Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Shailesh Dahyabhai Kapadia

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Page 183
________________ श्रीपालका दीक्षा लेना । ११७९ व्रत समिति पंच अरु गुप्ति तीनों, धर्म दश उर धारके । तप तप द्वादश सहें परिषह, कर्म डारें जारके ।। निर्जरा भावना। को इस अनादि मनुष्याकार लोक जो, तीन भागों में (ऊना अघः और मध्य) विभाजित है और ३४३ धन राजूका क्षेत्रफल वाला हैं, के भ्रमणसे बच सकता है । अधो ऊरध मध्य तीनों, लोक पुरुषाकार हैं। तिनमें सुजोव अनादिसे, भरमें भरें दुःखभार हैं। लोक भावना । सार में और सब बस्तुयें मिलना सहज है और अनंतबार गिली हैं, परन्तु रत्नत्रय हो नहीं मिला है। विश्वमें सब सुलभ जानो, द्रव्य अरु पदकी सही । कह 'दोपत्रन्द्र' अनन्त भवमें, बोधिदुर्लभ है यही ॥ बोधिदुर्लभ । सो एमे रत्नत्रय धर्मको पाकर यह जीव अवश्य हा संसार भ्रमणसे बच सकता है । कल्पतरु अरु कामधेनु, रत्न चितामणि सही । यांचे विना फल देत नाहीं, धर्म हैं विन इच्छ ही ।। धर्म भावना । इस प्रकार संसारके स्वरूपका विचारकर तुरन्त ही वे अपने ज्येष्ठ पुत्र धनपालको बुलाकर कहने लगे—'हे पुत्र! अब मुझसे राज्य नहीं हो सकता, अब मैं अनादिकालसे खोई हुई असल संपत्ति (जो स्वारपलाम) प्राप्त करूगा। तुम इस राज्यको सम्हालो ।' तब पुत्र बोला---

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