Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Shailesh Dahyabhai Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 167
________________ श्रीपालको वीरदमनसे युद्ध। १३ । "कहना न माना, उसीका फल है । तुम तो चले. अब मैं क्या करूगी ? बालबच्चोंकी रक्षा कैसे होगी ? मेरी यह तरुण अवस्था कैसे कटेगी? देखो, अभी कुछ नहीं गया है। चलो, मौका पाकर भाग चलें । वहीं जंगल में रहकर दिन बिताबेंगे। यह राज्य न सहो अन्य सही। व्यर्थ क्यों मरते हो? और हम लोगोंको हत्या शिर लेते हो । मैं तो नहीं जाने दूंगी फिर तुमको कसम है जो जाओ ! मैं तुम्हारे जाते ही मर जाऊंगी। फिर तुम लौटे भो तो किससे मिलोगे? कहांका राजा, कहांकी प्रजा ? अपना जी सुखी तो जहान सुखो।' वा नकार स्तिका सही अपने पतिको समझाने लगी। यह सुनकर काय रके दिल धड़कने लगे और शूरवीरोंके 'दिल फूलने लगे, इत्यादि । इधर दोनों ओरसे रणभेरी बजा दी गई। रणके बाजे बजने लगे, जिसको सुनकर शूरवार पतंगके समान उछलर कर प्राण समर्पण करने लगे। हायोबाले हाथीवालोंसे, घोडेवाले घोड़े वालोसे, रथ रथसे, प्यादे ध्यादोंसे इस तरह दोनों दल परस्पर भूखे सिंह के समान एक दूसरे पर टूट पड़े। तलवारोंको खनखनाहट और चमक-दमकसे बिजली मी शर्मा -जातो थी। मेघोंको शर्माने के लिए तोपोंके मोले गडगडाते हुए सूर्यको आच्छादित कर देते थे । वोरोंके शिर कट जाने पर भी कुछ समय तक हाई मार२ करता रहा था। लोहू का नदी बहने लगो, जहाँ२ ण्ड मुण्ड दिखाई देने लगे जिसे देखकर वोरोंका जोश बढ़ने लगा और कायरोंके छक्के छूटने लगे । ___ इस तरह दोनों ओर से घमासान युद्ध हुआ, परन्तु दोनोंमें से कोई एक भी पीछे नहीं हटता था। जब दोनों ओरके मंत्रियोंने देखा, कि इन दोनों में से कोई भी नहीं हटता, दोनों यक्ष बलवान और दोनों भुजवली है, तब यदि ये दोनों परस्पर

Loading...

Page Navigation
1 ... 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188