Book Title: Shat Pahuda Grantha
Author(s): Jain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publisher: Jain Siddhant Pracharak Mandali Devvand

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Page 36
________________ ( २८ ) पञ्चैवाणुव्रतानि गुणत्रतानि भवन्ति तथा त्रीणि । शिक्षाव्रतानि चत्वारि संयमचरणं च सागारम् ॥ अर्थ -- ५ अणुव्रत ३ गुणत्रत और ४ शिक्षावत यह १२ प्रकार का संयमाचरण श्रावकों का है । थूले तसकाय वहे धूले मोसे अदत्तधूलेय । परिहारो पर महिला परिग्गहारंभपरिमाणं ||२४|| स्थूलत्रस कायवधे स्थूलमृपा ( वादे ) अदत्तम्थूले च | परिहारः परमहिलायां परिग्रहारम्भ परिमाणम् ॥ अर्थ - काय के जीवों के घात का मोटे रूप त्याग यह अहिंसा अणुव्रत है, मृषावाद अर्थात झूठ बोलने का मोटे रूप त्याग यह सत्य अणुव्रत है, २ विनादी हुवी वस्तु के नलेने का मोटे रूप त्याग यह अचौर्य अणुव्रत है, परस्त्री का ग्रहण न करना यह शील अणुव्रत है ४ परिग्रह अर्थात धन धन्यादिक और आरम्भ का प्रमाण करना यह परिग्रह परिमाण अणुव्रत है इस प्रकार यह पांच अणुव्रत हैं । दिसविदिसमाण पढर्म अणत्थडंडस्स वज्जणं विदियं । भोगोपभोग परिमा इयमेवगुणन्बया तिरिण ||२५|| दिग्विद्विग्मानं प्रथमम्-अनर्थदण्डस्य वर्जनं द्वितीयम् । भोगोपभोगपरिमाणम् - इदमेव गुणत्रतानि त्रीणि ॥ अर्थ --- दिशा विदिशाओं में जाने आने के लिये मृत्युपर्यन्त के वास्ते प्रमाण करना दिव्रत अर्थात पहला गुणव्रत है ? अनर्थदण्डों का अर्थात् पापोपदेश, हिंसादान २ अपध्यान ३ दुःश्रुति ४ प्रमादचर्या का छोडना दूसरा गुणत्रत है और भोग उपभोग की चीजों का प्रमाण करना तीसरा गुणवत है यह तीन गुणवत हैं । सामाइयं च पढमं विदियं च तहेव पोसहं भणियं । इयं अतिहि पुज्जं चउत्थ संलेहणा अन्ते ||२६|| सामायिकं च प्रथमं द्वितीयं च तथैव प्रोषधो मणितः । तृतीयमतिथि पूज्यः चतुर्थ सलखना अन्ते ॥

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