Book Title: Shat Pahuda Grantha
Author(s): Jain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publisher: Jain Siddhant Pracharak Mandali Devvand

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Page 147
________________ ( १३९ ) इससे परमेष्ठी को नमस्कार किया जानना । और आगम भाव निक्षे पकर जब आत्मा जिसका ज्ञाता होता है तब वह उसी स्वरूप कहलाता है | इसमे अर्हन्तादिक के स्वरुप को ज्ञेय रूप करने वाला जीवात्मा भी अर्हन्तादि स्वरुप हो जाता है। और जब यह निरन्तर ऐसाही बना रहे है तब समस्त कर्मक्षय रूप शुद्ध अवस्था (मुक्त) हो जाती है । जो समस्त जीवांको संबोधन करने में समर्थ है सो अन है अर्थात् जिसके ज्ञान दर्शन सुख वीर्य परिपूर्ण निरावरण होजाते है सोही अन्न हैं । सर्व कर्मो के क्षय होने से जो मोक्ष प्राप्त होगया हो सो मिद्ध हैं। शिक्षा देनेवाले और पांच आचारों को धारण करने वाले आचार्य है | श्रुतज्ञानोपदेशक हो तथा स्वपरमत का ज्ञाता हो सो उपाध्याय हैं । रत्नत्रय का साधन करें सो साधु हैं । / संमत्तं संणाणं सच्चारितं हिसत्तवं चैत्र I चउरो चिट्ठा आदे ता आदा हुमेसरणं ।। १०५ सम्यक्त्वं ज्ञानं सचारित्रं हि सत्तपश्चैव । चत्वारो तिष्ठति आत्मनि तस्मारात्मास्फुटं में शरणम् ॥ अर्थ- सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यकचारित्र और सम्यकतपयह चारों आत्मा में ही तिष्ठे हैं तिससे आत्माही मेरे शरण है । भावार्थ । दर्शन ज्ञान चरित्र और तप ये चारों आराधना मुझे शरण हो ! आत्मा का श्रद्धान आत्माही करें हैं आत्मा का ज्ञान आत्मा ही करे है आत्मा के साथ एकमेक भाव आत्माकाही होता है और आत्मा आत्मा में ही तप है वही केवल ज्ञानेश्वर्य को पावे है ऐसे चारों प्रकार कर आत्मा कोही घ्यावे इससे आत्माही मेरा दु:ख दूर करने वाला है आत्माही मंगल रूप है | एवं जिणं पणत्तं मोक्खस्यय पाहुंड सुभत्तीए । जो पढाइ सुणइ भावई सो पावइ सासयं सोक्खं ।। ९०६ एवं जिन प्रज्ञतं माक्षस्यच प्राभृत सुभक्त्या । य पठति श्रणोति भावयति स प्राप्नोति शास्वत्तं सौख्यम् ॥

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