Book Title: Shat Pahuda Grantha
Author(s): Jain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publisher: Jain Siddhant Pracharak Mandali Devvand

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Page 133
________________ ( १२५ ) णाणं चारितहीणं दसणहीणं तवण संजुत्तं । अण्णेमु भाव रहियं लिंगगहणेण कि सौक्खं ॥५७॥ ज्ञानं चारित्र हीनं दर्शन हीनं तपोभिः संयुक्तम् । अन्येषु भावरहितं लिङ्ग ग्रहणेन किं सौख्यम् । अर्थ-जहां चारित्र हीन तो भान है यद्यपि तपकर सहित है परन्तु सम्यगदर्शन कर हीन है तथा अन्य धर्म क्रियाओं में भी भाव रहित है ऐसे लिङ्ग अर्थात मुनि वंश धारण करने से क्या सुख है ? अर्थात मोक्ष सुख नहीं होता। अचेयणम्मि चेदा जोमण्णइ सो हवेइ अण्णाणी । सो पुण णाणी भणिओ जो भण्णइ चेयणो चेदा ॥५८॥ अचेतने चेतयितारं यो मनुते स भवति अज्ञानी । स पुन ज्ञानी भणितः यो मनुते चेतने चेतयितारम् ॥ अर्थ-जो अचेतन में चेतन माने है सो अज्ञानी है। वह शानी है जो चेतन में ही चेतन मान है। तव रहियं जं गाणं णाण विजुत्तो तओवि अकयत्यो । तम्हा णाण तवेण संजुत्तो लहइ णिव्वाणं ॥ ५९॥ तपो रहितं यत् ज्ञानं ज्ञान वियुक्तं तपोपि अकृतार्थः । तस्मात् ज्ञान तपसा संयुक्तः लभते निर्वाणाम् ।। अर्थ-जो तप रहित शान है वह निरर्थक व्यर्थ है तैसे ही ज्ञान रहित तप भी व्यर्थ है इससे ज्ञान सहित और तप सहित जो पुरुष है वही निर्वाण को पावे है। धुवसिद्धी तित्थयरो चउणाण जुदा करेइ तब यरणं । णाऊण धुवं कुज्जा तवयरणं गाण जुत्तोचि ॥६०॥ ध्रुवसिद्धिस्तीर्थकर चतुष्क ज्ञान युतः करोति तपश्चरणम् । ज्ञात्वा ध्रुवं कुर्यात् तपश्चरणं ज्ञान युक्तोपि ।। अर्थ-चार मान ( मति शान श्रुत शान अवधि शान और

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