Book Title: Shrutsagar 2019 01 Volume 05 Issue 08
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 11
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 11 SHRUTSAGAR January-2019 हुआ है। आयुष्य की पत्तियाँ हिलेंगी और जीवन का ओस सूख जाएगा। इसलिए व्यक्ति को क्षणभर भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। वर्षाकाल में बालक क्रीडा हेतु रेत से घर बनाता है। बरसात होते ही घर ध्वस्त हो जाते हैं। उसी प्रकार यह शरीर अनित्य है। ऐसा चिन्तन करना अनित्य भावना है। २. अशरण भावना- जैसे सिंह हिरण को पकड़कर ले जाता है, वैसे ही मृत्यु मनुष्य को ले जाती है। तब माता-पिता व भाई आदि कोई भी बचा नहीं सकते। जीव को अनाथी मुनि और सगर राजा की तरह चिन्तन करना चाहिए कि संसार की कोई भी वस्तु शरणभूत नहीं है। एक धर्म ही शरणरूप है। जो अनेक प्रकार के दुःखों से प्राणी की रक्षा करता है। ३. संसार भावना- जन्म-मरण के चक्र को संसार कहते हैं। जो प्राणी जन्म लेता है वह अवश्य मरता है। इस तरह जीव चार गति के चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता है। अरहट माला के न्याय से वायु के द्वारा प्रेरित पत्ते जिस प्रकार ऊपर-नीचे होते है वैसे ही सभी प्राणी कीट-पतंग, निर्धन-धनी, सौभागी-दुर्भागी, भूपति-भिखारी आदि विविध भव करते हैं। परिभ्रमण के दौरान भोगे हुए कष्टों और विचित्रताओं का तटस्थता से अवलोकन कर जंबूस्वामी और वज्रकुमार की तरह मन को प्रतिबोधित करें कि इस संसार-चक्र से मुक्त कैसे होऊँ? शुद्ध मार्ग पर कैसे चलूँ? ४. एकत्व भावना- आत्मा की दृष्टि से प्रत्येक प्राणी पूर्वभव से अकेला आया है और अकेला जाएगा। जन्म-मरण एवं रोगादि का कष्ट भी स्वयं को अकेले ही सहन करना पडता है। स्वयं के द्वारा किए गए कृत्यों का फल भी स्वयं को ही भोगना पड़ता है। इन सभी में माता-पिता, पुत्र-पत्नी आदि कोई भी शरण नहीं देता है। ‘एगोहं' अर्थात् मैं अकेला हूँ, और 'नत्थि मे कोई मेरा कोई नहीं है। यह सुदृढ विचार कर नमि राजर्षिवत् एकत्व भावना को पुष्ट करना चाहिए। ५. अन्यत्व भावना- यह शरीर, परिजन, बाहरी पदार्थ आदि अन्य हैं। मेरे नहीं हैं। सभी मुझसे भिन्न हैं, पर हैं। पर वस्तु में अगर मैं अपनत्व का आक्षेपण करूँगा तो वह कष्टदायी होगा। जिस प्रकार संध्या के समय वृक्षों पर पक्षी एकत्रित हो क्रीडा करते है, वे सभी सूर्योदय होते ही दसों दिशाओं में पहुंच जाते है, उसी प्रकार परिजन भी इस भव में मिले हैं, मृत्यु होते ही यहाँ से अकेले जाना है। अतः मात्र आत्मा को स्व मानते हुए आत्मगुणों को पहचानना एकत्व भावना है। For Private and Personal Use Only

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