Book Title: Shat Pahuda Grantha
Author(s): Jain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publisher: Jain Siddhant Pracharak Mandali Devvand

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Page 138
________________ ( १३० ) सम्यक्त्वज्ञान रहितः अभव्यनीयोहि मोक्षपरिमुक्तः संसारमुखेमुरतः नहि कालो भवति ध्यानस्य ।। अर्थ-सम्यक्त और शान कर रहित अभव्यजीवात्मा मोक्ष रहित संसार के सुख में अत्यन्त प्रीतिवान हैं ऐसे पुरुष कहते हैं कि यह ध्यान का काल नहीं है ॥ पंचसु पहव्वदेसुय पंचसपिदीसु तीमुगुत्तीसु । जो मूढो अराणाणी णहु कालो भणइ झाणस्स ।। ७५ ॥ पञ्चसु महाव्रतेषु च पश्चसमितिषु तिसृषु गुप्तिषुः यो मूढः अज्ञानी नहिं कालो भणति ध्यानस्य ॥ अर्थ-जो पांच महाव्रत पांच समिति तीन गुप्ति से अनजान है वह ऐसा कहते हैं कि यह काल ध्यान का नहीं है। भरहे दुक्खमकाले धम्म ज्झाणं हवेइ साहुस्स । सं अप्प सहावहिदे णहु मण्णइ सोचि अण्णाणी ।। ७६ ॥ __ मरते दुःखम काले धर्मध्यानं भवति साधोः तद आत्मस्वभावस्थिते नहिं मन्यते सोपि अज्ञानी ॥ अर्थ-इस पंचम काल में भारत वर्ष में आत्मस्वभाव में स्थित जो साधु हैं तिनके धर्म म्यान होता है जो इसको नहीं मानते हैं सो अशानी हैं। अजवितिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहहि इंदत्तं । कोयंतियदेवत्तं तच्छ चुया णिबुदिं जंति ॥ ७७ ॥ अद्यापि त्रिरत्नशुद्धा आत्मानंध्यात्वा लभन्ते इंद्रत्वम् लोकान्तिक देवत्वं तस्मात् च्युत्वा निर्वाण यान्ति ॥ अर्थ-अब भी इस पंचम काल में साधुजन सम्यक् दर्शन सम्यगज्ञान सम्यकचारित्र रूप रत्नों से निर्दोष होते हुवे आत्मा को ध्याय कर इन्द्रपद को पाते हैं केई लौकान्तिक देव होते हैं और वहां से चय कर पुनः निर्वाण को पावे हैं ।

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