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अर्थ - चल मलिन और अगाढ़ता रहित है सम्यग्दर्शन जिन का वृह्मचर्यादिक चारित्र में दृढ ( स्थित ) है विषयों से विरक्त है चित्त जिनका ऐसे शुद्ध आत्मा के ध्यान करने वाले को अवश्य निर्वाण हांव है |
जेण रागो परे दब्बे संसारस्सहि कारणं ।
तेण वि जोइणो णिच्चं कुज्जा अप्पेसु भावणा ॥ ७१ ॥ येन रागः परे द्रव्ये संसारस्यहि कारणम् ।
तेनापि योगी नित्यं कुर्य्यादात्मसु भावनाम् ॥
अर्थ - परद्रव्यों में राग का करना संसार का ही कारण है
इससे योगीश्वर नित्यही आत्मा में भावना करें।
दिए य पसंसार दुक्खे य सुहएमु य ।
सत्तूणं चैव बन्धूणं चारित्तं सम भावदो ॥ ७२ ॥ निन्दायां च प्रसंसायां दुःखे च सुखेषु च ।
शत्रूणां चैव बन्धूणां चरित्रं समभावतः ||
अर्थ-निन्दा और प्रसमा में तथा दुःख और मुखों के प्राप्त होने
पर तथा शत्रु और मित्रों के मिलन पर समता ( द्वेष और राग का न होना ) भाव होने से सम्यक चारित्र ( यथाख्यात चारित्र ) होता है।
चरिया बरिया पदसमिदि वज्जिया सुद्ध भाव पव्भट्टा । कई जंपति राहु कालो झाण जोयस्स ||१३|| चर्या वरिका व्रतसमिति वर्त्तितो शुद्ध भाव प्रभ्रष्टाः केचित जल्पन्ति नराः नहिं कालो ध्यान योगस्य ॥
अर्थ-चर्या अर्थात् आचार के रोकनेवाले, व्रत और समिति से
रहित और आत्मीक शुद्ध भावों से भ्रष्ट ऐसे कई एक पुरुष कहते हैं किं यह काल ध्यान करने योग्य नहीं हैं ।
सम्मत्त णाणरहिओ अभव्वजीवोहि मोक्खपरिमुको । संसारसुहेमुरदो हु कालो हवइ झाणस || ७४ ॥
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