Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Shailesh Dahyabhai Kapadia

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Page 178
________________ श्रीकाला चरित्र और सुना जिरानो उदास पठो है। तुरन्त ही रानीकै पास आहर पूछने लगा-गये ! तुम क्यों उदास हो ? जो कुछ कारण हो सो मुझसे कहो । ऐसी कौन बात अलभ्य है जो मैं प्राप्त नहीं कर सकता हूँ?' परन्त रानोने कुछ भी उत्तर न दिया। ऐसी ही मुरझाये हुए फूल के समान रह गई । उसे कुछ भी सुध न रही । तब एक दासी बोली-'हे नरनाथ ! आपने श्रावकक प्रत छोड दिये और मुनिकी निन्दा की । उन्हें पानी में गिरवा दिया और बहुत उपसर्ग किया है सो सब .. समाजशीने र नीले मह दिये है : होमे वे दुःखित होकर मुरझाकर पड़ रही है । राजा यह बात सुन बहुत लज्जित होकर अपनी मल पर विचारने और पश्चाताप करने लगा। पश्चात मधुर वचनोंसे रानीको समझाने लगा-'हे प्रिये ! मुझसे नि:संदेह बड़ी भूल हुई। यमार्थमें मैंने मिथ्यात्व कर्मके उदयसे मिथ्यागुरु, देव, 'धर्मको सेवन किया, और उसीकी कुशिक्षासे सुमतिको छोड़कर कुमतिको ग्रहण किया, मैं महापाणी हूं। मैंने मिथ्या अभिमानके वश होकर बड़े र अनर्थ किये हैं। मैं अपने आप ही अधर में गिर गया । प्रिये । अब मुझं नरकपंध से बचाओ। मैं अपने लिए कर्मोकी निन्दा करता हूँ, उनपर पश्चाताप करता है, और उनसे छुदने की इच्छासे श्री जिनदेय से वार२ प्रार्थना करता हूं।' तब रानी दयावन्त हो बोली____ 'महाराज! आपने धर्मकथाको छोडकर मिथ्यात्व से वन किया, सो भला नहीं किया । आपने धर्माधर्मका पहिचान बिना किए ही मुनिराजको कष्ट दिया। देखो, धर्मशास्त्र में कहा है कि जो कोई जिनशासन व्रतोंकी, जिनमुरु, जिनर्विच च विनधर्मकी निंदा करता है सो निश्चयसे नरक जाता है। वहार मारण, ताडम लेवन, भेदन भूमा रोहणादि दुःखोंको

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