Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Shailesh Dahyabhai Kapadia

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Page 184
________________ १८.] भोपाल चरित्र 1 'हे पिता ! मैं अभी बालक हूँ। मैंने निश्चित होकर अपना काल खेलने में ही बिताया है। राज्यकार्य मुझे कुछ भो अनुभव नहीं है । सो यह इतना बड़ा कार्य में कैसे करूंगा? आपके बिना मुझसे कुछ न हो सकेगा?' तर नाना जोले- तुम ! मागे पनी नोति चली आई है कि पिताको राज्य पुत्र हो करता हैं, सो तू सब लायक है। फिर क्यों चिता करता है ? राज्य ले और प्रेमपूर्भक नीतिसे प्रजाको पाल ।' जब पुत्र धनपाल ने आज्ञाप्रमाण राज्य करना स्वीकार किया तब श्रीपालजीने कुवर धनपालको राक्यपट्ट देकर तिलक कर दिया, और भले प्रकार शिक्षा देकर कहा हे पुत्र ! अब तुम राजा हुए। यह प्रजा तुम्हारे पुत्रके समान है । 'यथा राजा तथा प्रजा' होती है, इसलिये मिथ्या. त्वका सेवन नहीं करना । परधन और परस्त्रियोंपर दृष्टि नहीं डालना। अपना समय व्यर्थ विकथामों में नहीं बिताना । इन्द्रियों को न्यायविरुद्ध प्रवर्तन करनेसे रोकना, परोपकारमें दत्तचित्त रहना।' इत्यादि वचन कहकर आप बनकी ओर चले गये । आपके जाते ही प्रजामें हाहाकार मच गया। लोग कहने लगे कि अब 'चंपापुरकी शोभा गई । अहा ! ये महाबली दयावंत प्रजापालक महाराजा कहां चले गये, जिनके राज्यमें हम लोगोंने शांतिपूर्भक जीवनका आनंद भोगा । महाराज क्यों चले गये ? क्या हम लोगोंसे उनकी सेवा बुद्र कमी हो गई ? या और कोई कारण हुआ ? राजा हम

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