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SHRUTSAGAR
January-2019 हैं। इसलिए द्रव्यानुयोग विषयक ग्रंथ की संख्या अति अल्प है। यद्यपि ग्रंथ की परिभाषागत कठिनाईयों के कारण द्रव्यानुयोग को सरल भाषा में प्रस्तुत करना चुनौतीपूर्ण कार्य है, तथापि वह द्रव्यानुयोग को सरल भाषा में प्रस्तुत करता है, अतः इसका समीक्षात्मक संपादन करना आवश्यक माना गया है। स्याद्वादपुष्पकलिका के संशोधन में तीन प्रमुख समस्याएँ थीं - १) इस ग्रंथ की केवल एक ही पाण्डुलिपि थी। २) लेखन की दृष्टि से पाण्डुलिपि अशुद्ध थी। ३) मूल ग्रंथ भी व्याकरण की दृष्टि से अशुद्ध था। इन समस्याओं के कारण पाठसंशोधन में कठिनाईयों का अनुभव हुआ। समीक्षात्मक-पाठसंपादन के अनुलेखनीय-संभावना और आंतर-संभावना के सिद्धांतों का उपयोग करके इस ग्रंथ को यथासंभव शुद्ध संपादन करने का प्रयास पूज्यश्री ने किया है। ___ पुस्तक के प्रारंभ में चारित्रनंदी विरचित संस्कृत भाषाबद्ध स्वोपज्ञ वृत्तिसहित २६० श्लोकों को विषयानुसार विषयानुक्रम दिया है। कृति के कर्ता जिनका साहित्य सर्जन काल वि.सं. १८९० से १९१५ है, जो चुन्नीजी महाराज के नाम से प्रसिद्ध खरतरगच्छीय विद्वान थे ऐसे चारित्रनंदीजी महाराज की गुरुपरम्परा व अन्य रचनाओं का परिचय भी दिया गया है। अंत में दस परिशिष्ट दिए गए हैं, जिसमें स्याद्वादपुष्पकलिका मूलमात्र, गाथानामकारादिक्रम, स्थलसंकेत, विषयसारणि, पारिभाषिक शब्दकोश, व्याख्याकोश, विशेषनामकोश, श्रीदेवचंद्रजीकृत नयचक्रसार, संक्षेपचूचि एवं सम्पादनोपयुक्त ग्रंथसूचि भी दी गई है।
इस पुस्तक का मुद्रण भी बहुत सुंदर ढंग से किया गया है। आवरण भी कृति के अनुरूप आकर्षक व संदेशपरक बनाया गया है। ग्रंथ का सुचारू रूप से समीक्षात्मक संपादन व अनेक प्रकार के परिशिष्टों में अन्य कई महत्त्वपूर्ण सूचनाओं का संकलन करने से प्रकाशन बहूपयोगी हो गया है।
इस पुस्तक के माध्यम से स्याद्वाद के विषय में तथ्यपरक जानकारी प्राप्ति होती है। संघ, विद्वद्वर्ग तथा जिज्ञासु इस प्रकार के उत्तम प्रकाशन से लाभान्वित होंगे। इस प्रकार श्रुतभवन की यह सर्जनयात्रा जारी रहे ऐसी शुभेच्छा है।
अन्ततः यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि प्रस्तुत प्रकाशन जैन साहित्य के जिज्ञासुओं को प्रतिबोधित करता रहेगा। इस कार्य की सादर अनुमोदना के साथ कोटिशः वंदन।
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