Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Shailesh Dahyabhai Kapadia

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Page 170
________________ श्रीपाल धरित्र । तब श्रोपाल बोले-'हे तात ! यह सब आपका ही प्रसाद है । आपकी आज्ञा हो सो करू ।' यह सुनकर तोरदमन बोले- लोक है, अब मेमन विचार है कि तु राज्यभार ले और मैं जिन दीक्षा लू जिससे याह भगवास मिटे ।' पश्चात आनंद भेरी बजने लगो। सबका भय दूर हुआ। जहां तहां मंगल गान होने लगे । बीरदमनने थोपालको राज्याभिषेक कराकर पुनः राज्यपद दिया और बोले हे वीरवर | अब तुम सुखसे चिरकालतक राज्य करो। और नोति न्यायपूर्वक पुत्रवतू प्रजाका पालन करो। दुःखी दरिद्रों पर दयाभाव रखों और मेरे उपर क्षमा करो। जो कुछ भी मुझसे तुम्हारे विरुद्ध हुआ हैं सो सब भूल जाओ। अब मैं जिनदीक्षारुपी नावमें बैठकर भवसागरको तिरूगा। इस तरह वोरदमन अपने भतीजे श्रीपालको राज्य देकर भाप वन में गये और वस्त्राभूषण उतारकर निज हस्तोंसे केशोंका लोंच किया। रागद्वेषादि चौदह अंतरंग और क्षेत्र, वास्तु आदि दश बाह्य ऐसे सब चौबीस प्रकार के परिग्रहको त्याग कर पंच महावत धारण किये, और घोर तपश्चरण द्वारा चार घातिया कर्मोंका नाशकर केवल ज्ञान प्राप्त किया, और बहुत जीवोंको धर्मोपदेश देकर उन्हें संसारसे पार किया। पश्चात् शेष अघातियां कर्मोको भी आयुके अन्त समय निःशेष कर परमधाम-मोक्षको प्राप्त किया। धर्म बडो संसारमें, धर्म करो नरनार । धर्म योग श्रीपालजी, पाई लच्छ अपार ॥१॥ वीरदमन मुक्ति हिं गये, धर्म धारकर सार । आठ सहस रानीनकी, मैना भई पटनार ॥२॥ धर्मयोग जिय-सुख लहे, योग योग शिवसास। 'दीपचन्द' नित संग्रहो, धर्म पदारथ सार ||३||

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