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श्रोपाल चरित्र ।
प्रसादसे अर्थ और काम दोनोंकी प्राप्ति हुई है, इसलिए
आपका मुझपर बहुत उपकार है। मैं आपकी चढ़ाई कहांतक करू?" ऐस परस्पर सुश्र षाके वचन कहे। पश्चात राजा बोले-हे कुमार! यद्यपि जो नहीं चाहता है कि आपको मैं पहांसे विदा होते हुए देखा परन्तु रोकना भी अनुचितः समझता स्योंकि इससे पदाचित हा चितको पक्षमा उत्पन्न हो और प्रस्थानके समय अपशुकन तथा यात्रामें विघ्न समझा जाय, इसलिए मैं बारसे केवल यह वचार कहता चाहता हूँ
साठ पाव सौ आगरे, सेर जास चालीस ।
ता विच मुझको राखियों, यह चाहत बखगोस ।। अर्थात्-मुझे 'मन' में रखिये, भूलिये नहीं । तथा--
चक्रवर्तके तट रहे, चार अक्षरके माह ।
पहिलो अक्षर छोडकर, सो वोजो मुह आह ।। अर्थात्-'दर्शन' भी देते रहिये । और-- मुह अवगुण लखिया नहीं, लखियो निजकुल रोति । ऐसी सदा निवाहियो, मासा घटे न प्रीति ।।
अर्थात्-मेरे गुण सबगुणोंको कुछ भी न चिन्ताकर केवल अपने कुलकी रोतिको हो देखिये, और ऐसा निर्वाह कीजिये. जिससे किचित् मात्र भी प्रीति कम न होने पावे। तब श्रीपालजीने कहा---
कहन सुननकी बात नहि, लिखो पढ़ी नहिं जात । अपने मन सम जानियो, हमरे मनको बात ।।
अर्याद-हे रामन् ! जितना प्रेम आपका मुझपर रहेगा। मेरी बोरसे भी उससे कम कमी नहीं हो सकता । देखिये--