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इयघाइकम्ममुक्को अट्ठारसदोस वज्जिओ सयलो । तिहुवण भवण पईवो देउमम उत्तमं वोहं ।।१५२।। इतिघातिकर्ममुक्तः अष्टादशदोषवज्जितः सकलः । त्रिभुवन भवनप्रदीपः ददातु मह्यमुत्तमं बोधम् ॥
अर्थ - इस प्रकार घातिया कर्मों से रहित, क्षुधादिक अठारह दोषों से वर्जित परमौदारिक शरीर सहित और त्रिलोक रूपी मन्दिर के प्रकाशने में दीपक के समान श्रीअर्हत देव मुझे उत्तम बोध देवो ! जिणवर चरणांबुरुहं णमंतिजे परमभत्तिएएण | जम्पवेल्लिमूलं खणन्ति वरभावसच्छेण || १५३॥ जिनवर चरणाम्बुरुहं नमन्तिये परमभक्तिरागेन । जन्मवलीमूलं खनन्ति वरभावशस्त्रेण ||
अर्थ - जो भव्यजीव परम भक्ति और अपूर्व अनुराग से जिनेन्द्रदेव के चरण कमलों को नमस्कार करते हैं ते पुरुष उत्तम परिणाम रूपी हथियार से संसार रूपी बलि की जड़ को खोदते हैं अर्थात् मिथ्यात को नाश करते हैं ।
जहसलिलेण णलिप्पइ कमलिणिपत्तं सहावपयडीए ।
तह भावेण णलिप्प कसाय विसएहि सप्पुरुसो || १५४|| यथा सलिलेन न लिप्यते कमलिनीपत्र स्वभावप्रकृत्या | तथा भावना नलिप्यते कषायविषयैः सत्पुरुषः ॥
अर्थ - जैसे कमलिनी के पत्र को स्वाभाव से ही जल नहीं लगता है तैसे ही सत्पुरुष अर्थात् सम्यगदृष्टि जिन भक्ति भाव सहित होने से कषाय और विषयों में लिप्त नहीं होते हैं ।
तेविय भणामिदंजे सयल कलासीलसंजमगुणेहिं । वहुदोसाणावासो सुमलिण चित्तोणसावयसमोसो ॥ १५५ ॥ तेनापि भणामिअहं ये सकलकलाशील संयमगुणैः । वहुदोषाणामावासः सुमलिनचित्तः न श्रावकसमः सः ॥