Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Shailesh Dahyabhai Kapadia

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Page 150
________________ १४६] श्रीपाल चरित्र | वो ऐश्वर्य मुझे प्राप्त हुआ है, यह सब उसीके कारणसे हुआ है सो मैं यहां सुख भोगू और यह वहां मेरे विरहसे संतप्त रहें! यह उचित नहीं है इसी विचारमें रात्रि पूरी हो गई । प्रातःकाल होते ही नित्यक्रियासे निवृत्त होकर वे राजाके पास गये और सब वृत्तांन कहकर घर जानेकी आज्ञा मांगी। अब राजा सोचने लगे कि जाने की आज्ञा देते हुए तो मेरा जो दुखता है. गरन्तु हटकर रखना भी अनुचित हैं। ऐसा विचारकर अपनी समेत श्रपालका अन्य समस्त स्त्रियों को बहुत वस्त्राभूषण पहिराकर उन्हें विदा करते समय इस प्रकार हिन शिक्षा दी - " हे पुत्रियो ! यह वडा तेजस्वी, बीर, कोटी भट्ट है । तुम्हारे पूर्व पुण्यसे ऐसा पति मिला है। सो तुम मन, वचन, कायसे इन सेवा करना, सासु आदि गुरु जनोंको आज्ञा पालन रना, परस्पर प्रीति से रहना, छोटों और दीन दुखियोंपर सदा करुणाभाव रखना ! कुगुरु, कुदेव और कुधर्म स्वप्न में भी आराधन न करना । जिनदेव जिनगुरु और जिन धर्मको कमो भव भूलना। इस प्रकार से दोनों कुलकी लाज रखना " इत्यादि शिक्षा देकर विदा किया । यहांसे चलते चलते वे सारट देश में आये और वहां के राजाकी कन्यायें विवाही । महांसे चलकर गुजरात देश में आये और बहांके राजाकी भी पांचसौ कन्यायें विवाहों । फिर महाराष्ट्र देशमें आये और वहां भारसों कन्यायें विवाहीं । फिर वैराट देशमें आकर दोपी कन्यायें पाही । P इस प्रकार धोपालजी बहुतती रानियों और बड़ी सेन्या सहित उज्जैन के उद्यान में आये, जहां इनका कटक नगर के

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