Book Title: Shrutsagar 2019 01 Volume 05 Issue 08
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 22
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रुतसागर www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 22 गणि श्रीकीर्तिउदय कृत वरतीपुरमंडन श्रीमल्लिजिन स्तवन जनवरी-२०१९ गजेन्द्र शाह अनंत जीवराशि से भरे इस संसार में मोक्ष में जाने वाले जीवों की संख्या शास्त्रों में अनंतवें भाग मात्र ही कही है। वह अनंतवाँ भाग भी ऐसा की सुनते ही हृदय थम जाए। कहा गया है कि एक सूई की नोंक के बराबर आलु के बारीक अंश में ज्ञानियों ने अनंत जीव कहे हैं। उसके भी अनंतवें भाग मात्र ही जीव आज तक मोक्ष में गए हैं। बात यहाँ तक ही सीमित नहीं है। आज से अनंत चौबीसी के बाद भी यदि किसी केवली भगवंत को पूछा जाए तब भी यही उत्तर मिलेगा। कभी भी ऐसा उत्तर नहीं मिलेगा कि एक सम्पूर्ण आलु जितने जीव मोक्ष में गए हैं। उसमें भी गणधरादि पद पर रहकर मोक्ष में जाने वाले जीव बहुत ही कम होते हैं। तीर्थंकर पद पर रहकर मोक्ष में जाने वाले जीव तो अत्यंत ही कम होते हैं । १० कोडाकोडी सागर की एक अवसर्पिणी जितने लंबे काल में मात्र २४ तीर्थंकर होते हैं। तीर्थंकर पदवी विश्व की सर्वोच्च पदवी है। प्रकृष्ट पुण्य के धनी ही इसे प्राप्त कर पाते हैं । ऐसे पुण्य की प्राप्ति भी ‘सवि जीव करुं शासन रसी' जैसी उच्च भावना एवं विशिष्ट तपादि से ही संभव है । For Private and Personal Use Only तीर्थंकर नाम कर्मोपार्जन करने वाले अनंत पुन्यराशि के धनी जीव को तीर्थंकरत्व के अंतिम जन्म में भी कई बार अघटित प्रतीत होनेवाले एवं आश्चर्योत्पादक पूर्वजन्मकृत कर्मों के फल का भुगतान करना पड़ता है। जैसे भगवान महावीर ने तीसरे भव में उपार्जित नीचगोत्रकर्म को कई भवों में भुगता है, फिर भी कुछ शेष रहे कर्म ने उन्हें देवानंदा की कुक्षि में डाल दिया और फिर गर्भहरण करना पडा, जो कभी न होने वाली एक आश्चर्यरूप घटना का निर्माण हो गया। इस अवसर्पिणी के १० आश्चर्यों में दूसरी भी एक घटना घटित हुई कि तीर्थंकर कभी भी स्त्री के रूप में जन्म नहीं लेते। १९वें तीर्थंकर मल्लिनाथ, पूर्व भव में माया युक्त तप करने के परिणाम स्वरूप स्त्रीत्व को प्राप्त हुए । अनंत अवसर्पिणियों के बाद आनेवाली हुंडा अवसर्पिणी में कर्मों ने तीर्थंकरों तक को नहीं छोड़ा। वे तो उन कर्मों से मुक्त होकर सिद्धत्व को प्राप्त हो गए। परन्तु हम अभी भी इस संसार में भटक रहे हैं। हमारे भी अनादिकालीन क्लिष्ट कर्म नष्ट हों एतदर्थ १९वें तीर्थंकर श्रीमल्लिनाथजी की स्तवनारूप प्रायः अप्रकाशित एक कृति का यहाँ प्रकाशन किया जा रहा है ।

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