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सरद कुछ दिन सुखके साथ बीतने पर मुनिरामके कहे मैनुसार उसको पुत्र हुअर, जिनका नाम चारुदत्त रखा गया । उम्र बढ़ने के साथ उसमें सद्गुण भी बढ़ते गये। पुण्यवानोंको अच्छी बात अपने आप प्राप्त होती है।
चारुदत बचपनसे ही मन लगाकर पढ़ता-लिखता था। पच्चीस वर्षकी उम्र तक किसी प्रकारको विषय-वासना उसे छू तक न गई । वह दिन रात पुस्तकोंका अभ्यास, विचार, मनन, चिन्तनमें मग्न रहता, इससे बचपनसे ही उसमें विरक्ति-सी आने लगी थी । वह नहीं चाहता था कि विवाह कर संसारके माया-जालमें फंसे । पर माता-पिताके बहुत आग्रह करनेपर उसे अपने मामाकी गुणवती पुत्री मित्रवतीके साथ विवाह करना पड़ा।
विवाह तो हो गया, पर तब भी चारुदत उसका रहस्य नहीं समझ पाया । उसने कभी अपनी स्त्रीका मुह तक नहीं देखा । पुत्रकी यह दशा देख उसकी भांको बड़ी चिन्ता हुई। चारुदत्तको विषयोंकी ओर प्रवृत्ति हो इसके लिए उसे ध्यभिचारी लोगोंकी संगतिमें डाल दिया। इसमें उन्हें सफलता भी मिली । अब चारुदत्त विषयों में इतना फंस गया कि वह वेश्या-प्रेमी बन गया। उसे लगभग बारह वर्ष वेश्याके यहाँ रहते बीत गये। इस अरसे में उसने अपने पासका सब धन खो दिया । चम्पापुरमें बारुदत्त अच्छे धनिकोंकी गिनती में था, पर अब वह एक साधारण स्थितिका आदमी रह गया । रुपयेकी कमी हो जानेसे उनकी स्त्रीका गहना भा अब उसके खर्चके काममें बाने लगा। वेश्याको कुटनी मांने जब देखा कि चारुदत्त दरिद्र हो गया है, तो अपनी लड़कीसे कहा कि बेटी ! अब तुम्हें इसका साथ जल्द छोड़ देना चाहिये, क्योंकि दरिद्र मनुष्य अपने किसी कामका