Book Title: Shat Pahuda Grantha
Author(s): Jain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publisher: Jain Siddhant Pracharak Mandali Devvand

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Page 111
________________ अर्थ-यह जीव शुभ अशुभ कर्मों का तथा आत्मीक भावों का कर्ता है, उन कर्मों के फलों का तथा आत्मीक परिणामों का भागने वाला है अमूर्तीक है शरीर प्रमाण है अनादिनिधन ( अनादि अनन्त ) है और दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग सहित है। दसणणाणावरणं मोहणियं अंतराइयं कम्मं । णिहविइभविय जीवो सम्मं जिणभावणाजुत्तो ॥१४९।। दर्शन ज्ञानावरणं भोहनीयमन्तररायं कर्म । निष्टापति भव्यजीवः सम्यग्जिनभावनायुक्तः ।। अर्थ~ ममीचीन जिन भावना सहित भव्य जीव ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, और अन्तराय इन चारों घाति या कर्मों का नाश करते हैं। वलसौक्ख णाणदंसण चत्तरिवि पायडागुणाहोति । पटेघाइचउक्के लोयालोयं पयासेदि ।।१५०॥ वलसौग्व्यं ज्ञानंदशनं चत्वारोपि प्रकटा गुणा भवन्ति । नष्टे वातिचतुप्के लोकालोकं प्रकाशयति ॥ अर्थ-उन घातिया कर्मा के नाश होने पर अनन्तवल अनन्तसुख अनन्तज्ञान अनन्तदर्शन यह आत्मीक चारागुण प्रकट होते हैं और उनके ज्ञान में लोक अलांक प्रकाशित होते हैं। णाणीसिव परमेही सव्वण्हू विण्हु चउमुहो बुद्धो । अप्पोवियपरमप्पो कम्मविमुक्कोय होइफुडम् ॥१५१।। ज्ञानीशिवः परमेष्ठी सर्वज्ञाविष्णुः चतुर्मुखोबुद्धः । आत्मापि च परमात्मा कर्मविमुक्तश्च भवति स्फुटम् ।। अर्थ--यह संमारी आत्मा ही सम्यग्दर्शनादिक के निमित्त से कर्म बन्ध रहित होकर परमात्मा होता है जिसको ज्ञानी, शिव, परमष्ठी, सर्वज्ञ, विष्णु, चतुर्मुख, बुद्ध, कहते हैं।

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