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SHRUTSAGAR
17
January-2019
एक०॥२१॥
एक०॥२२॥
एक०॥२३॥
एक०॥२४॥
एक०॥२५॥
एक०॥२६॥
ढाल ४ एक पणउ जगि जीवनइ, जोवउ हीयइ विमासि। धरम पक्षइ सवि जीवडा, परिभमइ उदास परभव थी चवि एकलउ, आवइ वलि जाइ। जनम मरण पुणि एकलउ, कोई सरणइ न थाइ मात पिता सुत कामिनी, परिजननइ माहि। असुभ करमि जीव एकलउ, लीजइ दुरगति साहि पाप करि धन मेलवइ, अति चंचल चित्त । परभवि जातां सवि मिली, वांटी ल्यइ वित्त रोगादिक दुख एकलउ, वेदइ निरधार । वांटी न सकइ कोइ सगउ, जाण्यउ सयणाचार जीव अनाथीनी परइ, जागउ जिनवाणि। परमारथ जाण्यां पषइ, किम कहीयइ जाण
ढाल ५ जीवहां थकी ए जूजूआ, धण सयण परियण जोइ। आपणइ साजण तूं गिणे, इक जिनध्रम हो जिहां थी सुख होइ आप सवारथ जग सहू रे, परकारण रे तूं कांइ गमार। पाप करी रोतउ भरइ रे, सुखकारण रे धरम संभारि संध्या समइ जिम तरुवरइ, पंखीया मिलि विलसंति। परभाति पहुचइ दह दिसइ, इम परिजन रे निज मन तूं चिंति जिम चरण वेला गो मिलइ, गोवालीयइनइ पासि। पाछिलइ दिनि निज निज घरइ, वलि पहुचइ रे तिम ए घरवासि पंथीया पंथइ जिम मिलइ, संध्या समय इक गामि । जूजूआ जायइ प्रहसमइ, तिम सयणां हो संगम इक ठामि धन तेह जे निज सुख भणी, गिणि सर्व संग असार । संवेग रस मांहि झीलता, मन रंगइ रे ल्यइ संजम भार
॥२७॥
आप०॥२८॥
आप०॥२९॥
आप०॥३०॥
आप०॥३१॥
आप०॥३२॥
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