Book Title: Shat Pahuda Grantha
Author(s): Jain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publisher: Jain Siddhant Pracharak Mandali Devvand

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Page 17
________________ वस्त्रादि वाह्य परिग्रह रहित भाव चारित्र शून्य भी बन्दने योग्य नहीं है, दोनों समान हैं इन में कोई भी संयमी नहीं है। भावार्थ-यदि कोई अधर्मी पुरुष नंगा हो जावै तो वह बन्दने योग्य नहीं है और जिस को संयम नहीं है वह तो बन्दने योग्य है ही नहीं। णवि देहो बंदिञ्जइ णविय कुलो णविय जाइ संजुत्तो । को वंदमि गुणहीणो णहु सवणो णेयसावओ होइ ॥२७॥ नापि देहो वन्द्यते नापिच कुलं नापिच जाति संयुक्तम् । कंवन्दे गुणहीनम् नैव श्रवणो नैव श्रावको भवति ।। अर्थ-न देह को बन्दना की जाती है नकुल को न जाति को. गुण हीन में किम को बन्दना करें, क्योंकि गुण हीन न तो मुनि है और न श्रावक है। वंदमि तव सामण्णा सीलंच गुणंच वंभ चेरंच । सिद्धगमणंच तेसिं सम्मत्तेण सुद्ध भावेण ॥२८॥ बन्देतपः समापन्नाम् शीलंच गुणंच ब्रह्मचर्यच । सिद्ध गमनंच तेषाम् सम्यक्त्वेन शुद्ध भावेन ॥ अर्थ-मैं उनको रुचि महित शुद्ध भावों से बन्दना करता हूं जा पूर्ण तप करते हैं, मैं उनके शील का गुण को और उनकी सिद्ध गति का भी बन्दना करता हूं-- चउसहिचपरसहिओ चउर्तासहिअइसएहिं संजुत्तो। अणवार बहु सत्ताहि ओकम्मक्खय कारण णिमित्तो॥२९॥ चतुः षष्टि चमर सहितः चतुस्त्रिशदतिशयैः संयुक्तः । अनवरतवहुसत्वहितः कर्मक्षयकारण निमित्तम् ॥ अर्थ-जो चौंसठ ६४ चमरों सहित, चौंतीम ३४ अतिशय संयुक्त निरन्तर बहुत प्राणियों के हितकारी और कर्मों के क्षय होने का कारण है। २

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