________________
मेनासुन्दरीका वर्णन |
[ २३
राजाके संमुख गंधोदक रख दिया और स्वयोग्य स्थान पर बैठ गई ।
राजाने पूल- उषा लाई हो बेटी ! पुत्रीने उतर दिया-पिताजी ! यह गंधोदक (जिन भगवानके म्हनकर जल है। इसको शरीर पर लगानेसे अनेकों व्याधियां जैसे कोढ । कुष्ट), दाद, गजकणं खाज ( खुजली) आदि रोग दूर हो जाते हैं । कैसा ही दुर्गन्धित शरीर हो परन्तु थोडे हो समय में इस गंधोदकसे अति सुगंधित स्वर्ण सरीखा निर्मल हो जाता है इस गंध-दकको सुरनर विद्याधर मस्तकपर चढ़ाते हैं और अपने आपको इसकी प्राप्ति होनेपर कृत कृत समझते हैं। देखिये !
जब तीर्थंकर देवका जन्म होता है, तब इन्द्र प्रभुको सुमेरु पर्वत पर ले जाकर एक हजार आठ कलशोंसे अभिषेक करता है । इस अभिषेक का जल इतना बहुत होता है कि उस अलके प्रवाहसे नदी बह जाती है । परन्तु वहां पर परमभक्त सुरनर विद्याधरोंके द्वारा मस्तक में लगाते हुवे वह जल बिलकुल शेष नहीं रहता है । कहाँतक कहें ? इसकी महिमा अपार है । इससे सब इच्छित फलकी प्राप्ति हो सकती हैं। इसलिए आप भी इसे वन्दन कीजिये अर्थात् मस्तकपर लगाइये ।
यह सुनकर राजाने सहर्ष गंधोदक मस्तकपर चढाया, और पुत्रीको भक्तियुक्त देखकर प्रसन्न हो प्रेमपूर्वक मस्तक चूम मधुर वचनों से उसको परीक्षा करने लगा-पुत्री ! दुष्य क्या वस्तु है.. और वह कैसे प्राप्त होता है ?
मेनासुन्दरी कहने लगी- हे तात! सुनोवीतराग सर्वज्ञ अरु, हित उपदेशी देव । धर्म दवामय जानिये, गुरु निप्रन्थकी सेव ||