Book Title: Shat Pahuda Grantha
Author(s): Jain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publisher: Jain Siddhant Pracharak Mandali Devvand

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Page 128
________________ ( १२० ) इति उपदेशसारं जन्ममरणहरं स्फुटं मन्यते यंतु । तत् सम्यक्त्वं भणितं श्रमणाणं सावयाणं पि ॥ अर्थ - - -- यह उपदेश साररूप है जन्ममरण के हरने वाला है जो इसको माने है श्रद्धे है सोही सम्यक्त्व है यह सम्यक्त्व मुनियों को श्रावकों को तथा अन्य सर्वही जीवमात्र के वास्ते कहा है । जीवाजीव विहत्ती जोई जाणेइ जिणवरमएण । तं सण्णाणं भणियं अवियच्छं सव्वदरसीहिं ॥ ४१ ॥ जीवाजीव विभक्ति योगी जानाति जिनवरमतेन । तत् संज्ञानं भणितम् अवितथं सर्वदर्शिभिः || अर्थ - योगी जिनेन्द्र की आज्ञा के अनुकूल जीव और अजीव के भेद को जाने है यही सत्यार्थ सम्यग ज्ञान सर्वशंदव ने कहा है । जं जाणिऊण जोई परिहारं कुणइ पुण्णपाचाणं । तं चारितं भणियं अवियप्पं कम्मरहिए ।। ४२ ।। यत् ज्ञात्वा योगी परिहारं करोति पुण्यपापानाम् । तत् चारित्रं भणितम् अविकल्पं कर्म्मरहितेन || अर्थ – जो मुनि भेदज्ञान को जानकर पुण्य पाप को छोड़े है सोई अविकल्प (संकल्प विकल्प रहित - यथाख्यात) चरित्र हैं ऐसा कर्मों कर रहित श्री सर्वज्ञदेव ने कहा है । जो रयणत्तय जुत्तो कुणइ तवं संजदो ससतीए । सो पावर परमपयं झायंतो अप्पयं सुद्धं ॥ ४३ ॥ यो रत्नत्रययुक्तः करोति तपः संयतः स्वशक्त्या । स प्राप्नोति परमपदं ध्यायन् आत्मानं शुद्धम् ॥ अर्थ – जो रत्नत्रय सहित संयमी मुनि अपनी शक्ति अनुसार तप करे है वह शुद्ध आत्मा को ध्याता हुआ परम पद [ मोक्ष ] को पावे है।

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