Book Title: Shat Pahuda Grantha
Author(s): Jain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publisher: Jain Siddhant Pracharak Mandali Devvand

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Page 62
________________ ( ५४ ) अर्थ-शब्दों के विकार से उत्पन्न हुवे ( अक्षर रुप परणय) में ऐसे अर्धमागधी भाषा के सूत्रों में जो जिनेन्द्र देवने कहा है सो तैसाही श्री भद्रबहु के शिष्य श्री विसाखाचार्य आदि शिष्य परम्परायने जाना है तथा स्वशिष्यों को कहा है उपदेशा है। वही संक्षेप कर इस ग्रन्थ में कहा गया है। वारस अंगवियाणं च उदस पूव्वंगविउलविच्छरणं । सुयणाण भद्दवाहु गमय गुरुभयवउ जयउ ॥६२॥ द्वादशाङ्ग विज्ञानः चतुर्दश पूर्वाङ्ग विपुल विस्तरणः । श्रुतज्ञानी भद्रवाहुः गमकगुरुः भगवान् जयतु || अर्थ- - जो द्वादश अङ्गों के पूर्ण शाता हैं और चौदह पूर्वाङ्गों का बहुत है विस्तार जिनके गमक (जैसा सूत्र का अर्थ है तैसाही वाक्यार्थ होवे तिस के ज्ञाता ) के गुरु ( प्रधान ) और भगवान् (इन्द्रादिक कर पूज्य ) अन्तिम श्रुतशानी ऐम श्री भद्रवाहु स्वामी जयवन्त होहु उनको हमारा नमस्कार होवो। पांचवीं पाहुड। भाव प्राभृतम् । मङ्गला चारणम् णमिऊण जिणवरिंदे परसुर भवाणंद दिए सिद्धे । घोच्छामि भाव पाहुड मवसंसे संजदे सिरसा ॥१॥ नमस् त्वा जिनवरेन्द्रान् नर सुर भवनेन्द्रवन्दितान् सिद्धान् । वक्ष्यामि भावप्राभृतम्-अवशेषान् संयतान् शिरसा ।। अर्थ- नरेन्द्र सुरेन्द्र और भवनेन्द्र ( नागेन्द्र ) कर वन्दनीय (पज्य ) ऐसे जिनेन्द्रदेव को सिद्ध परमेष्ठी को तथा आचार्य उपाध्याय और साधु परमेष्टी को मस्तक नमाय नमस्कार करिक भाव प्राभृत को कहूंगा (कहता हूं)

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