Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Shailesh Dahyabhai Kapadia

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Page 187
________________ श्रीपालको केवल ज्ञान । [१८३ और मैनासुन्दरो आयिकाने भी घोर तप किया । सो अन्त में सन्यास मरण कर सोलहवें स्वर्ग में स्त्रीलिंग छेदकर बाईस सागर आयुका धारी देव हुआ। वहांसे चय मोझ जावेगा । कुनप्रभा रानीने भी नपके योगसे सन्यास-मरण कर सोलहमें स्वर्गमें देव पर्याय पाई तथा रयनमंजूषा आदि अन्य स्त्री तथा पुरुषोंने भी जैसार तर किया उसकेर स्वर्गादि शुभ गतिको प्राप्त हुये। इस प्रकार हे राजा श्रेणक : श्रीपालजीका चरित्र और सिद्धचक्र व्रतका फल आरसे कहा। रामा श्री गौसमस्त्रामों के मुख में सिद्धचत्र वनका मा (श्रोताल परित्र) सुनकर संपूर्ण मनाको अत्यानंद' हुआ देखो, जिनधर्म और इस व्रतकी महिमा कि कहां तो कोटो भोपाल और कहाँ आत दिन को दूर होकर काप्रक्षेत्र में समान रूप होगा, और सागर तिरना, लक्ष चारों को बांधना तथा और भी बहेर अश्वयं जैसे कार्य करना, आठ हजार रानियों और इन्द्र के समान बड़ी विभूतिका स्वामी होना व इस प्रकार मनुष्य भवमें यश, कीति और सुखोंको भोगकर अन्त में साल कर्मोका नाशकर अविनाशी पदका प्राप्त होना । इसलिए जो कोई भव्य जोव 'जिनधर्मको धारण कर मन, वचन, कायसे व्रतोंको पालन करते हैं वे भी इस प्रकार उत्तम पतिको प्रात होते हैं। सर्व धर्मको सार है, सम्यक् दर्शन शान । अरु सम्यक् चारित्र मिल, यही मोक्षमग जान ॥

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