Book Title: Shat Pahuda Grantha
Author(s): Jain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publisher: Jain Siddhant Pracharak Mandali Devvand

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Page 144
________________ ( १३६ ) मिथ्यादृष्टिः यः स संसारे संसरति सुखरहितः । जन्मजरामरण प्रचुरे दुःखसह श्राकुले जीवः || अर्थ -- जो मिथ्या दृष्टि प्राणी हैं वह जन्म जरा और मरण की अधिकता वाले इस चतुर्गति रूप संसार में सुखरात भ्रम हैं और वह संसार हज़ारो दुःख से परिपूर्ण है । सम्मगुण मिच्छ दोसो मणेण परि भाविऊण तं कुणसु । जं ते मणस्स रुच्च किं वहुणा पलवि एणंतु ॥ ९६ ॥ सम्यक्त्वं गुणः मिथ्यात्वं दोषः मनसा परिभाव्य तत्कुरु । यत्ते मनसि रोचते किंबहुना प्रलपितेन तु ॥ अर्थ - भो भव्य ! सम्यग्दर्शन तो गुण अर्थात् उपकारी है और मिथ्यात्व दोष है, ऐसा विचार करो पीछे जो तुम्हारे मन में रुच तिसको ग्रहण करो बहुत बोलने से क्या । वाहिर संग विमुको विमुको मिच्छभाव णिग्गंथो । किं तस्स ठाण मौणं णवि जाणदि अप्प सम भाव ॥९७॥ वाह्य संग विमुक्त. न विमुक्तः मिथ्या भावेन निर्ग्रन्थ. | किं तस्य स्थानं मौनं नापि जानाति आत्मसम भावम् ॥ नहीं अर्थ - जो वाह्य परिग्रह से रहित है परन्तु मिथ्यात्व भावों से छूटा है उस निर्ग्रन्थ वैषवारी के कायोत्सर्ग और मौन व्रत कर ने से क्या साध्य है अर्थात् कुछ भी नहीं वह आत्मा के समभाव को वीतराग भाव को ) नहीं जाने है । - भावार्थ – विना अन्तरङ्ग सम्यक्त्व कोई भी वाह्य क्रिया कार्यकारी नहीं । मूल गुणं छितूणय बाहिर कम्मं करेइ जो साहु | सोलह सिहं, जिण लिंग विराधगो णिच्चं ॥ ९८ ॥ मूलगुणं छित्वा बाह्य कर्म करोति यः साधुः । स न लभते सिद्धिमुखं जिनलिङ्ग विराधकः नित्यम् ॥

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