Book Title: Shat Pahuda Grantha
Author(s): Jain Siddhant Pracharak Mandali Devvand
Publisher: Jain Siddhant Pracharak Mandali Devvand

View full book text
Previous | Next

Page 106
________________ ( ९८ ) अर्थ-वह उत्तम मुनि जो मोक्ष के स्वरूप को जानते हैं देखे हैं और विचारते हैं किसी प्रकार के संसारिक सुख को नहीं चाहते हैं तो भल्पसार वाले मनुष्य और देवों के सुख की चाहना कैसे करें । उच्छरइ जाण जरओ रोयग्गी जाण उहइ देह उडि । इंदिय वलं ण वियलइ ताव तुमं कुणइ अप्पहिअं ॥१३२॥ आक्रमति यावन्न जरा रोगाग्निः यावन्न दहति देह कुटिम् । इन्द्रिय वलं न विगिलते तावत् त्वं कुरु आत्महितम् ।। अथ भी मुन ! जब तक बुढ़ापा नहीं आवे रांग रूपी अग्नि जब तक देह रूपी घर को न जलावे और इन्द्रियों का बल न घटे तब तक तुम आत्महित करो। छज्जीव छडायदणं णिचं मण वयण काय जोएहिं । कुण दय परिहर मुणिवर भावि अपुव्वं महासत्तं ॥१३३॥ षट्जीवपड़नायतनानां नित्यं मनो वचन काययोगैः । कुरु दयां परिहर मुनिवर ! भावय आर्थे महासत्व ॥ अर्थ--भो मुनिवर ? भो महासत्व ? तुम मन बचन काय से । सर्वदा छै काय के जीवों पर दया करो, और षट अनायतनों को . छोड़ो तथा उन भावों को चिन्तवो जो पहले नहीं हुए हैं । दस विह पाणाहारो अणंत भवसायरे भमंतेण । भोयसुह कारणलं कदोय तिविहेण सयल जीवाणं ॥१३॥ दशविधप्राणाहारः अनन्त भवसागरेभ्रमता। भोगसुखकारणार्थं कृतश्च त्रिविधेन सकलजीवानाम् । अर्थ-भो भव्य ? अनन्त संसार में भ्रमण करते हुए तुम ने भोग सम्बन्धी सुख करने के लिये मन बचन काय से समस्त त्रसस्थावर जीवों के दश प्रणों का आहार किया। पाणि वहे हि महाजस चउरासी लक्ख जोणि मज्झम्मि । उप्पं जंत परंतो पत्तोसि णिरं तरं दुक्खं ॥ १३५ ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149