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जनवरी-फरवरी- २०१५
श्रुतसागर
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* उपयोगिता की दृष्टि से यह लिपि अव्याप्ति अथवा अतिव्याप्ति दोष से रहित है। विदित हो कि किसी भी लिपि की उपयोगिता देखने के लिए यह जानना आवश्यक होता है कि उसमें अव्याप्ति अथवा अतिव्याप्ति दोष तो नहीं है। अर्थात् उसमें आवश्यक ध्वनियों के द्योतक लिपि - चिह्नों का अभाव या एक ही ध्वनि के द्योतक कई अनावश्यक चिह्नों की उपस्थिति तो नहीं है । अतः अनेक ध्वनियों के लिए एक ही लिपि - चिह्न अथवा एक ध्वनि के लिए अनेक लिपि-चिह्न नहीं होने चाहियें। यह लिपि इन दोषों से पूर्णतः मुक्त है ।
* यह लिपि ध्वन्यात्मक तथा वर्णात्मक प्रतिलिपिकरण (प्रतिलेखन) एवं लिप्यन्तरण के पर्याप्त अनुकूल लिपि है ।
इसमें स्वरों की मात्राओं का वैज्ञानिक विधान एक ऐसी अनोखी विशेषता है, जो इसे संसार की समस्त लिपियों से अधिक विकसित दशा की लिपि सिद्ध करती है।
• लिपि - विज्ञान के आचार्यों ने इस बात को मुक्त कण्ठ से घोषित किया है कि नागरी में आदर्श वैज्ञानिक लिपि के प्रायः सभी गुण विद्यमान हैं।
* इसकी वर्णमाला और वर्तनी को सीख लेने पर शब्दों को रटने की आवश्यकता नहीं रहती, केवल शब्दों का शुद्ध उच्चारण जानने मात्र से उन्हें शुद्ध-शुद्ध लिखा जा सकता है।
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• इसमें प्रत्येक स्वर वर्ण के लिए अलग से स्वतन्त्र मात्रा - चिह्न निश्चित हैं, जिनके प्रयोग द्वारा स्वरयुक्त व्यंजनों अर्थात् अक्षरों को उच्चारण के अनुरूप ही स्वतन्त्र रूप में लिपिबद्ध किया जा सकता है। इसी गुण के कारण इस लिपि द्वारा कम स्थान में अधिक शब्द लिखे जा सकते हैं।
इस लिपि पर किसी भाषाविशेष का एकाधिकार नहीं है। यह संस्कृत, प्राकृत, पालि, अपभ्रंश, हिंदी, महाराष्ट्री (मराठी), नेपाली आदि अनेक भाषाओं की लिपि है और अन्य किसी भी भाषा की लिपि हो सकती है।
इसमें विभिन्न स्थानीय अनुनासिक ध्वनियों के लिए तो अलग-अलग स्वतन्त्र वर्ण (ङ्, ञ्, ण्, न्, म् ) हैं ही, साथ ही अनुस्वार और चन्द्रबिन्दु जैसे अयोगवाहों की उपस्थिति इसकी ध्वनि - वैज्ञानिक पूर्णता को पराकाष्ठा तक पहुँचा देती है।
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