Book Title: Shat Pahuda Grantha
Author(s): Jain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publisher: Jain Siddhant Pracharak Mandali Devvand

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Page 30
________________ ( २२ ) अर्थ-ये ज्ञानादिक तीनों भाव अर्थात् दर्शन ज्ञान चारित्र जीव केही भाव हैं और अक्षय और अनन्त हैं अर्थात् यह भाव कभी जीव से अलग नहीं होते है और इन भावो का कुछ पार नहीं है । इनही तीनों भावों की शुद्धि के अर्थ दो प्रकार का चरित्र जिनेन्द्र देव ने कहा है। जिणणाण दिहि सुद्धं पढमं संमत्त चरण चरित्तं । विदियं संजम चरणं जिण णाण स देसियं तं पि ॥५॥ जिन जान दृष्टि शुद्धं प्रथमं सम्यक्त्व चरण चरित्रम् । द्वितीयं संयम चरणं जिन जान स देशितं तदपि ॥ अर्थ-जो जिनेन्द्र सम्बन्धी ज्ञान और दर्शन कर शुद्ध हो अर्थात २५ दोष रहित हो मो पहला सम्यकत्व चरण चरित्र है। और जो जिनेन्द्र के शान द्वारा उपदेश किया गया है और संयम का आचरण जिसमें है वह दूसरा चारित्र है। भावार्थ-चारित्रदो प्रकार का है, सर्वज्ञ भाषित तत्वार्थ का शुद्ध श्रद्धान करना प्रथम चारित्र है और सर्वश की आज्ञा के अनुसार संयम अर्थात व्रत आदिक धारण करना दूसरा चारित्र है। एवं विय णा ऊणय सचे मिच्छत्त दोष संकाई । परिहर सम्मत्तमला जिण भणिया तिविह जोएण ॥६॥ एवं चैव ज्ञात्वा च सर्वान् मिथ्यात्वदोषान् शंकादीन् । परिहर सम्यक्त्वमलान् जिन भणितान् त्रिविधि योगेन ॥ अथे-ऐसा जानकर हे भव्य जनो - तुम सम्यक्त्व को मलिन करने वाले मिथ्यात्व कर्म से उत्पन्न हुवे शङ्कादिक २५ दोषा का मन वचन काय से त्याग करो । णिसडिय णिक्कंखिय णिर्विदगिच्छा अमूढ़ दिट्ठीय । उवगोहण ठिदिकरणं वच्छलपहावणाय ते अह॥७॥ निशङ्कितं निःकाक्षितं निर्विचिकित्सा अमूढ दृष्टिश्च । उपगृहनस्थितीकरणं वात्सल्यं प्रभावना च ते अष्टौ ॥

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