Book Title: Shat Pahuda Grantha
Author(s): Jain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publisher: Jain Siddhant Pracharak Mandali Devvand

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Page 120
________________ ( ११२ ) मसि कृषि विद्या पणिज्य सेवा आदिक आरम्भों को भी नहीं करता है किन्तु आत्मस्वभाव में अत्यन्त लीन है वह निर्वाण को पावै है। परदव्वरो बज्मइ विरओ मुच्चे विविहकम्पति। पसो मिण उपदेसो सयासओ वन्धमोक्खास्म ॥ १३ ॥ परद्रव्यरतः वध्यते विरतः मुश्चति विविधकर्मभिः । एष जिनोपदेशः समासतः बन्धमोक्षस्य ।। अर्थ-जो परद्रव्यों में प्रीति करता है वह कर्मों से बन्धता है और जो उनसे विरक्त रहता है वह समस्त कर्मों से छूटता है यह धन्ध और मोक्ष का स्वरूप संक्षेप से जिनन्द्रदेव ने उपदेश किया है। सहब्बरओ सवणो सम्माइट्ठी हवेइणियमेण । सम्मत्त परिणदोपुण खवेइ दुदृढकम्माई ॥१४॥ स्वद्रब्यरतः श्रमणः सम्यग्दृष्ठिर्भवति नियमेन । सम्यक्त्व परिणतः पुनः क्षिपते दुष्टाष्टकर्माणि ॥ अर्थ-जो मुनि अपने आत्मीक द्रव्य में लीन है वह अवश्य सम्यग्दृष्टि है वही सम्यक्त्व के साथ परणत होता हुवा दुष्ट अष्ट कर्मा का क्षय करे है ॥१४॥ मो पुण परदव्वरओ मिच्छादिट्ठी हवेइ सो साहु । मिच्छत्त परिणदो पुण वज्झदि दुहकम्महि ॥ १५ ॥ यः पुनः परद्रव्यरतः मिथ्यादृष्टिभवति स साधुः मिथ्यात्वपरिणतः पुनः बध्यते दुष्टाष्टकर्मभिः ।। अर्थ-जो साधु परद्रव्यों में लीन है वह मिथ्या दृष्टि है और मिथ्यात्व से परणत हुवा दुष्ट अष्ट कर्मों से वन्धता है। परदव्वादो मुगइ सहव्वादोहु मुगगह हबई । इय णाऊण सदव्वे कुणह रई विरह इयरम्मि ॥१६ परद्रव्यात् दुर्गतिः स्वद्रव्यात् स्फुटं सुगतिः भवति । इति ज्ञात्वा स्वद्रव्ये कुरुत रतिं विरति मितरस्मिन् ॥

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