Book Title: Shat Pahuda Grantha
Author(s): Jain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publisher: Jain Siddhant Pracharak Mandali Devvand

View full book text
Previous | Next

Page 143
________________ कुच्छियदेवं धम्मं कुच्छिय लिंगंच वंदए जोदु । लज्जा भयगारवदो मिच्छादिट्टी हवे सोहु ॥१२॥ कुत्सितदेव धर्म कुत्सितलिङ्गं च वन्दते यस्तु । लज्जा भय गारवतः मिथ्यादृष्टि भवेत् सस्फुटम् ॥ अर्थ-खोटेदेव (रागीद्वेषी ) खोटा धर्म (हिंसामयी ) और खोटे लिङ्ग (परिग्रही गुरु ) को लज्जा कर भयकर अथवा वडप्पन कर जो वन्दे हैं नमस्कार करें हैं ते मिथ्यादृष्टि जानने। सवरावेक्खं लिंग राईदेवं असंजयं वंदे । माणइ मिच्छादिट्टी णहुमाणइ सुद्ध सम्मत्तो ॥१३॥ स्वपरापेक्षं लिङ्ग रागिदेवम् असंयतं वन्दे । __ मानयति मिथ्यादृष्टिः न स्फुटं मानयति शुद्धसम्यक्त्वः ॥ अर्थ-स्वापेक्ष लिङ्ग को ( अपने प्रयोजन की सिद्धि के अर्थ अथवा स्त्री सहित होकर साधु वेश धारण करने वाले को ) और परापक्षलिङ्ग (जो किसी की जबरदस्ती से वा माता पितादि के चढ़ाने स वा राजा के भय से साधु हो जाव) को में वन्दना करता हूँ तथा रागीदेवों का में बन्दू हूं अथवा समय रहित (हिंसक) देवताओं) को वन्दना करु हूं ऐसा कहकर तिन को माने है सो मिथ्यादृष्टि है । जो एसे को नहीं मानता है वह शुद्ध सम्यग्दृष्टी है। सम्माइट्टीसावय धम्मं जिणदेव देसियं कुणदि । विपरीयं कुव्वंतो मिच्छादिडी मुणेयव्वो ॥१४॥ सन्यग्दृष्टिः श्रावकः धर्म जिनदेवदोशतं करोति । विपरीतं कुर्वन् मिथ्यादृष्टिः ज्ञातव्यः ।। अर्थ-भो श्रावको ! जो जिनेन्द्र देव के उपदेशे हुवे धर्मको पालता है वह सम्यग्दृष्टि है और जो अन्य धर्म को पालता है सो मिथ्या दृष्टी जानना। मिच्छादिट्ठी जो सो संसारे संसरेइ सुहरहिओ। जम्मजर परणपउरे दुक्खसहस्साउले जीवो ॥९५।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 141 142 143 144 145 146 147 148 149