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श्रुतसागर
53 जनवरी-फरवरी - २०१५ * इस लिपि में अनुस्वार, अनुनासिक एवं विसर्ग हेतु स्वतन्त्र चिह्न प्रयुक्त हुए
हैं, जो आधुनिक लिपियों में भी यथावत्, स्वीकृत हैं। * इसकी वर्णमाला में स्वर एवं व्यंजनों का वर्गीकरण ध्वनि-वैज्ञानिक पद्धति से
व्याकरण-सम्मत उच्चारण-स्थान एवं प्रयत्नों के आधार पर किया गया है। • इस लिपि का प्रत्येक वर्ण स्वतन्त्ररूप से एक ही ध्वनि का उच्चारण प्रकट
करता है, जो सुगम और पूर्णरूप से वैज्ञानिक है। * इस लिपि के अक्षरों का आकार समान व सौन्दर्यात्मक प्रविधि से लिखने का
विधान है। * इस लिपि के अक्षर लेखन की दृष्टि से सरल हैं, जिन्हें हस्तनिर्मित कागजों
पर स्याही एवं कलम द्वारा गतिपूर्वक लिखा जा सकता है। * इस लिपि के समस्त अक्षर क्रमशः समानान्तर और शिरोरेखा लगाकर लिखे
जाते हैं। * इस लिपि में अनुस्वार को अक्षर के ऊपर लगाया जाता है, जबकि ब्राह्मी तथा
ग्रंथ लिपियों में अनुस्वार उस वर्ण के पीछे समानान्तर लगाने का विधान मिलता है। * इस लिपि में ए, ओ की मात्राएँ अक्षर के आगे शिरोरेखा से एक 'खडीपाई (अग्रमात्रा) जो नीचे से उस वर्ण की ओर मुडी हो, जोडकर समानान्तर लगाई जाती हैं; जबकि उ, ऊ की मात्राएँ अक्षर के पीछे मध्यभाग में (पृष्ठमात्रा) अथवा उस अक्षर के नीचे लगाने का विधान मिलता है। अर्थात्
इस लिपि में पडीमात्रा का चलन रहा है। * ऋकार की मात्रा अक्षर के नीचे की ओर लगाने का विधान है, जो आधुनिक
नागरी में भी ज्यों का त्यों देखने को मिलता है। * इस लिपि में रेफसूचक चिह्न उस अक्षर के ऊपर बायें से दायीं ओर 'ई' की
मात्रा की तरह लगता है जो आधुनिक नागरी में आज भी प्रचलित है। * इस लिपि में संयुक्ताक्षर लेखन हेतु अक्षरों को ऊपर-नीचे लिखने का विधान मिलता है। अर्थात् संयुक्ताक्षर लिखते समय जिस अक्षर को आधा करना हो उसे ऊपर तथा दूसरे अक्षर को उसके नीचे लिखा जाता है। ब्राह्मी एवं ग्रंथ लिपियों में भी यही परम्परा मिलती है। कालान्तर में इस प्रक्रिया में परिवर्तन
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