवं ढालादि का निर्देश किया गया है। पडिमात्रा युक्त लिपि है तथा तीन पत्रों की प्रति के प्रत्येक पृष्ठ के मध्य में वापिका का चित्रांकन है और प्रथम पत्र पर वापिका का चित्रण इस प्रकार किया गया है कि मध्य में गज का चित्र नजर आता है एवं अंतिम पत्र पर अश्व का चित्र बनाया गया है।
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प्रति उपलब्ध करवाने हेतु आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा के संचालकों का सादर आभार । इस प्रकार शोधार्थियों को विशिष्ट सहयोग प्रदानकर समस्त संस्थाओं में अपना अग्रगण्य स्थान सुशोभित कर रहे हैं। यह संस्था शोधार्थियों की इसी प्रकार सुंदर सहयोग प्रदान करती रहे, यही शुभकामना ।
बारह भावना संधि
दूहा
॥८०॥ आदीसर जिणवर तणा, पद पंकज पणमेवि । भणिस्युं बारह भावना, सानिधि करि श्रुतदेवी दान दया तप जप क्रिया, भाव पक्षइ अप्रमाण । लूण विणा जिम रसवती, ए श्री जिनवर वाणि दान सील तप दोहिला, करतां दूसमकालि । भावन भावउ भविकजन, पुण्य सरोवर पालि अनित्य पणउ१ असरण पणउ२, भवसरूप३ एकत्व४ । अन्य पणउ५ वलि असुचि पण६ आश्रव७ संवर तत्व८ नवमी निर्ज्जर भावना९, धर्म्म१० सु लोक सभाव ११ । बोधिदुलभ१२ परभवि इसी, बारह भावन भावि
ढाल १
पहिली भावन भावीयइजी, अनित्य पणउ संसारि । संध्या राग समउ सहूजी, निरखइ नहीय गमार भविकजन परिहरि विषय विरोध । हितकारणि करुणा करीजी, श्रीगुरु द्यइ प्रतिबोध वरषाकालइ जिम करइजी, बालक रामति काजि । रेणु तणा घर कारिमाजी, तिम धन संपति राज अतुली बल जिनवर कह्याजी, चक्रवर्त्ति सबल सरीर । अनितपणइ थिर नवि रह्याजी, डाभ अणी जिम नीर
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11211
॥२॥
॥३॥
11811
11411
॥६॥
भविक०॥७॥
भविक०॥८॥
भविक० ॥९॥
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भविक०॥१०॥
॥११॥
धरम०॥१२॥
धरम०॥१३॥
धरम०॥१४॥
श्रुतसागर इम जगि सर्व असासतउजी, जाणी म करि कुकर्म। इह भवि परभवि सुख भणीजी, साचउ करि जिनधर्म
ढाल २ धरम पक्षइ कुण जीवनइ रे, सरणइ राखणहार । मात पिता सुत सवि मिली रे, करि न सकइ उपकारो रे धरम हीयइ धरउ, असरण जाणि संसारो रे। जीव जतन करउ, जिम पामउ सुख सारो रे मिथिला नगरीनउ धणी रे, राजा नमि इण नामि । अंतेउर धन तेहनइ रे, कोइ न आव्यउ कामिरे साठि सहस सुत सगरना रे, नंद तणी धनरासि। राखी न सक्या तेहनइ रे, भोला हियइ विमासी एक सरण जिणवर तणउरे, सूधउ धरम संसारि। आतमहित करि तिण भणी रे, मानव जनम म हारि
ढाल ३ इणि संसारइ जीवडा रे, अरहट माला न्यायइ रे। वाउलि प्रेर्या पान ज्यु, अध ऊरध वलि थायइ रे इम जाणी हो प्राणी विषय निवारीयइ हो। सुखकारण हो श्री जिनधर्म संभारीयइ रे कीड पतंग पणउ भजइ रे, निरधननइ धनधारी रे। सोहागी दोहागीयउ रे, भूपति नइ भीखारी रे इम नटनी परि भवि भम्यउरे, विध विध वेस विणाणइ रे । सुख दुख जे तिहां भोगव्यां रे, णाणी विण कुण जाणइ रे जइ भव भमतां ऊभगा रे, तउ प्रमाद तजि जागउ रे । जंबू वयर तणी परइ रे, इणि विधि मारगि लागउरे
धरम०॥१५॥
॥१६॥
॥१७॥
इम०॥१८॥
इम०॥१९॥
इम०॥२०॥
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एक०॥२१॥
एक०॥२२॥
एक०॥२३॥
एक०॥२४॥
एक०॥२५॥
एक०॥२६॥
ढाल ४ एक पणउ जगि जीवनइ, जोवउ हीयइ विमासि। धरम पक्षइ सवि जीवडा, परिभमइ उदास परभव थी चवि एकलउ, आवइ वलि जाइ। जनम मरण पुणि एकलउ, कोई सरणइ न थाइ मात पिता सुत कामिनी, परिजननइ माहि। असुभ करमि जीव एकलउ, लीजइ दुरगति साहि पाप करि धन मेलवइ, अति चंचल चित्त । परभवि जातां सवि मिली, वांटी ल्यइ वित्त रोगादिक दुख एकलउ, वेदइ निरधार । वांटी न सकइ कोइ सगउ, जाण्यउ सयणाचार जीव अनाथीनी परइ, जागउ जिनवाणि। परमारथ जाण्यां पषइ, किम कहीयइ जाण
ढाल ५ जीवहां थकी ए जूजूआ, धण सयण परियण जोइ। आपणइ साजण तूं गिणे, इक जिनध्रम हो जिहां थी सुख होइ आप सवारथ जग सहू रे, परकारण रे तूं कांइ गमार। पाप करी रोतउ भरइ रे, सुखकारण रे धरम संभारि संध्या समइ जिम तरुवरइ, पंखीया मिलि विलसंति। परभाति पहुचइ दह दिसइ, इम परिजन रे निज मन तूं चिंति जिम चरण वेला गो मिलइ, गोवालीयइनइ पासि। पाछिलइ दिनि निज निज घरइ, वलि पहुचइ रे तिम ए घरवासि पंथीया पंथइ जिम मिलइ, संध्या समय इक गामि । जूजूआ जायइ प्रहसमइ, तिम सयणां हो संगम इक ठामि धन तेह जे निज सुख भणी, गिणि सर्व संग असार । संवेग रस मांहि झीलता, मन रंगइ रे ल्यइ संजम भार
॥२७॥
आप०॥२८॥
आप०॥२९॥
आप०॥३०॥
आप०॥३१॥
आप०॥३२॥
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ढाल- ६
देह असुचि करि पूरीयउ हो, असुचि करी उतपन्न । इम जाणी जे प्राणीया हो, धरम करइ ते धन्न
श्रुतसागर
सुविचार रे प्राणी, निज मन थिर करि जोइ । इणि संसारइ सुख भणी हो, धरम पक्षइ कुण होइ मंस रुहिर नख नइ नसा हो, मेद चरम वस केस । ए सरूप इणि देहनउ हो, किहां इहां सुचि लवलेस श्रोत्र वहइ नव अहनिसइ हो, पुरुष सरीरि असार । सोत्र इग्यारह नारि नइ हो, असुचि तणा भंडार नाना व्यंजन रसवती हो, जिहां थी विणसी जाइ । चोवा चंदन वलि सवे हो, जसु संगमि मल थाइ देह अथिर जिनवर कह्यउ हो, माटी भंड समान । एक सुकृत करि सासतउ हो, जिम सुख लहइ प्रधान
ढाल ७
आश्रव कारणि ए जगि जाणीयइ, परिहरि एहना संग । दुरगति जातां एहजि साथीया, तिणि ध्रमस्युं धरि रंग पंचे इंद्रिय सवि जगिनइ नडइ, विरुयां विषय सवाद । एकइ एकइ इंद्रियनइ वसइ, पामइ जीव प्रमाद नादइ मृगलउ रस वसि माछलउ, रूपइ देखि पतंग | वासइ भमरउ फरसइ हाथीयउ, पामइ रंग विरंग च्यारि कषाय निवारउ मन थकी, भवतरुनउ ए मूल । फल किंपाक समा रस जेहना, दुरगतिनइ अनुकूल पांचइ आश्रव दुख कारण गिणउ, जोग क्रिया वलि तेह । करम तणा थिति रस कारण वली, आस्रव भावन एह
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॥३३॥
सुविचार०॥३४॥
सुविचार०||३५||
सुविचार०॥३६॥
सुविचार०||३७||
सुविचार०॥३८॥
आश्रव०॥३९॥
आश्रव०॥४०॥
आश्रव०॥४१॥
आश्रव०॥४२॥
आश्रव०॥४३॥
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ढाल८
॥४४॥
संवर०॥४५॥
संवर०॥४६॥
संवर०॥४७॥
संवर०॥४८॥
पंच समिति निरती विधइं रे, पालइ आदर आणी रे। त्रिण्हि गुपति गुपतां सदा जी, श्रुत परमारथ जाणी रे संवर भावन भावीयइजी, मनि समाधि धरि प्राणी रे। आगम माहे एहनाजी, फल हित प्रमुख वखाणी रे खंति प्रमुख दसविध सदाजी, साधु धरम जे धारइ जी। ते संवर रस अनुभवीजी, जनम मरण भय वारइ जी करम उदय करि आवीयाजी, जेह परीसह जीपइ जी। गयसुकुमाल तणी परइजी, ते दिनि दिनि अति दीपइजी संयम बारह भावना जी, मेलि सतावन भेदइजी। संवर तत्त्व विचारतां जी, असुभ करम बल भेदइ जी
ढाल-९ ध्यान विनय काउसग धरउ रे, वेयावच्च सिझाय। पायछित्त करउ खरउ रे, दसविध धरि निरमाय रे प्राणी धरि संवेग विचारि, सदगुरु वचन संभारि रे प्राणी। तप अणसण छूणोदरी रे, वृत्ति प्रमिति रस त्याग। काम किलेस संलीनता रे, ए तपस्युं धरि राग रतनावलि कनकावली रे, एकावली गुण रयण । सिंघनिक्रीडित बिहुं परइ रे, तप करि धरि गुरु वयण तप विण किम निज आतमा रे, पामइ निरमल भाव । नवमी निर्जर भावनाजी, मन महि भावन भावि
ढाल- १० धन धन गुरुमुखि श्रुत सुणी, जे पालइ गुरु सीखू ए। साध ए सिद्ध तणा घणा, सुख मीठा जिम ईखू ए भावन भावउ भावीया, धरम तणी इणि रीतू ए। भरत इलापुत्र नी परइ, थायइ त्रिजग वदीतु ए
॥४९॥
रे प्राणी०॥५०॥
रे प्राणी०॥५१॥
रे प्राणी०॥५२॥
॥५३॥
भावन०॥५४॥
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श्रुतसागर
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जे निज आतम वसि करी, इंद्रिय विषय विरत्तू ए । मोह तणा दल निरदली, सील धरइ सुपवित्तू ए
मात पिता सुत कामिनी, प्रमुख तजी भव पासू ए । जेह निसंग पणउ धरइ, ते धन सुगुण निवासू ए
तरुण पणइ जे तप तपइ, विषम परीसह जीतू ए । उपसम रस करि पूरीया, सम तिण मणि अरि मीतू ए
इम गुणवंत तणा सदा, गुण ग्रहतां गुण होई । फूल तणइ परिमल गुणइ, तेल तणउ गुण जोई रे
ढाल- १९
ढाल- १२
लहि मानव भव दोहिलउ, वलि सरीर नीरोग । उत्तम कुलि उतपति लही, देव सुगुरु संजोग संवेग रस आणीयइ रे, जाणी श्री गुरुवा आलस प्रमुख तणइ उदइ, आगम श्रवण दुलंभ। सद्दहणा पुणि दोहिली, जिम जल काचइ कुंभि
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श्री जिनसासनि लोक सरूप वखाणीयइ रे, चवदह राज प्रमाण जनम मरण करि वार अनंती फरसीयउ रे, जाणइ ते जगभाण लोकसरूप विचारउ आतमहित भणी रे, निज मन तन थिर राखि । धर्मध्यान ए श्रीमुखि जगगुरु उपदिसइ रे, तीजइ अंगइ साखि भवि भवि भमतां जीव करम वसि आपणइ रे, मात पिता सुत होइ । तेहजि वयर विसेषइ शत्रुपणउ भजइ रे, पंचम अंगइ जोइ वाघिणि भवि सुत देखी साधु सुकोसलउ रे, जोवउ भव परिणाम । वयर तणइ वसि माता सुत आमिष भखइ रे, सारइ ते सिवकाम स्वारथ कारणि जीव तणइ सहूयइ सगउरे, स्वारथ विण सवि दूरि । लोगसरूप इसउ मन माहे चींतवइ रे, धरि उपसम रस पूर
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भावन०॥५५॥
भावन०॥५६॥
भावन०॥५७॥
भावन०॥५८॥
॥५९॥
लोक०॥६०॥
लोक०॥६९॥
लोक०॥६२॥
लोक०॥६३॥
॥६४॥
॥आंकणी॥
संवेग०॥६५॥
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कउडी काज न हारीयइ, जेम कनक नी कोडि । तिम भोगारथि कांइ गमइ, लाधी धरम नी जोडि
जिम समुद्र माहि पाडीयउ, रतन न लाभइ तेह । तिम प्रमाद वसि हारीयउ, धरम दुहेल ह पाम्यउ धरम अछइ इहां, वली लहीस्यइ केम । तिणि करि लाधइ रांकध्रउ, जिम पामइ सुख खेम सुर नर रिद्धि कुसुम जिहां, सिवसुख फल सम जासु । धरम कलपतरु सेवंतां, पूजइ वंछित आ
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कलश
इणि परि बारह भावन जाणी, आणा जिणिंद तणी मनि आणी । अहनिसि जेह धरइ मन माहइ, ते श्री जिनवर धर्म्म आराहइ
January-2019
धामधूम में दिन गए, सोवत हो गई सांझ ।
आगम सुण्यौ न प्रभु भज्यो, जिनगी हो गई वांझ ॥
संवेग०॥६६॥
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संवेग०॥६७॥
संवेग० ॥६८॥
रस वारिधि रस ससिहर वरसइ १६४६, बीकानयर नयरि मन हरसइ । श्रीजिनचंद्रसूरि गुरुराजइ, एह विचार भण्यउ हितकाजइ
प्रमोदमाणिक गणि सुहगुरु सीस, गणि जयसोम कहइ सुजगीस । आदीसर सुरतरु सुपसायइ, एह भणतां सवि सुख थायइ
संवेग०॥६९॥
॥७०॥
॥७२॥
इति श्री बारह भावना संधिः समाप्तः (ता) ॥ छ ॥ संवत् १६८४ वर्षे जेठ सुदि १० दिने लिखितेयं प्रतिः वा० विमलकीर्त्तिगणिभिः । श्राविका पुण्यप्रभाविका धारा पठनार्थं । श्रीरस्तु श्रीः ॥
॥७१॥
हस्तप्रत १२९३८३
भावार्थ - काम-काज में भाग- T-दौड़ करते हुए दिन बीत गए और शाम(रात) तो सोने में ही बीत गई। न आगम सुना (ज्ञान की बातें सुनीं) और न प्रभु का भजन किया, इस प्रकार जिन्दगी निष्फल हो गई ।
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गणि श्रीकीर्तिउदय कृत
वरतीपुरमंडन श्रीमल्लिजिन स्तवन
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गजेन्द्र शाह
अनंत जीवराशि से भरे इस संसार में मोक्ष में जाने वाले जीवों की संख्या शास्त्रों में अनंतवें भाग मात्र ही कही है। वह अनंतवाँ भाग भी ऐसा की सुनते ही हृदय थम जाए। कहा गया है कि एक सूई की नोंक के बराबर आलु के बारीक अंश में ज्ञानियों ने अनंत जीव कहे हैं। उसके भी अनंतवें भाग मात्र ही जीव आज तक मोक्ष में गए हैं। बात यहाँ तक ही सीमित नहीं है। आज से अनंत चौबीसी के बाद भी यदि किसी केवली भगवंत को पूछा जाए तब भी यही उत्तर मिलेगा। कभी भी ऐसा उत्तर नहीं मिलेगा कि एक सम्पूर्ण आलु जितने जीव मोक्ष में गए हैं। उसमें भी गणधरादि पद पर रहकर मोक्ष में जाने वाले जीव बहुत ही कम होते हैं। तीर्थंकर पद पर रहकर मोक्ष में जाने वाले जीव तो अत्यंत ही कम होते हैं । १० कोडाकोडी सागर की एक अवसर्पिणी जितने लंबे काल में मात्र २४ तीर्थंकर होते हैं। तीर्थंकर पदवी विश्व की सर्वोच्च पदवी है। प्रकृष्ट पुण्य के धनी ही इसे प्राप्त कर पाते हैं । ऐसे पुण्य की प्राप्ति भी ‘सवि जीव करुं शासन रसी' जैसी उच्च भावना एवं विशिष्ट तपादि से ही संभव है ।
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तीर्थंकर नाम कर्मोपार्जन करने वाले अनंत पुन्यराशि के धनी जीव को तीर्थंकरत्व के अंतिम जन्म में भी कई बार अघटित प्रतीत होनेवाले एवं आश्चर्योत्पादक पूर्वजन्मकृत कर्मों के फल का भुगतान करना पड़ता है। जैसे भगवान महावीर ने तीसरे भव में उपार्जित नीचगोत्रकर्म को कई भवों में भुगता है, फिर भी कुछ शेष रहे कर्म ने उन्हें देवानंदा की कुक्षि में डाल दिया और फिर गर्भहरण करना पडा, जो कभी न होने वाली एक आश्चर्यरूप घटना का निर्माण हो गया। इस अवसर्पिणी के १० आश्चर्यों में दूसरी भी एक घटना घटित हुई कि तीर्थंकर कभी भी स्त्री के रूप में जन्म नहीं लेते। १९वें तीर्थंकर मल्लिनाथ, पूर्व भव में माया युक्त तप करने के परिणाम स्वरूप स्त्रीत्व को प्राप्त हुए । अनंत अवसर्पिणियों के बाद आनेवाली हुंडा अवसर्पिणी में कर्मों ने तीर्थंकरों तक को नहीं छोड़ा। वे तो उन कर्मों से मुक्त होकर सिद्धत्व को प्राप्त हो गए। परन्तु हम अभी भी इस संसार में भटक रहे हैं। हमारे भी अनादिकालीन क्लिष्ट कर्म नष्ट हों एतदर्थ १९वें तीर्थंकर श्रीमल्लिनाथजी की स्तवनारूप प्रायः अप्रकाशित एक कृति का यहाँ प्रकाशन किया जा रहा है ।
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January-2019
‘वरतीपुरमंडणो मल्लिदेवों' कहकर कर्ता ने प्रभु की स्तवना की है, इससे प्रतीत होता है कि वरतीपुर नाम से मल्लिनाथजी का कोई तीर्थ होना चाहिए। वर्तमान में मल्लिनाथजी के तीर्थ में गुजरात स्थित भोयणी सुप्रसिद्ध है। वरतीपुर के बारे में अभी तक हमें कोई विवरण प्राप्त नहीं हो पाया है। वाचकों से नम्र निवेदन है कि यदि आपके पास इस संदर्भ में विशेष विवरण उपलब्ध हो तो हमें ज्ञात कराने का कष्ट करें कृति परिचय
I
कृति की भाषा मारुगुर्जर है । पद्यबद्ध इस कृति में १४ गाथाएँ, २ ढाल एवं कलश दिया गया है। प्रथम ढाल में श्रीमल्लिनाथजी की स्तवना की है। दूसरी ढाल में कर्ता ने अपनी गुरु परंपरा का उल्लेख किया है और कलश में फलश्रुति देते हुए कहा है कि मोहांधकार के निवारक, अच्छे दिन देने वाले, सूर्य के समान उत्तम ऐसे ये जिनेश्वर यदि मिल जाएँ तो दुर्गति के भय व सारे कष्ट दूर हो जाएँ । मनोवांछित फल की प्राप्ति हो जाए और हृदय हर्ष से भर जाए ।
कृति का रचना वर्ष ‘वेदसायकरसचंद' वि.सं. १६५४ है। कृति के रचना स्थल के बारे में कोई विवरण उपलब्ध नहीं है। 'वरतीपुरमंडणो मल्लिदेवो' के नाम से स्तवना की है तो संभव है कि रचना भी उसी स्थल पर की हो । गाथा ७, ८, १० के अंत में एक अतिरिक्त पद भी दिया गया है। इस भावपूर्ण कृति की शब्दरचना वाचक को विशेष प्रभावित करती है। कृति में कर्ता ने प्रभु के माता-पिता के नाम, लंछन और वर्ण को समाविष्ट करते हुए एवं मिथ्यादेवों को छोड़कर मल्लिजिन को भजने का निर्देश देते हुए स्तवना की है। प्रारंभ में दिया गया पद 'सुखसागरीया रे, तोनि वीनवुं वारोवार' आंकणी का पद दूध में रही शक्कर की तरह कृति की मधुरता में अभिवृद्धि करता है । कर्ता परिचय
प्रस्तुत कृति के कर्ता श्रीकीर्तिउदय गणि तपागच्छीय विद्वान हैं। उनके गुरु का नाम चारित्रोदय गणि और गच्छनायक श्रीविजयसेनसूरि महाराज थे। कर्ता का समय कृति के रचनावर्ष के आधार पर वि. १६५४ माना जाता है। आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा में संग्रहित सूचनाओं के आधार पर कर्ता की अन्य एक कृति ‘महवीरजिन स्तवन' है। यह कृति भी प्रस्तुत कृति के साथ एक ही प्रत में उल्लिखित है एवं यह भी प्रायः अप्रकाशित है । कर्ता की अन्य कृतियाँ तथा शिष्यपरंपरादि के बारे में विशेष जानकारी अनुपलब्ध है।
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श्रुतसागर
जनवरी-२०१९ प्रत परिचय
प्रस्तुत कृति का संपादन आचार्य श्रीकैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा की एक मात्र प्रत क्र. ४०७८८ के आधार पर किया गया है। एक ही पन्ने की इस संपूर्ण प्रत में दो कृतियाँ हैं। दोनों ही कृतियाँ एक ही कर्ता की हैं और उनमें से 'मल्लिजिन स्तवन' कृति प्रथम क्रमांक पर है। प्रत की लिखावट सामान्य व सुवाच्य है, लेकिन अधिक मात्रा में पानी से विवर्ण होने के कारण अक्षरों की स्याही फैल गयी है अतः ध्यान से पढने पर पाठ ग्राह्य हो पाता है। प्रत की स्थिति मध्यम है। प्रत की लंबाई-चौडाई २६४११ है। पंक्ति संख्या १६ से १७ एवं प्रति पंक्ति अक्षर संख्या लगभग ५१ है। श्याम पार्श्वरेखाओं से युक्त एवं गेरु लाल रंग से अंकित विशेष पाठों वाली इस प्रत का समय वि.१८वीं होना संभव है। प्रत के अंत में प्रतिलेखन पुष्पिका न होने से लेखकादि की सूचनाएँ अप्राप्य हैं।
वरतीपुरमंडन श्रीमल्लिजिन स्तवन O॥ सरस्वत्यै नमः॥ सुखसागरीया रे, तोनि वीनवं वारोवार । तोनि भेटवा हरख अपार, तारुं दरसण दि एक वार ॥ सुखसागरीया रे तोनि वीनकुंवारोवार कुंभ नरेसर कुंयरू रे, शुभ गुणरयण भंडार। त्रिभुवन तिलक समाणडउ रे, उ जयउ जगदाधार
सुख०॥२॥ धन धन देवी प्रभावती रे, जस कुखि तुझ अवतार । कंभ(कुंभ) लंछण रुलियामणउ रे, तीन भुवन सिणगार
सुख०॥३॥ देवपणु धन ताहरु रे, सयल जीव हितकार। एकमना आराहिउ रे, मुगति दीइ निरधार
सुख०॥४॥ ज्ञान अनंत प्रभु ताहरुं रे, बल अनंत उदार । समर्यां संकट तुं दलइ रे, आपइ भवनु पार
सुख०॥५॥ हरिहर ब्रह्मादिक घणारे, देव या नामधार । विषय कषाय विलादिया रे, खेलइ खेल हजार
सुख०॥६॥
॥१॥
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सुख०॥७॥
सुख०॥८॥
सुख०॥९॥
सुख०॥१०॥
SHRUTSAGAR एहवां देव न मानीय रे, जु होइ अकल लिगार। ते किम भगतनि उद्धरइरे, जे धरइ नवा अवतार । देव जि लीइं नवां अवतार मुगति तणा जे अरथीआ रे, ते सुणउ एह विचार । देव ति कोई ज सेवीइ रे, जे तरीयु संसार । देव जे न पडइ संसार मल्लि जिणिंद वालउ मुझ मिल्युरे, अनंत सुख दातार। प्रह ऊठीनि जे नमइं रे, ते तरसी संसार नीलवरण तनु अति भलु रे, तेज तणो अंबार । दरसण द्यु प्रभु आपणुं रे, विनतडी अवधार। म्हारी वीनतडी अवधार
॥राग-धन्यासी॥ चिरं जयउ चिरंजयउ सयल मुनिनायको, श्रीतपगछर्नु एह राजा। श्रीविजयसेनसूरि परम भट्टारको, दिन दिन दीपता बहू दिवाजा प्रचुर पंडित तारा गण सारिसा, तेहमाहि चंदसमुप विराजइ । प्रवर पंडित चारित्रउदय गणि, भूरि भविकनि ए निवाजइ वेदसायकरसचंद संवछरो वरतीपुरमंडणो मल्लिदेवो। कीर्तिउदय थुण्यु सुरतरुसम गण्यु, मुगतिगामी तुम्हे नित्य सेवो
॥कलस॥ मई भगति आणी केवलनाणी, गायुं मल्लि जिणेसरो। मोहतिमिर वारण सुदिन कारण, उत्तम एह दिणेसरो। मनवांछित पूरइ दुःख चूरइ, कुगतिना भयना निरदलीइ। हीउं हरख भरीइं भवनिधि तरीइ, एवां साहिब जु मिलइ
॥ इति श्रीमल्लिदेव संस्तवं संपूर्णमिति ॥
चिरं०॥११॥
चिरं०॥१२॥
चिरं०॥१३॥
॥१४॥
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जनवरी-२०१९ सोळमा शतकनी गुजराती भाषा
___मधुसूदन चिमनलाल मोदी रा. केशवराम शास्त्रीए सं. १४५९नु जे खत छपाव्यु छे तेनी वास्तविकता पूरवार करवा तेमणे सं. १४७४ना पावळीआना लेखनो टेको लीधो छ । स्वरयुग्म अउ ओ थयानो तेमां पूरावो रजु को छ । पावळिया सामान्य रीते माणसना मरण पछी ऊभा करवामां आवे छे; एटले व्यक्तिना मरणनो सालदिवस एज पावळिया लखाणनो सालदिवस होय एम मानवाथी आपणे प्रमाणाभासमां पडीए छीए सं. १४५९ वाळा खत संबंधे मारे एटलुं ज पूछवानुं के ते काले प्रवर्तमान विभक्तिना अनुषंगी शब्दो जेवा के रहइ, तउ, थउ (जे मुग्धावबोध-औक्तिकमां निर्दिष्ट छे) तेना प्रयोग तेमां मालूम पडे छे? जो ए तेमां मालम न पडता होय तो दस्तावेज अने पावळीआनो समय संदिग्ध ठरे छे। लेखनप्रकार आंतरिक भाषा-घडतरना अनुवादात्मक पूरावा तरीके होइ शके; नहि के स्वतन्त्र पूरावा तरीके. अत्यारसुधीनां बधां विवेचनोमां आ लेखनप्रकारना पूरावा (स्वरयुग्म अइ=ए अने अउ ओ)नो स्वतन्त्र पूरावा तरीके उपयोग थयो छे। पंदरमा अने सोळमां सैकामां ‘जालहर'-मारवाडथी मांडी प्रभास पाटण अने जूनागढ तरफ पश्चिममां अने नवसारी सुधी दक्षिणमां घडतरमां सरखी ज गुजराती भाषा प्रवर्तमान हती। सोळमा सैकाना आदिमां आ अनुषंगी शब्दो वपराशमां ओछा थवा लाग्या। ते काळना गद्यनां अवतरणो सालवारी प्रमाणे उपर टांक्यां छे ते उपरथी आ विधाननी यथार्थता समजी शकाशे।
उपर जेम गद्यनी चर्चा करी तेवीज रीते सोळमा सैकानी कविताना पूरावा उपरनु विवेचन अनुपूर्ति तरीके आपq सयुक्तिक छ। लेखनप्रकारनी बाबतमां बहु सावचेतीथी पूरावा आपवानी जरूर छे। श्री नरसिंहरावे Gujarati Language and Literature Vol ll P. 205-207 पर आपेला नियमो सामान्य रीते हाथप्रतोनी भाषा पारखवा काजे स्वीकार्या छे । ते काळना कविओनी भाषा चर्चा माटे नीचेनो कोठो ठीक थई पडशे:कवि ग्रंथनाम रचना साल
हाथप्रतनी सा. जयशेखरसूरि त्रिभुवनदीपक प्रबंध पंदरमो सैको आशरे १४६२ x शालिसूरि विराटपर्व
सं.१६०४ वसंतविलास
सं.१५०८
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वछ
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पद्मनाभ
भीम
मृगाङ्कलेखा स
भालण
हर्षकुल
कर्मण
जनार्दन
लावण्यसमय
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कान्हडदेप्रबंध
हरिलीला
कादंबरी
वसुदेवचुप
सीताहरण
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सं. १५२०नीं आसपास
"
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सं.१५१२
सं. १५४१
सं.१५७४
सं. १५५० आशरे
सं. १६७२
सं. १५५७
सं.१६०६
सं. १५२६
सं. १६०५
उषाहरण
सं. १५४८
सं.१६७३
विमलप्रबंध
सं. १५६८
सं. १५८४
जयशेखरना त्रि. दी मां रहइ तेमज बीजा अनुषंगी शब्दोना प्रयोग मालूम पडे छे; जो के आ ग्रंथनी प्रतो मोडा समयनी मळे छेः दा. त. पं. लालचंदनी आवृत्ति; पा. १४.
सूकां तृणां चरई वनवासु न करई कहिनउ किसिउ विणासु । ते मृग ऊपरि आयुध वहइं अम्हरहइं विविर्जिऊं मूरख भाई ॥
January-2019 सं.१५८२
कासमीरमुखमंडण माडी तूं समी जगि न कोइ भिराडी गीतनादि जिम कोइल कूजइ तूं पसाइ सवि कुतिग पूजइ ॥ भारती भगवती एक मागूं चित्त पांडव तणे गुणि लागउं आपि मूं वचन तूं रसवांणी हूं करउं जिसिं प्राकृत वाणी । पंच पंडवि वनंतरि विमासिउं तेरिमूं वरस केमि गमेसिउं बुद्धि नारदि महारिषि आपी मध्यदेश रहियो तुझि व्यापी ॥ षेजडीसिहिरि शस्त्र नियुंज्या देहरूप वलि मंत्र प्रयुंज्या द्रुपदीरहइं ते मति आली ग्या विराट नृपमंदिरि चाली ॥
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सं. १६५७
X
शालिसूरिना विराटपर्वमांथी नीचेनो भाग टांकुं छं. वाचके ध्यानमां लेवानुं छे के हाथप्रतनो लखाया संवत जो के १६०४ छे पण विक्रमना पंदरमा शतकना पूर्वार्धनुं आ काव्य होवुं जोईए। आ काव्य अप्रसिद्ध छे अने गायकवाड ओरीएन्टल सीरीझमां प्रो. बळवंतराय ठाकोर, श्री. मोहनलाल दलीचंद देशाई अने मधुसूदन चिमनलाल मोदीथी संपादित थवाना पंदरमा अने सोळमां शतकना गुजरातीना काव्यसंग्रहमां तेनुं स्थान छे। शरूआतनो भाग टांकुं छुः
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जनवरी-२०१९ __पंक्ति ३. तणे अने पं. ६. रहियो आ पाछळनी लेखन प्रकारनी असर जणाय छे; पं. ८मां रहइं अनुषंगी शब्दनो प्रयोग छ । आखा य काव्यमां अजाण्ये समकालीन लेखनप्रकार कोक कोक वार देखा दइ दे छे।
आ पछी सं. १५०८मां लखायेलुं वसंतविलासमांथी दाखलो लउं छु । आ काव्य गू.व. सो. तरफथी दि. बा. के. ह. ध्रुव संपादित प्राचीनगुर्जरकाव्यमां लेवामां आव्यु छे:
रहइनो प्रयोग श्री नरसिंहरावनां Lectutes ll P 122 प्रमाणेः वालंभ रहइं सुविचार । (st 72); ज्यारे दि. बा. के. ह. ध्रुवनी वाचना प्रमाणे प्राचीन गुर्जर काव्य पा. २२
कडी. ७०) एकि रे दिइ बाली ताली छन्दिहिं रास एक दिइ उपालम्भ रे वालम्भरि सविलास
एज प्रमाणे कडी ३० : बउलविलूधला महुअर बहु अ रचइं झणकार मयणर हइ आणन्दण वन्दण करइ कइ वार ॥
बीजी पंक्तिमां-मयणर हइं आमन्दण ए वाचना ठीक होय; अथवा तो मयणरि हइआणन्दण एम हो, जोईए रहइं, रि छट्ठी विभक्तिमां प्रयुक्त।
आखं काव्य तत्कालीन भाषाविशेषोथी भरपूर छ । स्वरयुग्म अइ=अइ, इ, ए
(दा.त. ए ए जवल्लेज कडी ३२ के कि) अउ अउ अने उ. सोळमां सैकानी शरुआतमां छिए ते दृश्यमान थाय छे।
तेज प्रमाणे सं. १५१२नो कान्हडदेप्रबंध. लगइ= ‘थी' 'साथे'ना अर्थमां तहीं लगई जगि जालहुर जण जम्पइ इणि कालि॥
(देरासरी. आवृ. १. पा. २ कडी ७) तिणि अवगणिउ माधव बम्भ तांहि लगइ
विग्रह आरम्भ (सदर. पा. २. कडी ७) रहइं=री छट्ठीना प्रयोगे कोइ कहेशे के आ तो मारवाडीनी असर छ । पण ते
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January-2019 मनातुं नथी कारण के जो एम होय तो रो, रा, रुना प्रयोयो साथे होय ते नथीः रंग बिरंगी मूहगइ मूलि पहिरइ एक कणयरी अलि।
(सदर. पा. ७५. कडी ४८) स्वरयुग्म संबंधे अने जोडणी चर्चा विषे जुओ
श्री नरसिंहराव Lectures LL P 30-31. अइना ए थयानां सोळेक स्थळो कान्हडदेमांथी टांक्यां छे।
वछना मृगांकलेखारासमांथी अवतरणो आपुं छु। आ काव्य पण सोळमाना पूर्वार्धमां लखायु छ । अउनो ओ थवा विषे चर्चा आ काव्यनी सं. १५८२नी हाथप्रतर्नु अवतरण लई आ लेखना प्रथम भागमा विवेचन कर्यु छ । स्वरयुग्म अइ=इ अने अइ क्रियापदना वर्तमानकाळना लीजा पुरुष, एकवचनमां मालूम पडे छे; ज्यारे तृतीया अने सप्तमी एकवचननां नाम तथा सर्वनामनां रूपमां ठेरठेर ए मालूम पडे छ । आज्ञार्थ बीजो पुरुष एक वचनमां पण इने स्थाने ए छे। बीजी साल वगरनी प्रत रूढ अने शिष्ट लेखनप्रकारे लखाई छे; हाथपोथीनो अक्षरमरोड सुंदर होई तेमां तत्कालीन लौकिक लेखनप्रकार मालूम पडतो नथी। आरास सोळमा सैकाना पूर्वार्धनो छे ते माटे नीचेना पूरावा छे।
कन्हलि=पासे कुमरकन्हलि तव आवीड मंत्री मुख निरखिइ। (कडी ३४९) थउ उपरथी. कुमर तुरियथउ ऊतरिउ मिलि मारगि चालइ। (कडी ३५४) कहीइं प्रीइं पसाउ न करिउ कहिसिइ गरभ किहांथउ धरिउ। (कडी १६२) रइं = रहइँ =ने अम्हरइं चडी अपूरव नारि । (कडी. २३८)
केटलीक हाथप्रतोमां अम्हनइं पाठ जडे छे; ए बतावे छे के जूनी शैली केवी रीते लहिआ तरफथी बदलवामां वती हती.
लगइ मांथी कटक लगइ सहू संवल दीध । (कडी. १८२) रेसि माटे
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ललतां अंगना बेटा रेसि । (कडी. ३९०)
पाहिं=करतां पाखि=सिवाय त्यादि शब्दोना प्रयोगोनां अवतरणो विस्तार भये ज
छोडी दउं छु ।
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जनवरी-२०१९
कर्मणनुं सीताहरण, भालणनी कदंबरी, हर्षकुलनी वसुदेवचउपइ, भीमनी हरिलीला, जनार्दननुं उषाहरण, लावण्यसमयनो विमलप्रबंध
आ ग्रन्थोमां प्रयोगो नहि जेवा ज बल्के अदृश्य थइ जाय छे रेसिनो प्रयोग कंईक अंशे सोळमा सैकाना अंत लगी रहे छे; लगइंनो 'सुधी' अर्थ कायम थाय छे; रहई, ह्रई, अने रइं अदृश्य थाय छे; पाहिं करतां विकृतरूपे अने पाखिं= सिवाय हजु य कविता मां देखा दे छे। थउ नो थो थइने भूलाई जतो ठेठ प्रेमानंद सुधी मळे छे । स्वरयुग्ममां अइनो इ अने ए प्रचलित थयां छे, क्रियापदना वर्त. 3. एक. व. मां ए लखवा करतां इ अने अइ जूना रूढ; ज्यारे ए नवो प्रचारमां आवे छे अने लौकिक उच्चारनां अनुबिंबसमा लखाणमां ए जोवामां आवे छे, अउनो ओ लखायेलो सारी हाथप्रतोमां पण सोळमा सैकाना उत्तरार्धमा जोवामां आवे छे। पण साथे साथे अउनां ऊ, उ अने अउ पण जोवामां आवे छे। लेखनप्रकारनां प्रमाणो अनुवादी प्रमाणो तरीके ठीक छे पण भाषाना स्वतन्त्र निर्णय माटे तो भाषाप्रयोगोनां प्रमाणो स्वतन्त्र अने सबळ छे ।
रूढिथी शिष्ट लेखनप्रकारमां सं. १५७४ भीमनी हरिलीला नी हाथप्रत गु. व. सो. ना संग्रहमां छे, तेमां क्रियापद वर्त. 3. पु. ए. व. मां अइनो अइ अने केटलेक स्थळे इ कर्यो छे. माथे मात्राने बदले पडीमात्रा घणे स्थळे प्रयुक्त छे; ज्यारे मारी मृगांकलेखारासनी सं. १५८२ नी प्रत शिष्ट लहिआनी लखेली न होइ घणी वार तत्कालीन उच्चारना अनुबिंबसमा लेखनप्रकारमां घणीवार सरी पडे छे।
लावण्यसमयनो विमल प्रबंध जे सं. १५८४ मां लखायेली प्रत प्रमाणे अक्षरशः प्रसिद्ध करवामां आव्यो छे तेमांथी नीचे टांचण आपुं छुः
रामा रंगि रमि सोगठे देतां दांन भोज इ हठे ।
नाचइ रंभ तिलोत्तम जोड कुतिगीआना पुहचि कोड ॥
ऊपरनां दृष्टांतमां क्रि. वर्त. ३. पु. ए. व= रमि, हठे नाचइ, पुहचि, हठे बतावे छे के क्रियापदमां अइनो ए लौकिक व्यवहारे प्रचारमां आव्यो हतो ।
६. ऊपरनी चर्चानी तारवणी नीचे प्रमाणे छे।
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प्राकृतप्रचुर तल गुजरातनी साहित्यभाषा, संस्कृतप्रचुर तल गुजरातनी साहित्यभाषा अने तल काठिआवाडनी लोकभाषा ए भेद तद्दन असमंजस छे। सोळमा
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January-2019 सैकानी गुजराती भाषा ब्राह्मणो, जैनो, पारसीओ अने वळी काठियावाडीओमां पण एक ज हती। काठिआवाडी लोकभाषानी असरने लीधे गुजरातनी भाषामां महत्वना फेरफार थयानुं मतमंडन वजुद वगरनु ठरे छ।
स्वरयुग्म अउनो ओ अने उ लखवानो प्रचार सोळमाना उत्तरार्धमां अस्तित्वमां आव्यो । आत्रणेयनो उच्चार अ+अ+उ अने वनी वचटनी असर आथी करीने (अउ=) ओ अन उ एक बीजाना प्रास तरीके वपराता। कोक स्थळे उ अने अनो पण प्रास तरीके उपयोग थतो। अउ जो के पंदरमा सोळमा सैकामां लेखन प्रकारे लखातुं पण ते ऊपर बताव्यो तेम-अथवा श्री. नरसिंहराव जेने अर्धविवत ओ कहे छे तेम-उच्चार थतो। आ उच्चार प्रमाणे अइनो पण अर्धविवृत्त ए उच्चार थतो जो को लेखनप्रकारमां इ, ए, ए, अ, इय एय विकल्पो सोळमा सैकानी उत्तरभागनी हाथप्रतोमां देखा दे छे। अइने इ अने अइ तरीके लखवानी रीति शिष्ट लेखको अनसरता कारण के सोळमाना अंत सुधी अने ते पछी लगभग अर्ध सैकुंए शिरस्तो चालु रह्यो एम हाथप्रतो उपरथी मालम पडे छे। लेखनप्रकार अने उच्चार ए समान न हता; पण केटलीकवार एम मालम पडे छे के रूपबंध छंदोमां के प्रासमां अपवाद तरीके उच्चार लेखनप्रकार प्रमाणे विकृत करातो।
(क्रमशः) बुद्धिप्रकाश, पुस्तक -८२ अंक-१ मांथी साभार
F श्रुतसागर के इस अंक के माध्यम से प. पू. गुरुभगवन्तों तथा अप्रकाशित कृतियों के ऊपर संशोधन, सम्पादन करनेवाले सभी विद्वानों से निवेदन है कि आप जिस अप्रकाशित कृति का संशोधन, सम्पादन कर रहे हैं अथवा किसी महत्त्वपूर्ण कृति का नवसर्जन कर रहे हैं, तो कृपया उसकी सूचना हमें भिजवाएँ, जिसे हम अपने अंक के माध्यम से अन्य विद्वानों तक पहुँचाने का प्रयत्न करेंगे, जिससे समाज को यह ज्ञात हो सके कि किस कृति का सम्पादनकार्य कौन से विद्वान कर रहे हैं? इस तरह अन्य विद्वानों के श्रम व समय की बचत होगी और उसका उपयोग वे अन्य महत्त्वपूर्ण कृतियों के सम्पादन में कर सकेंगे.
निवेदक सम्पादक (श्रुतसागर)
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जनवरी-२०१९ पुस्तक समीक्षा
राहुल आर.त्रिवेदी पुस्तक नाम - स्याद्वादपुष्पकलिका स्वोपज्ञ 'कलिकाप्रकाश' वृत्तियुता कर्ता - उपाध्याय श्रीचारित्रनन्दी संपादक - मुनि वैराग्यरतिविजय म.सा. प्रकाशक - श्रुतभवन संशोधन केन्द्र, पूना प्रकाशन वर्ष - २०७१(ई.२०१५), आवृत्ति- प्रथम कुल पृष्ठ - ३२+१८४+२=२१८ भाषा - संस्कृत
भगवान महावीर के समय भिन्न-भिन्न अनेक वाद प्रचलित थे, अनेक दृष्टियाँ विद्यमान थीं। सभी अपने-अपने पक्ष को स्थापित करने में लगे हुए थे। जीव, जगत
और ईश्वर के विषय में प्रश्न उठा करते थे। उनके नित्यत्व और अनित्यत्व के विषय में विवाद होते रहते थे। जीव और शरीर भेदाभेद को लेकर विवाद चलता रहता था, इन सभी उत्तरों के प्रति महावीरस्वामी ने उन विरोधी वादों का समन्वय करके उनके स्वीकार में अनेकान्तवाद की प्रतिष्ठा की। संसार के सभी व्यवहारों में कहीं न कहीं अनेकान्तवाद का आश्रय अवश्य लेना पड़ता है। अनेकान्तवाद के बिना संसार का सामान्य व्यवहार भी संभव नहीं है। अनेकान्तवाद सर्वत्र व्यापक है, इतना ही नहीं अपितु अनेकान्तवाद को गुरु की उपमा दी गई है। अतः यहाँ अनेकान्तवाद या स्याद्वाद को नमस्कार किया गया है। जिस तरह गुरु ज्ञानरूपी दीपक से अज्ञानतारूपी अंधकार का नाशक होता है, उसी प्रकार स्याद्वाद तत्त्व की अज्ञानता का नाशक एवं ज्ञानरूपी प्रकाश को देने वाला होता है। ऐसे ही सम्यग्ज्ञानरूपी प्रकाश को प्रकाशित करने के लिए संपादक मुनि श्रीवैराग्यरतिविजय म.सा. ने श्रुतभवन संशोधन केन्द्र, पूना से उपाध्याय श्रीचारित्रन्दी विरचित स्वोपज्ञ कलिकाप्रकाश वृत्ति युक्त स्याद्वादपुष्पकलिका को “स्याद्वादपुष्पकलिका स्वोपज्ञ कलिकाप्रकाशवृत्तियुता” नाम से प्रकाशित किया है।
स्याद्वादपुष्पकलिका द्रव्यानुयोग का ग्रंथ है। द्रव्यानुयोग विषयक ग्रंथ की परिभाषा कठिन होती है, अतः वे दुरूह होती हैं। उसके अध्येता भी अल्प होते
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January-2019 हैं। इसलिए द्रव्यानुयोग विषयक ग्रंथ की संख्या अति अल्प है। यद्यपि ग्रंथ की परिभाषागत कठिनाईयों के कारण द्रव्यानुयोग को सरल भाषा में प्रस्तुत करना चुनौतीपूर्ण कार्य है, तथापि वह द्रव्यानुयोग को सरल भाषा में प्रस्तुत करता है, अतः इसका समीक्षात्मक संपादन करना आवश्यक माना गया है। स्याद्वादपुष्पकलिका के संशोधन में तीन प्रमुख समस्याएँ थीं - १) इस ग्रंथ की केवल एक ही पाण्डुलिपि थी। २) लेखन की दृष्टि से पाण्डुलिपि अशुद्ध थी। ३) मूल ग्रंथ भी व्याकरण की दृष्टि से अशुद्ध था। इन समस्याओं के कारण पाठसंशोधन में कठिनाईयों का अनुभव हुआ। समीक्षात्मक-पाठसंपादन के अनुलेखनीय-संभावना और आंतर-संभावना के सिद्धांतों का उपयोग करके इस ग्रंथ को यथासंभव शुद्ध संपादन करने का प्रयास पूज्यश्री ने किया है। ___ पुस्तक के प्रारंभ में चारित्रनंदी विरचित संस्कृत भाषाबद्ध स्वोपज्ञ वृत्तिसहित २६० श्लोकों को विषयानुसार विषयानुक्रम दिया है। कृति के कर्ता जिनका साहित्य सर्जन काल वि.सं. १८९० से १९१५ है, जो चुन्नीजी महाराज के नाम से प्रसिद्ध खरतरगच्छीय विद्वान थे ऐसे चारित्रनंदीजी महाराज की गुरुपरम्परा व अन्य रचनाओं का परिचय भी दिया गया है। अंत में दस परिशिष्ट दिए गए हैं, जिसमें स्याद्वादपुष्पकलिका मूलमात्र, गाथानामकारादिक्रम, स्थलसंकेत, विषयसारणि, पारिभाषिक शब्दकोश, व्याख्याकोश, विशेषनामकोश, श्रीदेवचंद्रजीकृत नयचक्रसार, संक्षेपचूचि एवं सम्पादनोपयुक्त ग्रंथसूचि भी दी गई है।
इस पुस्तक का मुद्रण भी बहुत सुंदर ढंग से किया गया है। आवरण भी कृति के अनुरूप आकर्षक व संदेशपरक बनाया गया है। ग्रंथ का सुचारू रूप से समीक्षात्मक संपादन व अनेक प्रकार के परिशिष्टों में अन्य कई महत्त्वपूर्ण सूचनाओं का संकलन करने से प्रकाशन बहूपयोगी हो गया है।
इस पुस्तक के माध्यम से स्याद्वाद के विषय में तथ्यपरक जानकारी प्राप्ति होती है। संघ, विद्वद्वर्ग तथा जिज्ञासु इस प्रकार के उत्तम प्रकाशन से लाभान्वित होंगे। इस प्रकार श्रुतभवन की यह सर्जनयात्रा जारी रहे ऐसी शुभेच्छा है।
अन्ततः यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि प्रस्तुत प्रकाशन जैन साहित्य के जिज्ञासुओं को प्रतिबोधित करता रहेगा। इस कार्य की सादर अनुमोदना के साथ कोटिशः वंदन।
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जनवरी-२०१९
समाचारसार
पूज्य राष्ट्रसंत आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराजा का इन्दौरनगर में
भव्यातिभव्य प्रवेश परमपूज्य राष्ट्रसन्त आचार्य भगवन्त श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. आदिठाणा का दि. ३०-१२-२०१८ रविवार के दिन मध्यप्रदेश के इन्दौरनगर में मंगलमय प्रवेश हुआ। इस प्रवेश महोत्सव में श्वेताम्बर जैन मूर्तिपूजक श्रीसंघ कालानीनगर, श्री नीलवर्णा पार्श्वनाथ जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक ट्रस्ट, कंचनबाग तथा श्री वीरमणि चन्द्रप्रभस्वामी जैन श्वेताम्बर मन्दिर एवं उपाश्रय रिलीजियस ट्रस्ट, ओएसिस टाउनशिप इन्दौर ने भाग लिया था।
प्रातःकाल ९.०० बजे कंचनबाग से शोभायात्रा का प्रारम्भ हुआ, जिसमें संगीत के साथ भजनों की प्रस्तुति करती हुई महिलाएँ, बैंड-बाजों की धुन पर आनन्दमग्न होकर थिरकते हुए युवावर्ग तथा जगह-जगह अगवानी करते हुए जैनसंघ साथ-साथ चल रहे थे। इस शोभायात्रा का समापन ९.३० बजे बास्केटबॉल रेसकोर्स रोड पर हुआ। वहाँ पहुँचकर विशाल धर्मसभा का आयोजन किया गया, जिसमें नीलवर्णा जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक ट्रस्ट के अध्यक्ष श्री विजय मेहता, श्री शान्तिप्रिय डोशी तथा श्री कल्पक गाँधी के साथ-साथ उज्जैन, देवास, रतलाम तथा नागदा सहित अनेक शहरों के गुरुभक्तों ने उपस्थिति दी थी। इस अवसर पर श्री प्रदीप कासलीवाल, श्री चन्दनमल चोरडिया, श्री हसमुख गाँधी, डॉ. प्रकाश बांगानी, श्री बीसी बेताला, श्री हंसराज जैन, श्री संजय मोगरा, श्री मनीश सुराणा, श्री शेखर गेलड़ा, श्री बसन्त लुनिया, श्री विमल नाहर, श्री अभय छजलानी आदि जैन समाज के अग्रगण्य महानुभाव भी उपस्थित थे।
धर्मसभा को सम्बोधित करते हुए परम पूज्य राष्ट्रसन्त ने कहा कि मनुष्य के लिए गलती को स्वीकार करना बहुत मुश्किल है। व्यक्ति का स्वार्थ और अहंकार उसे ऐसा करने से रोकता है। इसके कारण आत्मा का उत्थान नहीं हो पाता है। उन्होंने बताया कि अन्तरात्मा की आवाज उसे रोकती है, टोकती है, लेकिन वह अन्तरात्मा की आवाज को सुन नहीं पाता है। हमें इस विषय पर चिन्तन करना चाहिए । ____ मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ के राज्यपाल श्रीमती आनंदीबेन पटेल की उपस्थिति ने इस महोत्सव की शोभा में चार चाँद लगा दिये । पूज्य राष्ट्रसन्त ने उन्हें आशीर्वाद प्रदान किया तथा जैनसंघ के अग्रगण्य महानुभावों के द्वारा श्रीमती आनन्दीबेन पटेल का सम्मान किया गया । धर्मसभा के बाद समारोह में पधारे हुए सभी महानुभावों की साधर्मिक भक्ति की गई। वहाँ से परमपूज्य आचार्य श्री ने शौरीपुर तीर्थ की ओर प्रस्थान किया।
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पूज्य राष्ट्रसंत आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराजा के इन्दौर नगरप्रवेश की झलकियाँ.
मनुष्
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COR
पूज्य राष्ट्रसंत आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराजा से आशीर्वाद ग्रहण करती हुई मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ के राज्यपाल श्रीमती आनंदीबहन पटेल
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जैन समाज की ओर से श्रीमती आनन्दीबहन पटेल का सम्मान करते हुए कंचनबाग संघ, इन्दौर के अध्यक्ष श्री विजय मेहता, श्री शान्तिप्रिय दोशी व श्री अरुणभाई दागड़िया.
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Registered Under RNI Registration No.GUJMUL/2014/66126 SHRUTSAGAR (MONTHLY). Published on 15th of every month and Permitted to Post at Gift City So, and on 20th date | of every month under Postal Regd. No. G-GNR-334 issued by SSP GNR valid up to 31/12/2021. 8. संवर भावना ११.लोकस्वरूप भावना | 12. बोधिदुर्लभ भावना धर्म द्वीप ९.निर्जरा भावना 10. धर्म भावना 12 भावना के प्रतीक 5 चित्र. BOOK-POST/PRINTED MATTER प्रकाशक श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा जि. गांधीनगर 382007 फोन नं. (079) 23276204, 205, 252 फेक्स (071)23276249 Website : www.kobatirth.org email: gyanmandir@kobatirth.org Printed and Published by : HIREN KISHORBHAI DOSHI, on behalf of SHRI MAHAVIR JAIN ARADHANA KENDRA, New Koba, Ta.&Dist. Gandhinagar, Pin-382007, Gujarat. And Printed at : NAVPRABHAT PRINTING PRESS, 9, Punaji Industrial Estate, Dhobighat, Dudheshwar, Ahmedabad-380004 and Published at : SHRI MAHAVIR JAIN ARADHANA KENDRA, New Koba, Ta.& Dist. Gandhinagar, Pin-382007, Gujarat. Editor : HIREN KISHORBHAI DOSHI 36 For Private and Personal Use Only