Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Shailesh Dahyabhai Kapadia

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Page 168
________________ . . .--- - १६४] श्रीपाल चरित्र । ही युद्ध करें, तो ठोक है, दोनों ओरकी सेना व्यर्थ कटे । यह विचारकर मंत्रियों ने अपनेर स्वामियोंसे कहा कि आप राजा ही युद्ध करें. व्यर्श सैन्य कटने में कुछ लाभ नहीं हैं । सो यह विचार दोनों को पसंद आया और दोनों अपनी सेनाओंको रेवाकर रस्पर हो : शुद्ध कार मिमिका का और भतीजा रणक्षेत्रमें आ इटे। बीरदमन बोले - 'आओ बेटे ! हा तुम परपर हो लड ल। सौन्यका व्यर्थ संहार क्यों किया जाय ?' तब श्रीपालजी हषित होकर बोले-व हुन टोक काकाजी ! परन्तु अब भी मैं तुम्हें समझाकर कहता हूँ, कि दूसरेका राज्य छोड़ दो, इसों में तुम्हारी मनाई है । क्योंकि मैं तुमको हमेशासे पिताके समान जानता रहा है। मो क्या मैं अपने हो हायसे तुम्हें मारू ? यह सुनकर बी र दमन क्रोधकर बोले-'अरे श्रीपाल ! तु अभी लडका है, तुझं युद्धका व्यावहार, मालूम नहीं है। जब रणक्षेत्रमें आ ही गये, तो किसका पिता और किसका पुत्र ? किसका भाई और किसका मित्र? यहां डरनेसे च सम्बन्ध बताकर कायरोसे काम नहीं चलता । इसोसे मैंने पहिले हो तुझे समझाया था, परन्तु तू न माना और लडकपन किया । सो अब क्या मेरे हाथसे तू बचकर जा सकेगा?' कभी नहीं, कभी नहीं तव कोटीभटको 'मी क्रोध आ गया । वे बोले___'रे वीरदमन ! तेरे बराबर अज्ञानी कोई नहीं है, जो पराये रामपर गर्ज रहा है । देखो कहा है कि जो परस्त्रीसे प्रोति करता है, जो मुहसे गाली निकालता है, जो पराधीन भोजन करता हैं, जो ज्ञात रहित तप करता है, जो पराये धनपर सुख भोगता है, सांपसे मित्रता करता है जो स्त्रीपर भरोसा रखता है, जो अपने मनकी बात सबसे कहता हैं, जो धनी होकर पराधीन रहता हैं, जो विना द्रव्य दानी बनता है, जो वेश्यासे

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